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काव्य प्रयोजन (भाग-3)पाश्चात्य विद्वानों के विचार |
पिछले दो पोस्टों मे हमने काव्य-सृजन का उद्देश्य और संस्कृत के आचार्यों के विचार की चर्चा की थी। संस्कृत के आचार्यों ने कहा था कि लोकमंगल और आनंद, यही कविता का “सकल प्रयोजन मौलिभूत” है। आइए अब इसी विषय पर पाश्चात्य विद्वानों ने क्या कहा उसकी चर्चा करें। पश्चिम के विद्वानों ने भी समय-समय पर काव्य प्रयोजन पर विचार किया। उन्होंने मनोविज्ञान और मनोविश्लेषण शास्त्र की सहायता से कवि के मन की सृजन प्रक्रिया को समझने का प्रयास किया। इस आधार पर जो दृष्टिकोण सामने आए वो दो प्रकार के थे। एक के अनुसार कला कला के लिए है, तो दूसरे के अनुसार कला जीवन के लिए है। यूनानी दार्शनिक प्लेटो का काल ई.पू. 427-347 का है। यह समय एथेन्स के पतन का था। इस समय आध्यात्मिक और नैतिक ह्रास में काफ़ी बढोत्तरी हुई। अतः उनकी चिन्ता थी कि कैसे आदर्श राज्य की स्थापना हो और चरित्र निर्माण द्वारा नैतिक मूल्यों की रक्षा कैसे हो? उन्होंने भी लोकमंगल, अर्थात् सत्य और शिव, के आधार पर काव्य के प्रयोजन को देखा। प्लेटो का मानना था कि काव्य का उद्देश्य मानव-प्रकृति में जो महान और शुभ है, नैतिक और न्यायपरायण है, उसका उसका उद्घाटन होना चाहिए। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि प्लेटो ने कला के आनंद सिद्धांत से आगे बढकर लोकमंगल सिद्धांत को महत्वपूर्ण बतया। अरस्तु (384 ईपू – 322 ईपू) पश्चिमी दर्शनशास्त्र के सबसे महान दार्शनिकों में एक थे। वे भी यूनानी दार्शनिक थे। वे प्लेटो के शिष्य थे। उन्होंने भी प्लेटो के विचार को स्वीकारा और अपने “काव्यशास्त्र” में काव्य के प्रयोजन लोकमंगल, अर्थात् सत्य और शिव का प्रतिपादन किया। उनके अनुसार काव्य का प्रयोजन शिक्षा या ज्ञानार्जन और आनंद है। उनका कहना था कि ज्ञान के अर्जन से अत्यंत प्रबल आनंद प्राप्त होता है। अरस्तु के अनुसार इस काव्यानंद का स्वरूप आध्यात्मिक न होकर भौतिक आनंद है। क्योंकि यह आनंद किसी देखी हुई वस्तु को पहचानने का आनंद है। यह वस्तु को देखने के आनंद से अलग है। यह अनुकरणजन्य आनंद है। प्रसिद्ध अंग्रेज़ आलोचक ने इसे “कल्पना का आनंद” कहा। अरस्तु का कहना था कि काव्य में कलात्मक प्रभाव नैतिक भावना का पोषक हो। उनका यह मानना था कि व्यापक अर्थ में काव्य का प्रयोजन है विरेचन अर्थात् भाव-परिष्कार, भाव-उन्नयन। अरस्तु का यह विरेचन सिद्धांत आज भी मान्य है। पाश्चात्य विद्वानों मे जिन्होंने काव्य प्रयोजन पर चर्चा की एक और महत्वपूर्ण नाम है लांजाइनस का। इन्होंने अपने ग्रंथ ‘परिइप्सुस’ में कहा है कि काव्य वाणी का ऐसा वैशिष्ट्य है, चरमोत्कर्ष है, जिससे महान कवियों को जीवन में प्रतिष्ठा और यश मिलता है। कारण यह है कि उसका सृजन, पाठक को मात्र जागृत करने के लिए नहीं होता, बल्कि उसके मन में अह्लाद उत्पन्न करने में सक्षम होता है। उनका मानना था कि महान सृजन महान आत्मा की प्रतिध्वनि है। लांजाइनस ने काव्य में उदात्त-तत्व की बात की थी। उदात्त की शक्ति से पाठक कृति-प्रभाव को ‘आत्मातिक्रमण’ के रूप में ग्रहण करता है। इसमें भी भाव-परिष्कार, भाव-उन्नयन या विरेचन सिद्धांत शामिल है। इस प्रकार हम देखते हैं कि पाश्चात्य विचारकों ने लोकमंगलवादी (शिक्षा और ज्ञान) काव्यशास्त्र का समर्थन किया। महान काव्य वही है जो सभी को सब कालों मे आनंद प्रदान करे और समय जिसे पुराना न कर सके। इस प्रकार ‘आनंद’ या ‘आत्मातिक्रमण’ ही साहित्य का मुख्य प्रयोजन है। |
मंगलवार, 31 अगस्त 2010
काव्य प्रयोजन (भाग-3) पाश्चात्य विद्वानों के विचार
सोमवार, 30 अगस्त 2010
काव्य प्रयोजन (भाग-2) संस्कृत के आचार्यों के विचार
काव्य प्रयोजन (भाग-2)संस्कृत के आचार्यों के विचार |
पिछले पोस्ट काव्य-सृजन का उद्देश्य में हमने यह चर्चा की थी कि सृजन कर्म आनंद का सृजन करे, ऐसा आनंद जो लोकमंगलकारी हो। आनंद और लोकमंगल के अंदर ही बाक़ी सभी प्रयोजन शामिल हैं। आइए अब इसी विषय पर संस्कृत के आचार्यों ने क्या कहा उसकी चर्चा करें। संस्कृत के रचनाकार अपने सृजन में मंगलाचरण लिखते थे। अपने सृजन के उद्देश्य को वे उसमें ही स्पष्ट कर देते थे। प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन से पता चलता है कि आचार्यों ने जीवन के सभी पक्षों को काव्य सृजन का उद्देश्य माना है। उन्होंने जीवन में अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष, जिसे पुरुषार्थ चतुष्टय भी कहा जाता है, के सिद्धि की कामना की है। आज के सृजन में मोक्ष, निर्वाण, समाधि, आदि भले ही उतना स्थान न पाता हो, किन्तु संस्कृत के आचार्यों ने अपने देश काल के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए यह कहा कि काव्य अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष का साधन है। आद्याचार्य भरतमुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ में कहा है, इस मत के अलावे काव्य में विलक्षणता, प्रीति एवं कीर्ति को भी स्थान मिलना चाहिए ऐसा भामह का ‘काव्यालंकार’ में कहना है। रुद्रट ने पुरुषार्थ चतुष्टय के साथ साथ काव्य में ‘आह्लाद’ को प्रधानता दी। कुन्तक ने भी ‘वक्रोक्ति जीवितम’ में कहा “काव्यबन्धोsभिजातानां हृदयाह्लादकारकः”। वामन तथा भोज के मतानुसार ‘यश’ और ‘आनंद’ ही काव्य का प्रयोजन होना चाहिए। आचार्य विश्वनाथ ने भी पुरुषार्थ चतुष्टय को ही काव्य का प्रयोजन माना है। आचार्य मम्मट ने भरत से लेकर कुन्तक तक सभी के विचारों को शामिल करते हुए ‘काव्यप्रकाश’ में कहा, मम्मट की इस सूचि में सबसे पहले आता है ‘यश’। उनका मानना था कि कविता का प्रयोजन कवि को यश दिलाना है। कालीदास से लेकर आज के कवियों तक देखें, तो हम पाते हैं कि सब “यशः प्रार्थी” होने की अभिलाषा रखते हैं। दूसरा प्रयोजन मम्मट ने ‘धन की प्राप्ति’ माना है। उस ज़माने के कवियों के आश्रयदाता, राजाओं के रूप में भी, हुआ करते थे। वे इनसे धन पाते थे। कई किस्से हमने सुन रखे है, अशर्फ़ी आदि देने-पाने के। तीसरा प्रयोजन, मम्मट के अनुसार ‘व्यवहार ज्ञान’ है। जीवन के व्यवहार ज्ञान से तुलसी, कबीर, रहीम, निराला, आदि का साहित्य भरा पड़ा है। सृजन हमें जीवन का व्यवहार ज्ञान देता है। मम्मट ने चौथे प्रयोजन के रूप में “शिवेतरक्षतये” को माना है। अर्थात् अमंगल का नाश होना। हम हनुमान चालीसा से लेकर जितने भी पाठ करते हैं, इसी उद्देश्य से ही तो करते हैं। पाचवां प्रयोजन मम्मट के अनुसार है, “सद्यः परनिर्वृतये”। अर्थात् दुख का नाश और आनंद की प्राप्ति। रस या आनंद प्राप्ति तो काव्य का काव्य का सर्वस्व काफ़ी बाद के दिनों तक माना जाता रहा। जयशंकर प्रसाद, रामचन्द्र शुक्ल और डॉ. नगेन्द्र भी रस को ही काव्य का सर्वस्व माना। ये तो जब नयी कविता की शुरुआत हुई तो रस सिद्धांत का खण्डन किया गया। और छठा उद्देश्य मम्मट के अनुसार “कान्तासम्मित उपदेश” है। अर्थात् कविता मीठा-मीठा बोलने वाली स्त्री की तरह लोकहितकारी उपदेश देने वाली होनी चाहिए। गोस्वामी तुलसी दास ने रावण की पत्नी मन्दोदरी का ज़िक्र करते हुए कई बार कान्ता शब्द का प्रयोग किया है। कान्ता वह स्त्री होती है जो पति का हित चाहने वाली होती है। मन्दोदरी रावण को बार-बार समझाती रही कि दूसरे की पत्नी और सम्पत्ति का हरण करने वाले का सर्वनाश हो जाता है, इसलिए सीता को लौटा दिया जाना चाहिए।
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रविवार, 29 अगस्त 2010
कहानी ऐसे बनी-१ :: नयन गए कैलाश !
शनिवार, 28 अगस्त 2010
विश्वास का उजास
रात कुछ गहरा सी गई है शहर भी सारा सो सा रहा है अचानक आता है - कोई मंजर आंखों के सामने ऐसा लगता है कि - कहीं कुछ हो तो रहा है। सडकों के सन्नाटे में ये हादसे क्यूँ कर हो रहे हैं ? प्रगति के साथ - साथ ये इंसानियत के जनाजे क्यूँ निकल रहे हैं ? मनुजता को ही त्याग कर तुम क्या कभी मनुज भी रह पाओगे? जाना है कौन सी राह पर ? क्या मंजिल को भी ढूंढ पाओगे? भटक गए हैं जो कदम हर राह पर उन्हें तो तुमको ही ख़ुद रोकना पड़ेगा रूको और सोचो ज़रा देर - सही मार्ग तुमको ही चुनना पड़ेगा। कोई नही है यहाँ उंगली थामने वाला क्यों कि हाथ तो तुम ख़ुद के काट चुके हो ठहरो ! और देखो इस चौराहे से सही राह क्या तुम पहचान चुके हो ? गर राह सही होगी तो सच में सोया शहर भी एक दिन जाग जायेगा गहरी हो रात चाहे जितनी भी मन में विश्वास का उजास फ़ैल पायेगा. ( संगीता स्वरुप ) |
शुक्रवार, 27 अगस्त 2010
अनपढ़ हूँ, साहब !
काव्य-सृजन का उद्देश्य
काव्य-सृजन का उद्देश्य |
मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है,
कई बार मेरे मन में यह प्रश्न आता है, आपके भी आता होगा, आखिर हम कविता लिखते क्यों हैं? कविता ही क्यों? काव्य प्रयोजन की क्या आवश्यकता है? इसकी सार्थकता क्या है? साहित्य का मूल प्रयोजन क्या है? इसका उद्देश्य क्या है? कहीं न कहीं इसका उद्देश्य मानव संवेदना का विस्तार है। ताकि एक अच्छे संस्कार का विस्तार हो सके, उसका परिष्कार हो सके। इस तरह से हम कह सकते हैं कि सृजन का उद्देश्य एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है। एक ऐसी प्रक्रिया जो हमारी भावनात्मक संवेदना को परिष्कार कर, निखार लाए। इस तरह से सामाजिकता में भी निखार आती है। साहित्य हमें देश-काल की समस्याओं के प्रति जागरूक बनाता है। समस्या के विभिन्न पहलुओं से, उसकी चिंताओं हमें अवगत कराता है ताकि हम आने वाली हर चुनौतिओं का डट कर मुक़ाबला कर सकें। हमारे चारो ओर जो द्वन्द्व हैं, तनाव हैं, उनका लेखा-जोखा प्रस्तुत कर हमें संघर्षों का सामना करने हेतु सक्षम बनाता है। सृजन का उद्देश्य हमारी चेतना को विकसित करना है। हमारी चेतना एक सीमा में बंधी होती है। सृजन का उद्देश्य हमारी चेतना के सीमांतों का विस्तार करना होना चाहिए। हमारी इंसानियत, मानवता या मानवीयता में वृद्धि करे तभी सृजन का उद्देश्य पूरा समझा जाना चाहिए। सृजन कर्म आनंद का सृजन करे, ऐसा आनंद जो लोकमंगलकारी हो। आनंद और लोकमंगल के अंदर ही बाक़ी सभी प्रयोजन शामिल हैं। |
गुरुवार, 26 अगस्त 2010
संप्रेषण की समस्या
कभी-कभी ऐसा लगता है कि कविता का युग समाप्त हो गया है। इसका सबसे बड़ा कारण है बौद्धिक सन्निपात से ग्रसित कविताओं की बहुतायात। यह बात तय है कि जहां कविताएँ बौद्धिक होगी, वहां वे शिथिल होगी। कविता की निर्मिति इसी जीव जगत से होती है। यदि कविता कुछ ही परिष्कृत बौद्धिक लोगों को प्रभावित या आकृष्ट करती है तो कही-न-कही कविता कमजोर अवश्य है। कविता की व्याप्ति इतनी बड़ी हो कि वे जन सामान्य को समेट सकें। आज कविता और पाठक के बीच दूरी बढ़ गई है। संवादहीनता के इस माहौल में संप्रेषण की समस्या पर विचार करने के लिए हमने डॉ० रमेश मोहन झा से निवेदन किया था। उन्होंने हमारे निवेदन पर यह आलेख दिया है। उसे हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।
संप्रेषण की समस्या
काव्य की प्रारम्भिक अवस्था से ही कवियों के समक्ष अनुभूत सत्य को मार्मिक और प्रभावशाली ढंग से संप्रेषित करने की समस्या बड़ी प्रमुख रही है। प्रत्येक युग का कवि कुछ विशिष्ट अनुभूतियाँ उपलब्ध कर उन्हें संपूर्णता में व्यक्त कर अपनी कला को सफल मानता है। काव्य की असफलता का कारण इन्हीं दो पक्षों – अनुभूति और अभिव्यक्ति में से किसी किसी एक का त्रुटिपूर्ण होना है।
यदि अनुभूति अपरिपक्व है तो उसके महत्व का प्रश्न ही नहीं उठता। श्रेष्ठ साहित्य के लिए अनुभूति की परिपक्वता का ही महत्व है उसके बिना न तो वस्तु का महत्व होगा और न शिल्प-साधना का प्रश्न सामने आएगा। अनुभूति की परिपक्वता पहली शर्त है। इसके बाद ही शिल्प का प्रश्न आता है, अतः शिल्प की पूर्णता श्रेष्ठ काव्य की दूसरी अनिवार्य शर्त्त है।
अनुभूति का उल्लेख होते ही उसमें बिना सोचे-समझे एक विशेषण “तीव्र” जोड़ दिया जाता है। लेकिन अनुभूति की तीव्रता का आशय क्या है, इसे कम लोग जानते हैं। अनुभूति की तीव्रता एक्साइटमेंट नहीं है। अज्ञेय ने ठीक ही कहा है –
भावनाएं नहीं है सोता
भावनाएँ खाद है केवल
जरा इनको दबा रखो
जरा सा और पकने दो
तले और तपने दो
अँधेरी तहों की पुट में
पिघलने और पकने दो
रिसने और रचने दो
कि उनका सार बनकर
चेतना की धरा को
कुछ उर्वर कर दे
- “हरी घास पर क्षण भर”
काव्य के लिए अनुभूतियों के शोध का बड़ा महत्व है। इसी से शैली में प्रभावोत्पादकता आती है। आवेश में सृजन संभव नहीं है। सृजन की स्थिति आवेश की स्थिति से नितांत भिन्न है।
सृजन के लिए धैर्य की नितांत आवश्यकता है। हड़बड़ाहट में सबकुछ कहने की चेष्टा में काव्य सूचना का जखीरा बन जाता है और काव्यात्मकता गुम हो जाती है। साथ ही धैर्य का अभाव और आवेश की अधिकता के कारण उनका अनुभूत सत्य कलात्मक ढंग से संप्रेषित होने से रह जाता है, भाषा भी फीलपाँवो वाली हो जाती है। अतः अनुभूत सत्य को संप्रेषित करने के लिए संयम अनिवार्य है। एक-एक शब्द तौल-मोलकर रखना है। अतः कवियों को चाहिए कि वे शब्दों का संधान, शोध और परिमार्जन करते रहें। इसके बिना वे श्रेष्ठ रचना रच नहीं सकते। उर्दू के शायर एक एक शब्द गढ़ने में पूरी ताकत या यों कहें कि भावों को सकेन्द्रित कर देते हैं तब जाकर एक शे’र कहते हैं, और उसकी गहराई देखकर लोग दाँतों तले उंगली दबा लेते हैं। उनके यहां इसे वज़न कहते हैं। हमारे यहां भी यह वज़न वाली शैली अपनानी चाहिए तभी कविता में जान आ पाएगी। अज्ञेय इस विषय में कहते हैं –
किसी को
शब्द हैं कंकड़
कूट लो पीस लो
छान लो डिबिया में डाल दो
किसी को
शब्द है सीपियाँ
लाखों का उलट फेर
कभी एक मोती मिल जाएगा।
-- “इन्द्रधनुष रौंदे हुए ये”
शब्दों के साथ-साथ बिम्बों का भी ज़िक्र जरूरी है। आज कविता में विम्बों की जो प्रधानता है उसका संबंध भी अनुभूत सत्य के संप्रेषण से है। बिम्बों की योजना अभिव्यक्ति को समर्थ और सार्थक बनाने का साधन या निमित्त है। यदि बिम्बों में सजीवता है तो उसका कारण अनुभूति की सत्यता और ईमानदारी है।
अभिव्यक्ति की प्रौढ़ता के साथ-साथ अभिव्यक्ति की “एकुरेसी” कविता को पुष्ट और पूर्ण बनाती है। “एकुरेसी” को केंद्र में रखते हुए कविता के शब्दकोश में अत्यधिक व्याप्ति आ गई है। लोक से लेकर अनेक शास्त्रों की परिभाषिक शब्दावली को आयात किया गया है।
अब इसके प्रयोग की जिम्मेदारी कवियों पर है। इसे सहज ढंग से गूंथने से भाषा में स्पष्टता, बेधकता, अचूकता और सार्थकता को गुंफित किया जा सकता है। और वही काव्य श्रेष्ठ माना जाएगा जिसमें शब्द-शब्द धुला पूछा हो, उसमें शक्ति और सौन्दर्य दोनों का सम्मिश्रण हो।
बुधवार, 25 अगस्त 2010
कविता के नए सोपान (भाग–7) - निष्कर्ष
निष्कर्षकविता के नए सोपान (भाग–7) |
कविता के नए सोपान (भाग-1)कविता के नए सोपान (भाग-2) :: “कविता जटिल संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है।”कविता के नए सोपान (भाग-3) - कविता सिर्फ़ हृदय की मुक्तावस्था नहीं, बल्कि बुद्धि की मुक्तावस्था है।कविता के नए सोपान (भाग-4) आज का कवि परिवेश के साथ द्वंद्वमय स्थिति में है।कविता के नए सोपान (भाग-5) – कविता का निर्वैयक्तिकता सिद्धांतकविता के नए सोपान (भाग-6) काव्य चिंतन में नई समीक्षा |
आज की कविता का आग्रह कठिन काव्यशास्त्र के प्रति नहीं रहा है। आज की कविता की खासियत यही है कि यह अत्यंत मुखर होकर पूरे साहस से अपने पाठकों, अपने श्रोताओं के समक्ष आ रही है। अधिकांश कविता आज एक रस है, तब भी आज भी कविता के संवेदन को, संघर्ष को, विचार को हम स्पष्ट महसूस कर सकते हैं। पिछले छह भागों में प्रस्तुत विचारों पर गौर करें तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि पुराने प्रतिमान आज उतने कारगर नहीं रहे, जितने कि पहले थे। यहां तक कि रस अब कविता के लिए आवश्यक नहीं रह गया है। हालांकि छायावाद के आलोचक डॉ नगेन्द्र ने नए काव्य चिंतन के इस दौर में भी “कविता क्या है?” शीर्षक आलेख में रस सिद्धांत को काव्य का शाश्वत प्रतिमान माना है, किन्तु अज्ञेय ने इस सिद्धांत का खंडन किया। अज्ञेय का कहना था कि रस का आधार था अद्वंद्व और चित्त की समाहिति (शांति), जबकि नई कविता का आधार है तनाव, द्वंद्व। अज्ञेय का मानना था, “जीवन.... सपनों और आकारों का एक रंगीन और विस्मय भरा पुंज है। हम चाहें तो उस रूप से ही उलझे रह सकते हैं। पर रूप का आकर्षण भी वास्तव में जीवन के प्रति हमारे आकर्षण का प्रतिबिंब है। जीवन को सीधे न देखकर हम एक काँच में से देखते हैं। जब ऐसा करते हैं तो हम उन रूपों में ही अटक जाते हैं, जिनके द्वारा जीवन अभिव्यक्ति पाता है”।(अत्मनेपद) इस प्रकार यह तो स्पष्ट है कि नई कविता के संदर्भ में सिर्फ अनुभूति ही पर्याप्त नहीं है। बल्कि यह तो भ्रम पैदा करती है। छायावादी कविता की अनुभूति और नई कविता की अनुभूति में बदलाव है। आज हम निर्वैयक्तिक अनुभूति की बात करते हैं। (यहां देखें) निरंतर प्रयोग में आते रहने से शब्द में बासीपन आ जाता है। इसलिए आज कवि के सामने शब्द में नया अर्थ भरने की चुनौती है। तो नया कवि इस चुनौती को स्वीकार कर शब्दों में नए अर्थ का निरूपण करता है। हम पहले भी इस बात की चर्चा कर आए हैं कि नई कविता “अभिव्यक्ति” नहीं है, निर्मित है। (यहां देखें) अगर विजयदेव नारायण साही के शब्दों में कहें तो नई कविता तरंग के रूप को स्ट्रक्चर में बदल देती है जेसे हीरे का क्रिस्टल हो। कविता निर्मित इसलिए है कि आज हमको कलाकृति कि संरचना पर ध्यान देना पड़ता है। आज कविता को परखने का प्रमाणिक प्रतिमान काव्य भाषा है। क्योंकि काव्य-भाषा ही वह चीज है जिसमें काव्यार्थ की, नए भाव-बोध की निष्पत्ति होती है। इस सारी चर्चा के निष्कर्ष के तौर पर हम कह सकते हैं कि जहां एक ओर आज कविता का ऊपरी कलेवर बदला है, साथ ही नए प्रतीकों या बिम्बों या शब्दावली की खोज हुई है, वहीं दूसरी ओर गहरे स्तर पर काव्यानुभूति की बनावट में ही फर्क आ गया है। इसका कारण है हमारे रागात्य संबंधें की प्रणालियाँ बदली है। इन रागात्मक प्रणालियों के बदलाव से हमारा बाह्य और आंतरिक वास्तविकता से गहरा रिश्ता निर्धारित होता है। जीवन आज जटिल हुआ है। इस काव्यानुभूति का कवि-कर्म पर गहरा असर पड़ा है। आज कविता हमें रिझाती नहीं, हमारा चैन तोड़ देती है। शब्द और अर्थ का तनाव स्पष्ट दीखता है। सृजन में नए नए अर्थ सौंदर्य की तलाश जारी है। वस्तु और रूप के बीच एक द्वंद्वात्मक रिश्ता है। |
मंगलवार, 24 अगस्त 2010
कविता के नए सोपान (भाग-6) काव्य चिंतन में नई समीक्षा
काव्य चिंतन में नई समीक्षाकविता के नए सोपान (भाग-6) |
पाश्चात्य काव्य चिंतन में नई समीक्षा (न्यू क्रिटिसिज़्म) स्कूल के विद्वानों ने काव्य लक्षण पर बहस करते हुए यह निष्कर्ष दिया कि “कविता एक शाब्दिक निर्मित है या वर्बल आईकॉन है(Verbal Icon) ” अर्थात् कविता शब्द है और अंत में भी यही बात बचती है कि कविता शब्द है। (यहां देखें) टी.एस.एलियट (यहां देखें) और अई.ए. रिचर्डस (यहां देखें ) इसी न्यू क्रिटिसिज्म स्कूल से हैं। नई समीक्षा के विचारकों ने काव्य-भाषा को आधार बनाकर विचार किया। अर्थात इनकी समीक्षा में “कवि” केंद्र में नहीं है। इनके चिंतन का केंद्र “कविता” है। इस स्कूल के विचारकों द्वारा कविता का विश्लेषण काव्य-भाषा के आधार पर हुआ। उसकी कलाकृति की प्रक्रिया पर चिंतन किया गया। उन्होंने काव्य-भाषा को आधार बनाकर चिंतन किया। इस स्कूल में विचारकों का कहना था, “कविता भाषा की संभावित क्षमताओं का संधान है।” इस स्कूल का मानना था कि कविता के अर्थ पता लगाने की मूल समस्या भाषा की समस्या है। हिंदी आलोचना में न्यू क्रिटिसिज्म के पुरोधा अज्ञेय ने भी पाश्चात्य विद्धानों द्वारा दिए गए परिभाषा को बार बार दुहराया कि काव्य शब्द है। उन्होंने कहा कि शब्द का संस्कार ही कृतिकार को कृती बनाता है। अज्ञेय द्वारा कही गई बात का अन्य विद्वानों ने भी समर्थन दिया। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने “भाषा और संवेदना”, “अज्ञेय : आधुनिक रचना की समस्या” में भी अज्ञेय द्वारा कही गई बात को समर्थन देते हुए कहा कि काव्य शब्द है और कविता को काव्य भाषा के आधार पर ही परखा जाना चाहिए। |
सोमवार, 23 अगस्त 2010
कविता के नए सोपान (भाग-5) – कविता का निर्वैयक्तिकता सिद्धांत
कविता का निर्वैयक्तिकता सिद्धांतकविता के नए सोपान (भाग-5) |
छायावादियों ने कविता की परिभाषा करते हुए “स्वानुभूति” पर बल दिया था। (यहां पढें) । वही दूसरी ओर नयी कविता के कवि-आलोचकों ने कहा कि परिवेश में बदलाव के कारण “अनुभूतिगत भिन्नता” है। इसे थोड़ा और स्पष्ट करने से पहले, कवि, आलोचक और चिंतक विजयदेवनारायण साही की पंक्तिया उद्धृत करें,
अनुभूति की बनावट का फ़र्क़ ही छायावादी “स्वानुभूति” और नयी कविता की “अनुभूतिगत भिन्नता” के अन्तर को स्पष्ट करता है। कविता के नये प्रतिमान में इसी बात को बताते हुए प्रो. नामवर सिंह ने कहा है,
नयी कविताओं में कवि अनुभूति से अधिक अनुभूति के बदले हुए संदर्भ पर अधिक बल देते हैं। इसीलिए हम पाते हैं कि नयी कविताओं में कवि अनुभूति से अधिक अनुभूति के बदले हुए संदर्भ पर अधिक बल देते हैं। और यह भी स्पष्ट है कि उनका बल रागात्मक संबंधों पर है। कवि और चिंतक सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन अज्ञेय का भी मानना था कि हमारे रागात्मक संबंधों में भी बदलाव आया है। इसके फलस्वरूप पुराने संस्कारगत रागात्मक संबंधो में बदलाव परिलक्षित है। (यहां पढें) अज्ञेय ने बात को और स्पष्ट करते हुए “दूसरा सप्तक” की भूमिका में कहा है,
कवि का क्षेत्र तो रागात्मक संबंधों का क्षेत्र होता ही है। इसलिए ये जो बदलाव है, उसका आज के कवि कर्म पर बहुत ही गहरा असर पड़ा है। हमारे चारो तरफ़ जो बाहरी वातावरण है, जैसे-जैसे उसमें परिवर्तन आता जाता है, वैसे-वैसे हमारे रागात्मक संबंध को जोड़ने की पद्धति भी बदलती जाती है। अगर ऐसा न हुआ होता, अगर बदलाव न हुआ होता, तो उस बाहरी वास्तविकता से तो हमारा नाता ही टूट जाता। अज्ञेय को पश्चिम में चल रहे एंटी रोमांटिक चिंतन का पता था। उस समय में पाश्चात्य सृजन की चिंतन धारा में एक नयी सोच शुरु हुई थी। उसका आधारभूत स्वर रोमांटिक भावबोध का विरोधी था। यहां पर टी.एस. एलिएट के विचार स्मरण हो रहे हैं। (यहा पढें) .. उन्होंने “एण्टी-रोमांटिक” रवैया अपनाया था। उन्होंने एक नए विचार को सामने लाया। उनका मानना था,
यह परिभाषा रोमांटिकों के “आत्माभिव्यक्ति” सिद्धांत का विरोध ही नहीं निषेध भी करती है। इन विचारों के साथ जो सिद्धांत सामने आया उसे “निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत” कहा गया। व्यक्तित्व से पलायन का अर्थ है अपने और पराए की भेद-बुद्धि से मुक्त हो जाना। निर्वैयक्तिक हो जाना। इसी अवस्था को भारतीय काव्यशास्त्र में कहा गया है,
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रविवार, 22 अगस्त 2010
कविता के नए सोपान (भाग-4)
कविता के नए सोपान (भाग-4)आज का कवि परिवेश के साथ द्वंद्वमय स्थिति में है। |
कवि, आलोचक और चिंतक विजयदेवनारायण साही नई कविता के दौर के प्रमुख कवियों में से एक हैं। उन्होंने नयी कविता के ऊपर अपने विचार रखते हुए कहा, “कविता कवि की भावनाओं तथा परिवेश के बीच संघर्ष की उपज है।” उनका यह मानना था कि यह संघर्ष कोई नई चीज नहीं है। यह पहले भी था। लेकिन उनका यह कहना था कि पहले का कवि अधिक “विदग्ध” (दक्ष) था। तात्पर्य यह कि वह कवि इस संघर्ष से न सिर्फ बचने के उपाय जानता था, बल्कि वह इस संघर्ष से उपजे तनाव से बच भी जाता था। लेकिन आज परिस्थिति अलग है। आज का कवि अपने परिवेश के साथ एक द्वंद्वमय स्थिति जी रहा होता है। जिस परिवेश में हम रहे हैं उसमें भी बदलाव आया है। इस बदलाव के कारण अनुभूति की जटिलता बढ़ी है। संवेदनात्मक उलझाव का समावेश भी परिवेश में हुआ है। ये सारे तत्व आज की कविता को प्रभावित कर रहे हैं। इस जटिलता और उलझाव के कारण कविता के कलेवर में भी बदलाव आया है। इसके अलावा एक और चीज उल्लेखनीय है कि अगर गहरे स्तर पर देखें तो काव्यानुभूति की बनावट में भी फर्क आया है। चेतना के तत्व जो पहले की कविता में काव्यानुभूति के आवश्यक अंग थे, आज के दौर-दौरा में अनुपयोगी दिखने लगे हैं। लगता है इस बदलते परिवेश में वे सार्थक नहीं रहे। इसी तरह कुछ ऐसे तत्व जिन्हें पहले अनावश्यक माना जाता था, आज वे ही काव्यानुभूति के केंद्र में आ गए हैं। साही जी अपनी बात को एक निष्कर्ष तक लाते हुए “शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट” शीर्षक लेख में कहते हैं, “कुल मिलाकर काव्यानुभूति और जीवन की काव्येतर अनुभूतियों में जो रिश्ता दिखता था, वह रिश्ता भी बदल गया है।” इस प्रकार नई कविता में अनुभूति की बनावट की भिन्नता परिलक्षित है। अतः हम पाते हैं कि नए कवि अनुभूति से अधिक अनुभूति के परिवर्तित संदर्भ पर अधिक बल देते हैं। |
शनिवार, 21 अगस्त 2010
कविता के नए सोपान (भाग-3) - कविता सिर्फ़ हृदय की मुक्तावस्था नहीं, बल्कि बुद्धि की मुक्तावस्था है।
कविता के नए सोपान (भाग-3)कविता सिर्फ़ हृदय की मुक्तावस्था नहीं, बल्कि बुद्धि की मुक्तावस्था है। |
नयी कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर कुँवर नारायण अज्ञेय द्वारा संपादित तीसरा सप्तक (१९५९) के प्रमुख कवियों में रहे हैं। 2009 में वर्ष 2005 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गए कुँवर नारायण ने तीसरा सप्तक के कवि-वक्तव्य में कहा,
यह परिभाषा कविता में रोमांटिक दृश्टि का विरोध करती है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि कुँवर नारायण एंटी रोमांटिक दॄष्टि का समर्थन करते हैं। यहां पर उन्होंने “मार्मिक अभिव्यक्ति” का प्रयोग किया है। कहीं न कहीं वो अज्ञेय के इस मत से कि “वास्तविकता के बदलते संदर्भ में नए रागात्मक संबंध की प्रमाणिकता के विकास की तथ्यगत स्थिति” के बहुत क़रीब है। इस परिभाषा के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कविता सिर्फ़ भावना की अभिव्यक्ति नहीं है। वह बुद्धि से प्रेरित सर्जना है। यानी सिर्फ़ हृदय की मुक्तावस्था नहीं, बल्कि बुद्धि की मुक्तावस्था है। |
गुरुवार, 19 अगस्त 2010
तासीर नीम की
तासीर नीम की मैंने एक दिन नीम के पेड़ से पूछा कि भाई - तुम कड़वे क्यों हो ? उसने मेरी तरफ़ आश्चर्य से देखा मैं उसकी ओर ही निहार रही थी उसके उत्तर के लिए मैं प्रतीक्षारत थी । मुझे लगा कि उसके सारे अस्तित्व में एक व्याकुलता भर गई है । उसकी पत्ती - पत्ती जैसे व्यथित हो गई है । आकुल हो तब वह बोला - हाँ ! मैं कड़वा हूँ। लेकिन तब ही तो तुम दूसरे तत्वों में मीठे का अहसास कर पाते हो । मैं कितने रोगों की दवा हूँ तभी तो तुम जी पाते हो । ज़रा तुम मेरे फूल -फल और पत्ते खाओ और फिर तुम कहीं का भी पानी लाओ और उसे पी कर बताओ कि वो पानी कैसा है ? शर्त के साथ कहता हूँ कि वो तुमको मीठा ही लगेगा । तो हे मेरे प्रश्नकर्ता ! मैं ख़ुद को कड़वा रखता हूँ लेकिन दूसरे की तासीर मीठी कर देता हूँ। यह सुन मैं सोचती हूँ कि शायद सच भी इसीलिए कड़वा होता है. |
कविता के नए सोपान (भाग-2) :: “कविता जटिल संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है।”
कविता के नए सोपान (भाग-2)“कविता जटिल संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है।” |
प्रयोगवाद के बाद हिंदी कविता की जो नवीन धारा विकसित हुई, वह नई कविता है। जिनमें परंपरागत कविता से आगे नये भावबोधों की अभिव्यक्ति के साथ ही नये मूल्यों और नये शिल्प-विधान का अन्वेषण किया गया। श्री लक्ष्मीकांत वर्मा नयी कविता के प्रसिद्ध सिद्धांतकार और कवि हैं। इनकी रचना “नये प्रतिमान पुराने निकष”, “लक्ष्मीकांत वर्मा की प्रतिनिधि रचनाएँ” में संकलित हैं। उनका मानना था, अज्ञेय द्वारा सम्पादित एवं प्रकाशित 'तारसप्तक' के सात कवियों में से एक कवि गिरिजाकुमार माथुर भी हैं। गिरिजाकुमार माथुर का कहना था,
इस परिभाषा में दो महत्वपूर्ण और ध्यान देने वाली बात है। पहली यह कि नयी कविता जटिल संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है। और दूसरी बात यह कि माथुर जी द्वारा यह भी कहा गया कि इन जटिल संवेदनाओं को सर्वग्राह्य और सम्प्रेषणीय बनाता है। अर्थात् कवि के विचारों का साधारनीकरण भी उनके लिए एक महत्वपूर्ण प्रश्न था। |
बुधवार, 18 अगस्त 2010
कविता के नए सोपान (भाग-1)
कविता के नए सोपान (भाग-1)
नयी कविता के कवियों-अलोचकों ने काव्य को नए ढ़ंग से परिभाषित किया है। प्रयोगवाद के साथ-साथ नई कविता पर बहस चली। इस बहस में यह प्रश्न भी सामने आया कि “नया” क्या है? साथ ही यह भी विचारणीय रहा कि कविता क्या है?
आधुनिक हिन्दी कविता में डाक्टर जगदीश गुप्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनका मानना था कि,
“ये दोनों प्रश्न परस्पर सम्बद्ध और एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। क्योंकि कविता में नवीनता की उत्पत्ति वस्तुतः सच्ची कविता लिखने की आकांक्षा से उत्पन्न होती है।”
बात सही भी है। कवि जो भी कहता है उसमें यदि सृजनात्मकता और संवेदनीयता नहीं हो, तो उसे कविता नहीं कहा जा सकता। “नई कविता स्वरूप और समस्याएं” पुस्तक में जगदीश गुप्त ने कहा कि
“ कविता सहज आंतरिक अनुशासन से युक्त अनुभूति जन्य सघन-लयात्मक शब्दार्थ है जिसमें सह-अनुभूति उत्पन्न करने की यथेष्ट क्षमता निहित रहती है।”
उन्होंने “यथेष्ट” शब्द का प्रयोग किया है। यथेष्ट शब्द कवि और पाठक दोनों को समाहित किए है। इसका अर्थ यह हुआ कि कविता के विषय में कवि का निर्णय अंतिम निर्णय नहीं है। पाठक या श्रोता की मान्यता अनिवार्य है।
पर इस नई कविता को परिभाषित करते समय जगदीशगुप्त ने सृजनात्मकता शब्द का प्रयोग नहीं किया है। इस कारण से कुछ विद्वानों ने इस परिभाषा पर आपत्ति भी उठाई है। जाने माने आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने, “कविता के नए प्रतिमान” में “कविता क्या है” निबंध लिखा है। इस निबंध में उन्होंने कहा,
“डॉ. जगदीशगुप्त अपनी काव्य-परिभाषा में वह तत्व भूल गए जिसे नई कविता ने हिंदी काव्य-परम्परा से जोड़ा है। इसलिए अनुभूति तो उन्हें याद रह गई लेकिन सृजनात्मकता भूल गए।
“जगदीशगुप्त की परिभाषा की यह सबसे बड़ी सीमा है। यह परिभाषा छायावादी अनुभूति और नई कविता की नई अनुभूति में फर्क करके नहीं चलती।”
“सह-अनुभूति” में विचार-भंगिमा का नयापन है। “सह अनुभूति” , “रसानुभूति” का पर्याय नहीं है। यह नवीन काव्यानुभूति का पर्याय है। अतः हम कह सकते हैं कि सह-अनुभूति का प्रश्न रसानुभूति के विरोध में उठाया गया था।
मंगलवार, 17 अगस्त 2010
काव्य के मूल में मानवीय संवेदना की सक्रियता है।
"काव्य के मूल में मानवीय संवेदना की सक्रियता है।” |
नई कविता के कवियों ने काव्य को नए ढंग से परिभाषित किया। उन्होंने रचनाओं में संवेदनशीलता पर उन्होंने विचार किया। इन आलोचकों कवियों का कहना था कि काव्य के मूल में मानवीय संवेदना ही सक्रिय रहती है। जिस तरह से हमारा जीवन गतिशील और परिवर्तनशील है, उसी तरह मानवीय संवेदना भी है। हमारे आसपास जो कुछ है, जो घटित हो रहा है उसका प्रभाव काव्य पर पड़ना स्वाभाविक है। परिवेश की नवीनता, उसका बदलाव, काव्य चिंतन के परिप्रेक्ष्य को बदल देती है। कवि और चिंतक सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन अज्ञेय जिन्होंने दूसरा सप्तक और सर्जना और संदर्भ की रचना की, का मानना था कि हमारे रामात्मक संबंधों में भी बदलाव आया है। इसके फलस्वरूप पुराने संस्कारगत रागात्मक संबंधो में बदलाव परिलक्षित है। रघुवीर सहाय के काव्य संकलन सीढि़यों पर धूप में की भूमिका में अज्ञेय ने कहा है - “काव्य सबसे पहले शब्द है। और सबसे अंत में भी यही बात बच जाती है कि काव्य शब्द है।" यह एक महत्वूपर्ण परिभाषा है। सारे कविधर्म इसी परिभाषा से निःसृत होते हैं। शब्द का ज्ञान और इसकी अर्थवत्ता की सही पकड़ से ही एक व्यक्ति रचनाकार से रचयिता बनता है। अज्ञेय का मानना था कि ध्वनि, लय छंद आदि के सभी प्रश्न इसी में से निकलते हैं और इसी में विलय होते हैं। अज्ञेय तो यहां तक कहते हैं कि “सारे सामाजिक संदर्भ भी यहीं से निकलते है। इसी में युग-सम्पृक्ति का और कृतिकार के सामाजिक उत्तरदायित्व का हल मिलता है या मिल सकता है।" इस प्रकार जब हम काव्य लक्षण परम्परा की चर्चाओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं तो पाते हैं कि या तो काव्यार्थ शब्द में है या अर्थ में है या फिर दोनों में है। इस बहस में एक बात तो स्पष्ट है कि अधिकांश आचार्यों ने शब्द पंरपरा का ही समर्थन किया है। दूसरी प्रमुख बात जो सामने आती है वह यह है कि अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, रस जैसे पुराने प्रतिमान, जिस तरह से पहले कारगर थे आज नहीं रहे हैं। |
सोमवार, 16 अगस्त 2010
कविता सामूहिक भाव बोध की अभिव्यक्ति है।
"कविता सामूहिक भाव बोध की अभिव्यक्ति है।”हिंदी की चिंतन परंपरा में काव्य लक्षणभाग – 5 प्रगतिवाद काल |
काव्य चिंतन को प्रगतिवादियों ने नए ढंग से उठाया। इस धारा के विद्वानों का मानना था कि कविता विकासमान सामाजिक वस्तु है। इसका सृजन तो व्यक्तिगत प्रयास का परिणाम है। पर ध्यान देने वाली बात यह है कि यह सृजन मूलतः सामाजिक और सांस्कृतिक भूमि पर केंद्रित होता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि कविता में संस्कृतिक परंपराओं की संवेदना समाहित होती है। गजानन माधव मुक्तिबोध ने नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध में इस विषय पर प्रकाश डालते हुए कहा कि काव्य एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है। प्रगतिवादी काव्य प्रक्रिया को छायावादी काव्य प्रक्रिया से अलग मानते है। मुक्तिबोध का मानना था कि – “इसका अर्थ यह नहीं है कि आज का कवि व्याकुलता या आवेश का अनुभव नहीं करता। होता यह है कि वह अपने आवेश या व्याकुलता को बांधकर, नियंत्रित कर, ऊपर उठाकर, उसे ज्ञानात्मक संवेदन के रूप में या संवेदनात्मक ज्ञान के रूप में प्रस्तुत कर देता है।”
“रोमैंटिक कवियों की भांति आवेशयुक्त होकर, आज का कवि भावों को अनायास स्वच्छंद अप्रतिहत प्रवाह में नहीं बहता। इसके विपरीत, वह किन्ही अनुभूत मानसिक प्रतिक्रियाओं को ही व्यक्त करता है। कभी वह इन प्रतिक्रियाओं की मानसिक रूपरेखा प्रस्तुत करता है, कभी वह उस रूप रेखा में रंग भर देता है।” मुक्तिबोध ने आगे यह कहा कि “इसका अर्थ यह नहीं है कि आज का कवि व्याकुलता या आवेश का अनुभव नहीं करता। होता यह है कि वह अपने आवेश या व्याकुलता को बांधकर, नियंत्रित कर, ऊपर उठाकर, उसे ज्ञानात्मक संवेदन के रूप में या संवेदनात्मक ज्ञान के रूप में प्रस्तुत कर देता है।” मुक्तिबोध का काव्य को "सांस्कृतिक प्रक्रिया" कहने के पीछे यह तर्क है कि काव्य-सृजन में सामाजिक आर्थिक, राजनीतिक सांस्कृतिक शक्तियों का हाथ होता है इस लिए यह सांस्कृतिक प्रक्रिया है। यह तो स्पष्ट है कि प्रगतिवाद का काव्य चिंतन मार्क्सवाद से प्रभावित है। वे यह अवष्य मानते हैं कि काव्यानुभूति की बनावट में सामाजिक सौंदर्यानुभूति की भूमिका अहम है। डॉ रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक प्रगति और परम्परा में यह कहा है कि “काव्य एक महान सामाजिक क्रिया है – जो सामाजिक विकास के समानांतर विकसित होती रहती है।” इस परिभाषा से यह सिद्ध होता है कि कविता सामाजिक यथार्थ का चित्रण करती है । पाश्चात्य चिंतक काडवेल का "Illusion and Reality" में कहना था "Art is the product of society as the pearl is the product of the oyster." अर्थात "साहित्य वह मोती है जो समाज रूपी मोती तें पलता है।” उसके इस कथन को अधिकांश प्रगतिवादी मानते रहे। यह एक भौतिकवादी चिंतन है। कविता में जिस अनुभूति का चित्रण होता है वह वैयक्तिक न होकर भी सामाजिक होती है। इस सामाजिक अनुभूति में जटिलता, संश्लिष्टता और तनाव रहता है। इससे हटकर जार्ज लुकाच ने द्वंद्वात्मक भातिकवादी विचारधार को आगे बढ़ाया। उनका कहना था “हमारी चेतना मात्र भौतिक स्थितियों से नियंत्रित नहीं होती वह अपेक्षाकृत स्वतंत्र है और कभी कभी वह बाहरी भौतिक स्थितियों के विपरीत भी जा सकती है।” यह दृष्टि सौंदर्यशास्त्रियों के चिंतन से बहुत मेल खाती है। ऊपर कही गई बातों पर गौर करें तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कविता में जिस अनुभूति का चित्रण होता है वह वैयक्तिक न होकर भी सामाजिक होती है। इस सामाजिक अनुभूति में जटिलता, संश्लिष्टता और तनाव रहता है। इसलिए हम निष्कर्ष के रूप में यह मान सकते हैं कि कविता सामूहिक भाव बोध की अभिव्यक्ति है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कहना था कि ज्ञान-प्रसार के भीतर ही भाव-प्रसार होता है। उनकी यह मान्यता प्रगतिवादियों को भी मान्य रही है। |