मंगलवार, 12 जुलाई 2011

जनतंत्र का जन्म

रामधारी सिंह “ दिनकर “ की कविता -- 1
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जन्म: 23 सितंबर 1908
निधन: 24 अप्रैल 1974
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।


जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।

जनता?हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम,
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"

मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।

लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।

अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता;गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।

सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।

आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।


फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
26 january 1950

10 टिप्‍पणियां:

  1. हुंकार भरती ऐसी कविताएं सिर्फ़ दिनकर जी ही लिख सकते थे।
    बहुत सशक्त रचना से रू ब रू कराने के लिए आभार।

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  2. हुंकार भरती ऐसी कविताएं सिर्फ़ दिनकर जी ही लिख सकते थे।
    बहुत सशक्त रचना से रू ब रू कराने के लिए आभार।

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  3. रामधारी सिंह "दिनकर" की प्रस्तुत कविता अच्छी लगी। संरचना-शिल्प की दृष्टि से उनकी यह कविता अत्यंत सहज एवं स्वभाविक हैं। इस कविता में ओज माधुर्य और प्रसाद-भाषा के तीनों गुणों का समावेश हुआ है। युग-चारण और राष्ट्र कवि दिनकर जी की रचनाओं में राष्ट्रीयता का भाव सर्वत्र परिलक्षित होता है। कुछ ऐसे ही भावों को वयाँ करती यह कविता शासन और जनता के मनोभावों की स्खलन की द्योतक है। दिनकर जी अपने साहित्यक-यात्रा में पड़ाव नही चाहते थे किंतु अपनी व्यक्तिगत नजबूरियों से कुंठित होने के कारण मन के निर्मल उच्छवास के रूप को अभिव्यक्त करते हुए कहा था-

    'कामनाओं के झकोरे रोकते हैं राह मेरी,
    खींच लेती है तृषा पीछे पकड़ कर वाँह मेरी।"

    यह कविता पढ़वाने के लिए आपका विशेष आभार।

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  4. यह कविता पढ़वाने के लिए आपका विशेष आभार।

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  5. आह .एक तो दिनकर उस पर इतनी ओजपूर्ण कविता.सुबह बन गई आज तो.

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  6. बेहद सशक्त और ओजपूर्ण कविता………आभार्।

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  7. अत्यंत ओजपूर्ण एवं जोशीली कविता है ! दिनकर जी की लेखनी का कोई सानी नहीं ! लेकिन उनकी यह हुँकार भी बहरे तंत्र के कानों में जा निष्फल होती नज़र आती है !

    तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
    अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
    तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।

    किस जनता के सिर पर मुकुट है और कौन आज जनता की परवाह करता है ! इतनी साहित्यिक एवं प्रांजल रचना पढ़वाने के लिये आभार !

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  8. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर - एक महामानव - उनको शत शत नमन ।

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