सोमवार, 2 अप्रैल 2012

कुरुक्षेत्र ...... पंचम सर्ग ..... भाग -4 / रामधारी सिंह दिनकर



प्रस्तुत भाग में  विजय के बाद युधिष्ठिर आत्मग्लानि में शर शैया  पर लेटे पितामह भीष्म से कह रहे हैं उसका वर्णन कवि ने किया है ...


सब शूर सुयोधन - साथ गए 
             मृतकों से भरा यह देश बचा है ;
मृत वत्सला माँ की पुकार बची ,
            युवती विधवाओं का वेश बचा है ;
सुख - शांति गयी , रस राग गया ,
            करुणा , दुख - दैन्य अशेष बचा है ; 
विजयी के लिए यह भाग्य के हाथ में
                     क्षार समृद्धि का शेष बचा है ।

रण शांत हुआ ,पर हाय , अभी भी 
                      धारा अवसन्न , दरी हुई है ;
नर - नारियों के मुख देश पे नाश की 
                       छाया सी एक पड़ी हुई है ;
धरती, नभ, दोनों विषण्ण उदासी 
                      गंभीर दिशा में  भरी हुई है;
कुछ जान नहीं पड़ता , धरणि यह 
                        जीवित है कि मरी हुई है ।

यह घोर मसान पितामह ! देखिये 
                              प्रेत समृद्धि के आ रहे वे ;
जय - माला पिन्हा कुरुराज को घेर 
                       प्रशस्ति के गीत सुना रहे वे ;
मुरदों के कटे - फटे गात को इंगित 
                            से मुझको दिखला रहे वे ;
सुनिए ये व्यंग निनाद हंसी का 
                          ठठा मुझको ही चिढ़ा रहे वे । 

कहते हैं , युधिष्ठिर , बातें बड़ी बड़ी 
                     साधुता की तू किया करता था ;
उपदेश सभी को सदा तप, त्याग 
                  क्षमा , करुणा का दिया करता था ;
अपना दुख - भाग  पराये के दुख: से 
                        दौड़ के बाँट लिया करता था ;
धन - धाम गंवा कर धर्म हेतु 
                   वनों में जा वास किया करता था ।

वह था सच या उसका छल -पूर्ण 
                      विराग , न प्राप्त जिसे बल था ;
जन में करुणा को जगा निज कृत्य से 
                           जो निज जोड़ रहा दल था ; 
थी सहिष्णुता या तुझमें प्रतिशोध का 
                          दीपक गुप्त रहा जल था ?
वह धर्म था या कि कदर्यता को 
                 ढकने के निमित्त मृषा छल था ?

जन का मन हाथ में आया जभी , 
                     नर -नायक पक्ष में आने लगे 
करुणा तज जाने लगी तुझको 
                     प्रतिकार के भाव सताने लगे ;
तप -त्याग - विभूषण फेंक के पांडव 
                       सत्य स्वरूप दिखाने लगे ;
मंडराने विनाश लगा नभ में 
                   घन युद्ध के आ गहराने लगे ।

अपने दुख और सुयोधन के सुख 
               क्या न सदा तुझको खलते थे ?
कुरुराज का देख प्रताप बता , सच 
                 प्राण क्या तेरे नहीं जलते थे ? 
तप से ढँक  किन्तु , दुरग्नि को पांडव 
                       साधू बने जग को छलते थे ,
मन में थी प्रचंड शिखा प्रतिशोध की
                          बाहर वे कर को मलते थे ।

जब युद्ध में फूट पड़ी यह आग , तो 
                      कौन सा पाप नहीं किया तूने ?
गुरु के वध के हित झूठ कहा 
                  सिर काट समाधि में ही लिया तूने 1 ;
छल से कुरुराज की जांघ को तोड़ 
                          नया रण धर्म  चला दिया तूने 
अरे पापी , मुमुर्ष मनुष्य के वक्ष को 
                              चीर सहास लहू पिया तू ने । 

अपकर्म किए जिसके हित, अंक में
                          आज उसे भरता  नहीं   क्यों है ?
ठुकराता है जीत को क्यों पद से ?
                    अब द्रोपदी से डरता  नहीं क्यों है ?
कुरुराज की भोगी हुई इस सिद्धि को 
                             हर्षित हो वरता नहीं क्यों है ?
कुरुक्षेत्र -विजेता , बता , निज पाँव 
                        सिंहासन पै धरता नहीं क्यों है ? 

1--सात्यकि ने समाधिस्थ भूरिश्रवा का मस्तक काट लिया था ।

क्रमश:



प्रथम सर्ग --        
भाग - १ / भाग –२ 

द्वितीय  सर्ग  --- भाग -- १ / भाग -- २ / भाग -- ३ 


तृतीय सर्ग  ---    भाग -- १ /भाग -२


पंचम सर्ग ----भाग - 1/भाग - 2 / भाग -3



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