
प्रस्तुत संवाद  पितामह भीष्म युधिष्ठिर  से कर रहे हैं ... युद्ध में विजय प्राप्त कर व्याकुल युधिष्ठिर  शर शैया पर लेटे भीष्म से मिलने जाते हैं ... उस समय भीष्म अपनी मनोदशा का वर्णन कर रहे हैं ...
प्यार पांडवों पर मन से 
            कौरव की सेवा तन से  
सध पाएगा  कौन काम  
             इस बिखरी हुई लगन से ?  
बढ़ता हुआ बैर भीषण  
               पांडव  से दुर्योधन का  
मुझमें बिम्बित हुआ द्वंद्व  
            बन कर शरीर से मन का ।  
किन्तु , बुद्धि ने मुझे भ्रमित कर  
                दिया नहीं कुछ करने  
स्वत्व छीन अपने हाथों का  
               हृदय - वेदी पर धरने ।  
कभी दिखती रही बैर के  
             स्वयं - शमन  का सपना  
कहती रही कभी , जग में  
              है कौन पराया - अपना ।  
कभी कहा , तुम बढ़े , धीरता  
                  बहुतों की छूटेगी  
होगा विप्लव घोर , व्यवस्था  
                की सरणी  टूटेगी ।  
कभी वीरता को उभार  
              रोका अरण्य जाने से ;  
वंचित रखा विविध विध मुझको  
               इच्छित फल पाने से ।  
आज सोचता हूँ , उसका यदि  
                कहा न माना होता ,  
स्नेह - सिद्ध शुचि रूप न्याय का  
                  यदि पहचाना होता ।  
धो पाता यदि राजनीति का  
              कलुष स्नेह के जल से ,  
दंडनीति को कहीं मिला  
               पाता करुणा निर्मल से ।  
लिख पायी सत्ता के उर पर  
                 जीभ नहीं जो गाथा  
विशिख - लेखनी से लिखने मैं  
                 उसे कहीं उठ पाता ।  
कर पाता यदि मुक्त हृदय को  
                  मस्तक के शासन से  
उतार पकड़ता बाँह दलित की  
                  मंत्री के आसन  से ।  
राज - द्रोह की ध्वजा उठा कर  
                    कहीं प्रचारा होता ,  
न्याय - पक्ष लेकर दुर्योधन  
               को ललकारा होता ।  
स्यात  सुयोधन भीत उठाता  
               पग कुछ अधिक संभाल के ,  
भरतभूमि पड़ती न स्यात  
                संगर में आगे चल के ।  
पर , सब कुछ हो चुका , नहीं कुछ  
                 शेष , कथा जाने दो ,  
भूलो बीटी बात , नए  
               युग को जग में आने दो ।  
मुझे शांति , यात्रा से पहले  
                मिले सभी फल मुझको ,  
सुलभ हो गए धर्म , स्नेह  
               दोनों के संबल मुझको ।  
क्रमश:  
प्रथम सर्ग --        भाग - १ / भाग -२ द्वितीय सर्ग --- भाग -- १ / भाग -- २ / भाग -- ३
तृतीय सर्ग --- भाग -- १ /भाग -२
चतुर्थ सर्ग ---- भाग -१ / भाग -२ / भाग - ३ /भाग -४ /भाग - ५ /भाग –6 /भाग –7 /भाग - 8
कुरूक्षेत्र को पढ़वाने के लिए शुक्रिया!
जवाब देंहटाएंहोली की शुभकामनाएँ!
bahut achcha ...happy holi.
जवाब देंहटाएंgahan ...bahut sunder abhivyakti ....
जवाब देंहटाएंabhar .
आभार ||
जवाब देंहटाएंदिनेश की टिप्पणी : आपका लिंक
dineshkidillagi.blogspot.com
होली है होलो हुलस, हुल्लड़ हुन हुल्लास।
कामयाब काया किलक, होय पूर्ण सब आस ।।
मृत्यु-शय्या पर लेटे आम आदमी और भीष्म के अनुभव में ज़्यादा अंतर नहीं दिखता!
जवाब देंहटाएंसीखने योग्य बातें
जवाब देंहटाएंहोली की अनेकानेक बधाई..
सब कुछ लुटा के होश मे आये तो क्या हुआ
जवाब देंहटाएंबेहतरीन भाव पूर्ण सार्थक रचना,
जवाब देंहटाएंइंडिया दर्पण की ओर से होली की अग्रिम शुभकामनाएँ।
gyanvardhak prastuti. aabhar.
जवाब देंहटाएंयहाँ आकर सुकून सा आ जाता है.
जवाब देंहटाएंबड़ा ही रोचक प्रसंग है यह।
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंहोली की हार्दिक शुभकामनाएँ।
ग्रीटिँग्स भेजने के लिए http://indiadarpan.blogspot.com पर विजिट करेँ।