प्रस्तुत भाग में जब युधिष्ठिर युद्ध के पश्चात विलाप करते हैं और उनके मन में वैराग्य का भाव जन्म लेता है तब शर शैया पर लेते भीष्म उन्हें नीति की बात बता रहे हैं ---
द्वापर समाप्त हो रहा है धर्मराज , देखो ,
लहर समेटने लगा है एक पारावार ।
जग से विदा हो जा रहा है काल - खंड एक
साथ लिए अपनी समृद्धि की चिता का क्षार ।
संयुग की धूलि में समाधि युग की ही बनी
बह रही जीवन की आज भी अजस्र धार ।
गत ही अचेत हो गिरा है मृत्यु गोद बीच ,
निकट मनुष्य के अनागत रहा पुकार ।
मृति के अधूरे , स्थूल भाग ही मिटे हैं यहाँ
नर का जला है नहीं भाग्य इस रण में ।
शोणित में डूबा है मनुष्य , मनुजत्त्व नहीं ,
छिपता फिरा है देह छोड़ वह मन में ।
आशा है मनुष्य की मनुष्य में , न ढूंढो उसे
धर्मराज , मानव का लोक छोड़ वन में ,
आशा मनुजत्त्व की विजेता के विलाप में है
आशा है मनुष्य की तुम्हारे अश्रु कण में ।
रण में प्रवृत्त राग - प्रेषित मनुष्य होता
रहती विरक्त किन्तु , मानव की मति है ।
मन से कराहता मनुष्य , पर , ध्वंस - बीच
तन में नियुक्त उसे करती नियति है ।
प्रतिशोध से हो दृप्त वासना हँसाती उसे ,
मन को कुरेदती मनुष्यता की क्षति है ।
वासना - विराग , दो कगारों में पछाड़ खाती
जा रही मनुष्यता बनाती हुयी गति है ।
ऊंचा उठ देखो , तो किरीट , राज , धन , तप ,
जप , याग , योग से मनुष्यता महान है ।
धर्म सिद्ध रूप नहीं भेद - भिन्नता का यहाँ
कोई भी मनुष्य किसी अन्य के समान है ।
वह भी मनुष्य , है न धन और बल जिसे ,
मानव ही वह जो धनी या बलवान है ।
मिला जो निसर्ग - सिद्ध जीवन मनुष्य को है ,
उसमें न दीखता कहीं भी व्यवधान है ।
अब तक किन्तु , नहीं मानव है देख सका
शृंग चढ़ जीवन की समता - अमरता ।
प्रत्यय मनुष्य का मनुष्य में न दृढ़ अभी ,
एक दूसरे से अभी मानव है डरता ।
और है रहा सदैव शंकित मनुष्य यह
एक दूसरे में द्रोह - द्वेष - विष भरता ।
किन्तु , अब तक है मनुष्य बढ़ता ही गया
एक दूसरे से सदा लड़ता - झगड़ता ।
कोटी नर वीर , मुनि मानव के जीवन का
रहे खोजते ही शिव रूप आयु - भर हैं ।
खोजते इसे ही सिंधु मथित हुआ है और
छोड़ गए व्योम में अनेक ज्ञान - शर हैं ।
खोजते इसे ही पाप - पंक में मनुष्य गिरे ,
खोजते इसे ही बलिदान हुये नर हैं ।
खोजते इसे ही मानवों ने है विराग लिया
खोजते इसे ही किए ध्वंसक समर हैं ।
खोजना इसे हो , तो जलाओ शुभ्र ज्ञान दीप ,
आगे बढ़ो वीर , कुरुक्षेत्र के शमशान से ।
राग में विरागी , राज दंड - धर योगी बनो ,
नर को दिखाओ पंथ त्याग बलिदान से ।
दलित मनुष्य में मनुष्यता के भाव भरो ,
दर्प की दुराग्नि करो दूर बलवान से ।
हिम - शीट भावना में आग अनुभूति की दो ,
छीन लो हलाहल उदग्र अभिमान से ।
रण रोकना है , तो उखाड़ विषदन्त फेंको ,
वृक - व्याघ्र - भीति से महि को मुक्त कर दो ।
अथवा अजा के छागलों को भी बनाओ व्याघ्र
दांतों में कराल काल कूट - विष भर दो ।
वट की विशालता के नीचे जो अनेक वृक्ष
ठिठुर रहे हैं , उन्हें फैलने का वर दो ।
रस सोखता है जो मही का भीमकाय वृक्ष ,
उसकी शिराएँ तोड़ो , डालियाँ कतर दो ।
भीष्म ने कहा था- राजधर्म में सब धर्मों का समावेश आवश्यक है । यदि राजधर्म के पालन में किसी भी प्रकार की विकृति हुई तो सब प्रकार के धर्म, आश्रम, व्यवस्थायें अस्तित्व विहीन विनाश हो जायेंगी। राजधर्म को अक्षुण्ण बनाए रखने पर ही अन्य संपूर्ण व्यवस्थाओं को सुरक्षित किया जा सकता है। आपके द्वारा प्रस्तुत यह भाग अच्छा लगा । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएं्बहुत रोचकता के साथ प्रसंग चल रहा है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर.
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ठ प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार 29/5/12 को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी |
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर, युद्ध पश्चात् मन में वैराग्य भाव आये तो मानवता भी नई उर्जा के साथ जन्म लेती
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