रविवार, 17 जुलाई 2011

हिन्दी नाटक का प्रारंभ-2

नाटक साहित्य

हिन्दी नाटक का प्रारंभ-2

vcm_s_kf_repr_640x480मनोज कुमार

लिंक : हिन्दी नाटक का प्रारंभ-1

हमारे यहां भारतीय नाट्यकला की बहुत लम्बी और समृद्ध परंपरा मिलती है लेकिन हिंदी में आधुनिक युग के पहले नाटक की परंपरा लगभग अनुपस्थित थी। हिन्दी साहित्य में नाटक साहित्य 19 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक उपलब्ध नहीं होते। नेमिचन्द्र जैन कहते हैं,

“संस्कृत नाटक के स्वर्णयुग के बाद हमारी रंग-परंपरा विच्छिन्न हो गयी। उसके बाद प्रायः एक हज़ार वर्ष तक आधुनिक भाषाओं में नाटक बहुत ही कम लिखे गए और जो इक्का-दुक्का प्रयत्न हुए भी वे संस्कृत नाटकों की अनुकृति मात्र थे और उनका किसी रंग-प्रयोग से कोई सम्बन्ध नहीं था।”

नेमिचन्द्र जैन जी का यह भी कहना है,

“अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी में, देश की बहुत-सी भाषाओं में कुछ-कुछ नाटक लिखे जाने लगे। पर अपने देश की नाट्य-परंपरा से जीवन्त और गहरे सम्पर्क के अभाव में नाटक को या तो सृजनात्मक साहित्य से अलग मनोरंजन का कार्य समझा गया, या फिर शैक्षिक क्षेत्रों में वह बहुत-कुछ एक निरा साहित्य-रूप गिना जाने लगा।”

हालाकि हिन्दी नाटक का उदय भारतेन्दु युग से पहले हो चुका था और कुछ छिटपुट नाटक लिखे भी गए थे, कुछ ब्रजभाषा में कुछ खड़ी बोली में। कम से कम दर्जनभर ऐसी कृतियां हैं जिन्हें हिन्दी भाषा का नाटक कहा गया है। जोधपुर नरेश जसवन्त सिंह द्वारा लगभग 1643 में लिखा गया “प्रबोध चन्द्रोदय”, “हनुमन्नाटक” और अभिज्ञान शाकुन्तलम्‌” आदि संस्कृत नाटकों के अनुवाद हैं। प्राणचन्द चौहान कृत “रामायण महानाटक” (1610), कृष्णजीवन लछीराम कृत “करुणाभरण” (1657), नेवाज कृत “शकुंतला” (1680), महाराज विश्वनाथ सिंह कृत “आनन्द रघुनन्दन” (1700), रघुराय नागर कृत “सभासार” (1700), उदय कृत “रामकरुणाकर” और “हनुमान नाटक” (1840), अमानत कृत “इंदरसभा” (1853), गणेश कवि कृत “प्रद्युम्न विजय” (1863), आदि का उल्लेख मिलता है, लेकिन वे नाटक हैं ही नहीं। ये पद्यात्मक प्रबंध हैं।

इनके अलावा और भी ग्रन्थ हैं, जैसे केशवदास कृत “विज्ञान गीता”, बनारीदास कृत “समय सार”, गुरु गोविन्द सिंह कृत “चण्डी चरित्र”, आनंद कृत “नाटका नन्द”, लाल झा कृत “गोरी परिणय”, हरिराम कृत “जानकीराम चरित्र”, भानु झा कृत “प्राभावती हरण”, हर्षनाथ झा कृत “उषा हरण” जिनमे संवाद योजना देखने को मिलते हैं।

इस काल में पुरानी कहानी के (इतिवृत्त्मूलक) संवादात्मक काव्य को ही नाटक कहा जाने लगा। चूंकि इनमें नाटकीय संवाद योजना है इसलिए इन्हें नाटक मान लिया गया।

गद्य रचना के अंतर्गत भारतेंदु जी ने अपने “नाटक” नाम की पुस्तक में लिखा है कि हिन्दी में मौलिक नाटक उनके पहले दो ही लिखे गए थे -- रीवां नरेश महाराज विश्वनाथ सिंह (1661-1740) का लगभग 1700 में लिखा हुआ “आनन्द रघुनन्दन” और भारतेन्दु जी के पिता गोपालचन्द्र गिरिधरदास का 1857 में लिखा हुआ “नहुष नाटक”। ये दोनों ही ब्रजभाषा में थे। इनमें नाटक को मंच पर पेश किये जाने योग्य बनाने, उसके अनुरूप भाषा और शिल्प का निर्माण करने की कोशिश मिलती है।

भारतेन्दु जी ने अपने “नाटक” नामक ग्रन्थ में देवमाया प्रपंच, प्रभावती और आनन्द रघुनन्दन को सर्वप्रथम नाटक-रीति पर विरचित नाटक माना है। बाबू गुलाब राय ने “हिन्दी नाट्य-विमर्श” और बाबू ब्रजरत्नदास ने “हिन्दी नाट्य साहित्य” में चर्चा करते हुए कहा है कि “आनन्द रघुनन्दन” ही हिन्दी का सर्वप्रथम नाटक है। यह ऐसी रचना है जिसमें शास्त्रीय नियमों के अनुसार नान्दी, विष्कम्भक, भरतवाक्य आदि का प्रयोग किया गया है। यह संस्कृत की नाटक शैली से बहुत प्रभावित है। रंगमंच के संकेत भी इसमें संस्कृत में ही दिए गए हैं। हास्य के लिए विदूषक की योजना की गई है। इसका नायक राम हैं और खलनायक रावण। विश्वनाथ जी ने यह नाटक नये दृष्टिकोण से लिखा। एक और विशेषता इसकी यह है कि विश्वनाथ जी ने सबसे पहले मौलिक नाटकों में ब्रजभाषा की गद्य-शैली का प्रयोग मुख्य पात्रों से कराया है। गीत और छन्द की अधिकता के कारण इसकी गति बहुत धीमी है। हालाकि कला की कसौटी पर यह सफल नाटक की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता हो, फिर भी भारतेन्दु हरिश्चंद्र के अलावा अन्य कई विद्वानों ने इसे हिन्दी नाटकों का पहला नाटक कहलाने का श्रेय दिया है। डॉ. दशरथ ओझा का मानना है,

“विश्वनाथ जी के इस नाटक ने हिन्दी नाटकों में ऐसी क्रांति पैदा कर दी, जिसकी अत्यंत आवश्यकता थी।

“नहुष नाटक” (1857) लुप्तप्राय हो गया था। “कवि वचन सुधा” पत्रिका के पहले साल के पहले अंक में इस नाटक का पहला अंक छपा था। डॉ. दशरथ ओझा बताते हैं,

“कांकरौली में इसकी एक हस्तलिखित प्रति मिल गई है। इस प्रति में नाटक में प्रस्तावना तथा छः अंक हैं। इसकी कथावस्तु महाभारत के उद्योग तथा अनुशासन पर्वों के आधार पर निर्मित है।”

इस नाटक में यह विलक्षण पद्धति पाई जाती है कि पात्र के प्रवेश के साथ उसके परिचय के रूप में एक कविता दे दी गई है। नाट्क में नान्दी, सूत्रधार, प्रस्तावना का समावेश आनन्द-रघुनन्दन के समान ही मिलता है।

पं. शीतला प्रसाद त्रिपाठी कृत “जानकीमंगल” (1868) नाट्य गुणों से युक्त है। इसकी रचना अभिनय के लिए ही की गई होगी। इसमें परिमार्जित खड़ी बोली का भी उपयोग हुआ है। उन दिनों रामलीला और रास लीला भी काफ़ी लोकप्रिय थे। रामलीला की लोकप्रियता का बहुत अच्छा उदाहरण यह नाटक है। इसके अभिनय में भारतेन्दु ने भी भाग लिया था।

अमानत की “इन्दरसभा” का स्वरूप भी उस समय के इतिहास, नाटक और रंगमंच की देन था। उसके संगीत, नृत्य, भाव, रस, गतियों – प्रकारों और लचीले शिल्प ने एक मौलिक पहचान बनाई।

इन नाटकों में हालाकि नाटक-रचना की शास्त्रीय विधियों को अपनाया गया है, फिर भी आगे के हिंदी नाट्य-लेखन को इनसे कोई सार्थक दिशा नहीं मिलती है। नाट्य-वस्तु और शैली शिल्प की दृष्टि से हिंदी नाटक के आधुनिक मौलिक स्वरूप का विकास भारतेंदु जी के नाटक अभिनय में ही देखने को मिलता है। आधुनिक हिंदी नाटक और रंगमंच का यह एक सर्वमान्य और ऐतिहासिक सत्य है कि पारसी व्यावसायिक थियेटर की प्रतिक्रियास्वरूप हिंदी में सुरुचिपूर्ण एवं गम्भीर अव्यावसायिक रंगमंच की स्थापना और उसके विकास में भारतेंदु हरिश्चन्द्र के रचनात्मक प्रयासों का बुनियादी महत्व रहा है।

हिंदी के संबंध में एक विचित्र बात यह है कि इसके नवयुग का उत्थान नाटक से ही हुआ है। श्री हरिश्चंद्र ने जिस काल में अपनी प्रतिभा से और परिश्रम से हिंदी की उन्नति की उस काल के साहित्य से नाटकों को अलग कर देने बचता ही क्या है? आ. रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं,

“विलक्षण बात यह है कि आधुनिक गद्य साहित्य की परंपरा का प्रवर्तन नाटकों से हुआ।”

भारतेन्दु जी से ही हिन्दी के आधुनिक युग की शुरुआत होती है। आधुनिक हिन्दी गद्य के जन्मदाता वही हैं। हिन्दी नाटकों का जन्मदाता भी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को ही माना जाता है। भारतेन्दु जी ने जब नाटक लिखना शुरु किया था, तब हिन्दी में न तो नाटक लिखे जाते थे और न ही रंगमंच उपलब्ध था। लेकिन भारतीय, पाश्चात्य, लोक आदि परंपराओं का उन्हें ज्ञान था। वह हिन्दी के प्रथम समर्थ नाटककार हैं।

***

संदर्भ ग्रंथ

१. हिन्दी साहित्य का इतिहास – सं. डॉ. नगेन्द्र, सह सं. डॉ. हरदयाल २. डॉ. नगेन्द्र ग्रंथावली – खंड ९ ३. हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास – हजारीप्रसाद द्विवेदी ४. हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ. श्यम चन्द्र कपूर ५. हिन्दी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ६. मोहन राकेश, रंग-शिल्प और प्रदर्शन – डॉ. जयदेव तनेजा ७. हिन्दी नाटक : उद्भव और विकास – डॉ. दशरथ ओझा ८. रंग दर्शन – नेमिचन्द्र जैन ९. कोणार्क – जगदीश चन्द्र माथुर जयशंकर प्रसाद : रंगदृष्टि नाटक के लिए रंगमंच – महेश आनंद

16 टिप्‍पणियां:

  1. नाटकों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी जो छात्रों के लिए भी उपयोगी है !

    जवाब देंहटाएं
  2. लंबी श्रृंखला है मालूम पड़ता है। मगर इन सब बातों के बारे मे अभी तक हम भिग्य नही थे। सुन्दर श्रृंखला।

    जवाब देंहटाएं
  3. हिन्दी के प्रथम नाटक के बारे में जानकर प्रसन्नता हुई । भारतेन्दु जी से पहले भी हिन्दी गद्य का ऐसा मानक रूप था यह जानकारी मेरे लिये नई है । धन्यवाद ।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुमूल्य जानकारी मिली हिंदी नाटक के बारे में.....धन्यवाद.

    जवाब देंहटाएं
  5. विलुप्ति की आखिरी छोर पर यह विधा अभी भी कहीं न कहीं देश के कला मंदिरों में अपना अस्तित्व बोध करा देती है। मनोरंजनों के अत्याधुनिक संसाधनों की भरमार,रंगशालाओं एवं रंगकर्मियों की उदासीनता के कारण यह विधा अब केवल हिंदी साहित्य से जुड़े लोगों की विषय-वस्तु सी बनकर रह गयी है। इस विधा से आज का साहित्यकार जुड़ना नही चाहता है क्योंकि वह जानता है कि वर्तमान सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य उसे इस कर्म में वह मुकाम वो मंजिल नही दिला सकते जिसके वे वास्तविक हकदार हैं। इस संबंध में मैने कई बार पढ़ा है कि मोहन राकेश का 'आषाढ का एक दिन','लहरों के राजहंस',तथा 'आधे-अधूरे' नाटक का मंचन दिल्ली के रंगशालाओं मे किया गया। साहित्य के इस क्षेत्र को अपनी जीविका का माध्यम बनाने वाले मै उन तमाम कलाकारों की प्रशंसा करता हू जिन्होंने इन विषम परिस्थितियों में भी इस विधा से जुड़े रह कर इसे जीवंतता प्रदान किए हुए हैं। एक लंबे अंतराल तक हाशिए पर रखे गए इस विधा को प्रस्तुत करने के लिए आपका विशेष आभार। अगले क्रम का इंतजार रहेगा।
    धन्यवाद,सर।

    जवाब देंहटाएं
  6. उम्दा जानकारीपूर्ण आलेख...

    जवाब देंहटाएं
  7. मनोज जी हिंदी नाटक के उद्भव पर आपने ऊंगली रख दी है शोध परक दृष्टि से कुछ भी न बचा है .विकास की अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा .दिल्ली रंग मंच की कितनी ही प्रस्तुतियों के हम साक्षी बन चुकें हैं -बाणभट्ट की आत्म कथा ,१८५७ एक सफ़र नामा ,खामोश अदालात ज़ारी है ,मंडी हाउस ,श्री राम कला केंद्र से लेकर पुराना किला तक ,कमानी ऑडिटोरियम की राह अनेक बार पकड़ी है .सिलसिला हलवा सूजी का चस्का दूजी का पंजाबी नाटक से शुरु हुआ था उस दौर में आषाढ़ का एक दिन का मंचन भी देखा था .पंजाबी नाटकों ने दिल्ली रंग मंच को खासी लोकप्रियता दिलवाई थी १९७०-१९८० के दशक में .

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुमूल्य जानकारी मिली हिंदी नाटक के बारे में.....धन्यवाद.

    जवाब देंहटाएं
  9. कौन सा संदर्भ कहां से लिया गया है इसका विधिवत उल्लेख उचित होगा.
    उपर लिखा है कि भारतेंदु ने अपने पुस्तक 'नाटक' में बाद में लिखा है कि ग्रंतह 'नाटक' में लेकिन यन ना नाटक है ना ग्रंथ. भारतेंदु ने एक विस्तूत निबंध लिखा था. जो आलोचना के विधिवत शुरूआत की दस्तावेज मानी जाति है. इस निबंध ने नाटक और रंगंच का दिशा निर्देशन किया. इसका नाम था 'नाटक वा दृश्यकाव्य', संभवतः इसी का उल्लेख आप कर रहें हैं.

    जवाब देंहटाएं
  10. @ अमितेश
    जहां -जहां उचित जान पड़ा विद्वानों को कोट कर ही दिया है।

    हां, आपने सही कहा है। हिंदी नाट्यालोचना के क्षेत्र में भारतेंदु जी ने “नाटक अथवा दृश्यकाव्य” (1883) निबंध लिखा था।

    मूल आलेख में सुधार कर दूंगा।

    मार्गदर्शन के लिए आभार!

    जवाब देंहटाएं
  11. @ अमितेश जी,
    इस आलेख में भारतेन्दु जी रचित “नाटक” को यदि ग्रन्थ और पुस्तक कहा गया है तो इसमें मुझे नहीं लगता कि कोई ग़लती की गई है। क्या निबंध पुस्तक रूप में नहीं आते। भारतेन्दु जी रचित “नाटक” नामक पुस्तक खण्ग विलास प्रेस, बांकीपुर, पटना से सन 1914 में प्रकाशित हुई थी।

    जवाब देंहटाएं
  12. कृपया यहाँ पर भी एक बार दर्शन दें www.hindiclub.in

    जवाब देंहटाएं
  13. बहुमूल्य जानकारी मिली हिंदी नाटक के बारे में.....धन्यवाद.

    जवाब देंहटाएं

आप अपने सुझाव और मूल्यांकन से हमारा मार्गदर्शन करें