शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

दोहवाली ......भाग - 9 / संत कबीर


जन्म  --- 1398

निधन ---  1518

दया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय


सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय 81


जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय


प्रेम गली अति साँकरी, ता मे दो समाय 82


छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम होय


अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय 83


जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम


दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम 84


कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय


टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय 85


ऊँचे पानी टिके, नीचे ही ठहराय


नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय 86


सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय


जौसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय 87


संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक


कहे कबीर ता दास को, कबहूँ आवे चूक 88






मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहि दोष


यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष 89


जब ही नाम ह्रदय धरयो, भयो पाप का नाश


मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास 90


क्रमश:

6 टिप्‍पणियां:

  1. बार-बार पढने पर भी लगता है पहली बार ही पढ़ा जा रहा हो..

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  2. कबीर का जीवन दर्शन जनमानस में कहीं गहरे पैठ गया है । समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं विसंगतियों पर कुठराघात करते हुए उनका अक्षय़ संदेश रहा है कि शरीर के अंदर ही अपार आनंद व दिव्य शांति निहित है। इसके लिए तीर्थो के भ्रमण की आवश्यकता नही है । वास्तव मे अज्ञानता के चलते मनुष्य इसे पहचान नहीं पाता। वर्तमान में बढ़ी भौतिकता ने लोगों के जीवन को अशांत बना दिया है। समाज हित में व्यक्ति को शांतिपूर्ण जीवन के लिए महात्मा कबीर के विचारों से अवगत होने की आवश्यकता है। कबीर के बारे में जानना अच्छा लगा । धन्यवाद ।

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  3. जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय ।


    प्रेम गली अति साँकरी, ता मे दो न समाय ॥

    अति सुंदर !

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  4. कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय ।


    टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥ 85 ॥


    ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय ।


    नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय ॥ 86 ॥

    वाह गज़ब के दोहे ..कई बार पढ़ा.

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  5. कबीर दास जी के दोहे न सिर्फ़ नीतिपरक हैं बल्कि बहुत ही प्रबंधकीय समस्याओं का निदान भी है यहां।

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