आदरणीय पाठक वृन्द को अनामिका का नमस्कार ! लीजिये जी आ गया ब्रहस्पतिवार और प्रस्तुत है दिनकरजी के साहित्यिक जीवन सफ़र का एक और नया पृष्ठ जिसमे दिनकरजी बताते हैं नौकरी करने की विवशता और अपने द्विमनस्क व्यक्तित्व की व्यथा....
दिनकरजी जीवन दर्पण -10
लीजिये चार पंक्तियाँ दिनकर जी के ही शब्दों में....
कलि की पंखडी पर ओस कण में
रंगीले स्वप्नों का संसार हूँ मैं,
मुझे क्या आज ही या कल झडू मैं
सुमन हूँ एक लघु उपहार हूँ मैं.
सन १९३९ से लेकर १९४५ तक दिनकरजी ने जो कुछ भी लिखा, उससे उनकी उग्र राष्ट्रीयता में कहीं भी कोई कमी नहीं दिखाई देती. फिर भी सरकार ने उन्हें जहाँ बिठा दिया था वह राष्ट्र विरोधी कामों की जगह थी . इससे निस्तार उनका तभी हो सकता था यदि वे नौकरी से इस्तीफा दे देते. पर गरीबी से भीत होकर वे उससे चिपके रहे और निंदा, कुत्सा तथा कलंक की बातें सुनकर भी उन्होंने नौकरी नहीं छोड़ी. परिणामतः उनके व्यक्तित्व में वह सुगंध आने से रह गयी जो विद्रोह की वाणी से नहीं, बगावत में व्यवहारिक भग लेने से आती है. चक्रवाल की भूमिका में उन्होंने लिखा है - राजनीति में आने से मैं बचना चाहता था और अंत तक मैं उससे बच भी गया. " बच तो वो गए, किन्तु इसकी उन्हें कीमत भी चुकानी पड़ी, बाद ना होने पर भी बदनामी से ना बचे . युद्ध प्रचार ऐसी ही काजल की कोठरी थी. युद्ध प्रचार विभाग ने चाहा कि प्रचार साहित्य पर दिनकरजी का नाम जाया करें. पर इस मामले में वे बेदाग निकल गए और अपना नाम उन्होंने कहीं भी जाने नहीं दिया. वे एक कलम से साहित्य और दूसरी कलम से साहित्य लिखते आये थे. तलवार की धार पर यह निरंतर यात्रा उनके व्यक्तित्व की खास चीज़ रही.
फिरंगिया लोकगीत के विख्यात रचयिता और हिंदी के कवि प्रिंसिपल मनोरंजनप्रसाद सिंह ने, जो दिनकर जी के ख़ास मित्रों में से रहे, एक दिन दिनकरजी से कहा - दिनकर तुम्हारी निंदा मुझसे सुनी नहीं जाती, और यहाँ रहने में भी अब कल्याण कहाँ रहा. लगता है जापान इस देश पर भी कब्ज़ा कर लेगा. तब क्या करोगे ?
दिनकर ने कहा - जापान आया, तो मैं अंत तक उसका विरोध करूँगा. क्या देश ने आन्दोलन इसलिए छेड़ा है कि वह फिर किसीका गुलाम हो जाए ?
पर युद्ध जब समाप्ति के पास आया, उन्होंने उस निन्दित पद से हट जाने के लिए छुट्टियों के बहाने दो-दो बार इस्तीफे दिए, लेकिन इस्तीफा मंजूर नहीं हुआ. सरकार ने कहा - यदि तुम बीमार हो तो आफिस मत आओ, घर पर ही थोड़ा काम करते रहो.
दिनकरजी घर पर ही रहने लगे और इसी क्रम मे उन्होंने 'कुरुक्षेत्र' काव्य पूरा किया.
उन्होंने अपनी तत्कालीन मनोदशा की व्याख्या करते हुए बताया - रूस के आने से युद्ध का रूप बदल गया, इस प्रचार का मुझपर असर तो पड़ा था. यदि मैं स्वयं ही युद्ध का समर्थक नहीं हो गया होता, तो अंग्रेज मेरा तबादला युद्ध प्रचार विभाग में नहीं करते. फिर मैं यह भी समझता था कि यही मौका है जब देश गुलामी का खूंटा तोड़ कर भाग सकता है. रूस का मैं परम प्रशंसक रहा था, जैसे प्रशंसक मेरे अन्य साथी-संगी भी थे. नौकरी में रहने के कारण मैं अपनी माप सरकारी नौकरों को मापने वाले गज से करता था. पर सत्यवादी तो खुली राजनीति में थे. उन्होंने जब आन्दोलन का साथ नहीं दिया, तब इस बात से मुझे चोट लगी. मेरी 'दिल्ली और मास्को' कविता को समझने की यही कुंजी है.
दिनकरजी की व्यथा द्विमनस्क व्यक्तित्ववाले मनुष्य की व्यथा थी और जो भी बुद्दिमान व्यक्ति सरकारी नौकरी में जाता था, वह इस फटे व्यक्तित्व का शिकार होने से कदाचित ही बच पाता था. दुख है कि दिनकर जी भी इसके अपवाद नहीं हो सके.
और सरकारी नौकरी के कारण यह हाल उस कवि का हुआ जो जनता का हृदयहार था. दिनकरजी ने 'नयी दिल्ली' नामक अपनी विस्फोट भरी कविता की रचना सन १९३३ में की थी, यद्यपि वह कविता १९३७ में प्रकाशित हुई, जब प्रान्तों में पहले-पहल कांग्रेसी सरकारें कायम हुई थीं. पर इन चार वर्षों के भीतर छिपे-छिपे ही वह कविता हिंदी प्रान्तों में सर्वत्र पहुँच चुकी थी. सन १९३३ के ही अंत में दिनकर जी ने 'हिमालय' और तांडव' दो कवितायें लिखी, जिनमे भूकंप का आह्वान था. और १९३४ की १५ जनवरी को बिहार में सचमुच ही भयानक भूकंप आ गया. यहाँ तक सुना गया कि हो न हो यह भूकंप दिनकरजी की कविताओं से आहूत है. दिनकरजी ने 'विपथगा' अपनी दूसरी क्रन्तिकारी कविता १९३८ में लिखी थी. उसमे एक पंक्ति आती है - अब की अगस्त्य की बारी है, पापों के पारावार ! सजग !
जब क्रांति १९४२ के अगस्त महीने में आ खड़ी हुई, दिनकरजी के एक मित्र जो पुलिस सुपरिटेंडेंट थे उनसे कहने आये - दिनकरजी क्या तुमने सपने में भी भविष्य देखा था ? 'विपथगा' में तात्पर्य अगस्त्य ऋषि से था, किन्तु उसका मेल अगस्त महीने से भी बैठ गया. मध्यकाल में ऐसी ही उक्तियों को लोग शायद कवि की भविष्यवाणी समझा करते थे.
क्रमशः
विपथगा
विपथगा कविता बहुत लम्बी है इसलिए इसका कुछ अंश ही प्रस्तुत कर पा रही हूँ. -
झन- झन झन- झन- झन झनन- झनन,
झन- झन झन- झन- झन झनन- झनन,
मेरी पायल झनकार रही तलवारों की झनकारों में
अपनी आगमनी बजा रही मैं आप क्रुद्ध हुंकारों में !
मैं अहंकार सी कड़क ठठा हन्ति विद्युत् की धारों में,
बन काल-हुताशन खेल रही पगली मैं फूट पहाड़ों में,
अंगडाई में भूचाल, सांस में लंका के उनचास पवन !
झन- झन झन- झन- झन झनन- झनन !
मेरे मस्तक के आतपत्र खर काल-सर्पिणी के शत फन,
मुझ चिर-कुमारियों के ललाट में नित्य नवीन रुधिर-चन्दन
आँजा करती हूँ चिता-धूम का दृग में अंध तिमिर-अंजन,
संहार-लापत का चीर पहन नाचा करती मैं छूम-छनन !
झन- झन झन- झन- झन झनन- झनन !
पायल की पहली झमक, सृष्टि में कोलाहल छा जाता है
पड़ते जिस ओर चरण मेरे, भूगोल उधर दब जाता है.
लहराती लपट दिशाओं में, खलभल खगोल अकुलाता है,
परकटे विहाग-सा निरवलम्ब गिर स्वर्ग नरक जल जाता है,
गिरते दहाड़ कर शैल-श्रृंग मैं जिधर फेरती हूँ चितवन !
झन- झन झन- झन- झन झनन- झनन !
रस्सों से कसे जबान पाप-प्रतिकार न जब कर पाते हैं,
बहनों की लुटती लाज देखकर काँप-कांप रह जाते हैं,
शस्त्रों के भय से जब निरस्त्र आंसू भी नहीं बहाते हैं,
पी अपमानों के गरल-घूँट शासित जब ओठ चबाते हैं,
जिस दिन रह जाता क्रोध मौन, मेरा वह भीषण जन्म लगन
झन- झन झन- झन- झन झनन- झनन!
पौरुष को बेडी डाल पाप का अभय रास जब होता है,
ले जगदीश्वर का नाम-खडग कोई दिल्लीश्वर धोता है,
धन के विलास का बोझ दुखी-दुर्बल दरिद्र जब ढोता है,
दुनियां को भूखों मार भूप जब सुखी महल में सोता है,
सहती कब कुछ मन मार प्रजा,कसमस करता मेरा यौवन
झन- झन झन- झन- झन झनन- झनन !
श्वानों को मिलते दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं,
माँ की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं,
युवती के लज्जा वासन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं,
मालिक जब तेल-फुलेलों पर पानी सा द्रव्य बहाते हैं,
पापी महलों का अहंकार देता मुझको तब आमंत्रण !
झन- झन झन- झन- झन झनन- झनन !
डरपोक हुकूमत जुल्मों से लोहा जब नहीं बजाती है,
हिम्मतवाले कुछ कहते हैं, तब जीभ तराशी जाती है,
उलटी चालें ये देख देश में हैरत-सी छा जाती है,
भट्ठी की ओदी आंच छिपी तब और अधिक धुन्धुआती है,
सहसा चिंघार खड़ी होती दुर्गा मैं करने दस्यु-दलन !
झन- झन झन- झन- झन झनन- झनन !
चढ़कर जूनून-सी चलती हूँ, मृत्युंजय वीर कुमारों पर,
आतंक फ़ैल जाता कानूनी पार्लमेंट, सरकारों पर,
'नीरों' के जाते प्राण सूख मेरे कठोर हुंकारों पर,
कर अट्टहास इठलाती हूँ जारों के हाहाकारों पर,
झंझा सी पकड़ झकोर हिला देती दम्भी के सिंहासन !
झन- झन झन- झन- झन झनन- झनन !
(हुंकार )
दिनकर की व्यवहार कुशला दृष्टि आज भी अनुकरणीय कही जायेगी वरना नौकरी करना /नकारना तो हर दम एक ज़लालत का ही काम रहा है हर युग में अलबत्ता एन्ग्युलारितीज़ बदल जाती हैं .दिनकर से जुड़े रहने का मौक़ा मिल रहा है आभारी हूँ .
जवाब देंहटाएंदिनकर की व्यवहार कुशला दृष्टि आज भी अनुकरणीय कही जायेगी वरना नौकरी करना /नकारना तो हर दम एक ज़लालत का ही काम रहा है हर युग में अलबत्ता एन्ग्युलारितीज़ बदल जाती हैं .दिनकर से जुड़े रहने का मौक़ा मिल रहा है आभारी हूँ .
जवाब देंहटाएंAapke lekhanka aanand utha rahe hain!
जवाब देंहटाएंदिनकर जी पर आपकी प्रस्तुति अच्छी लगी । इस पोस्ट पर प्रस्तुत किए गए हर शब्द मन में अंकित हो जाते हैं । मेरे नए पोस्ट पर आपके प्रतिक्रियाओं की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंदिनकर जी को पढ़ना अच्छा लग रहा है ... आभार
जवाब देंहटाएंडरपोक हुकूमत जुल्मों से लोहा जब नहीं बजाती है,
जवाब देंहटाएंहिम्मतवाले कुछ कहते हैं, तब जीभ तराशी जाती है,
उलटी चालें ये देख देश में हैरत-सी छा जाती है,
भट्ठी की ओदी आंच छिपी तब और अधिक धुन्धुआती है,
सहसा चिंघार खड़ी होती दुर्गा मैं करने दस्यु-दलन !
झन- झन झन- झन- झन झनन- झनन !
आज भी क्या देश में ऐसी ही स्थिति नहीं बन रही है, आपकी यह श्रंखला इसलिए अति सार्थक नजर आती है, आभार!
हुंकार का यह गीत मुझे बहुत पसंद है। इअमें जो ओज है वह काफ़ी प्रेरित करता है।
जवाब देंहटाएंवेदना को भी ओज के साथ गाने वाले अनन्य गायक महाकवि दिनकर मैं बहुत बड़ा प्रशन्सक हूँ ।
जवाब देंहटाएंआपने दिनकर जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के भिन्न भिन्न पहलुओं को प्रस्तुत करने वाली ये श्रृंखला प्रारम्भ की है ,उसके लिये मैं आपका आभारी हूँ मैम
सादर
Nice post thanks for share This valuble content
जवाब देंहटाएं