सोमवार, 30 अप्रैल 2012

कुरुक्षेत्र .....षष्ठ सर्ग ..... भाग - 2 ...रामधारी सिंह दिनकर


प्रस्तुत भाग में  कवि आज भी आम जीवन में  चलने वाले कुरुक्षेत्र से चिंतित  है ... मानव आज विज्ञान की राह पर चल रहा है उस पर कवि हृदय क्या कह रहा है  इस भाग में  पढ़िये 


हाय रे मानव ! नियति के दास !
हाय रे मनुपुत्र,अपना आप ही उपहास ! 

प्रकृति को प्रच्छन्नता को जीत 
सिंधु से आकाश तक सबको किए भयभीत ;
सृष्टि को निज बुद्धि से करता हुआ परिमेय 
चीरता परमाणु की सत्ता असीम , अजेय ,
बुद्धि के पवमान में उड़ता हुआ असहाय 
जा रहा तू किस दशा की ओर को निरुपाय ? 
लक्ष्य क्या ? उद्देश्य क्या ? क्या अर्थ ?
यह नहीं यदि ज्ञात , तो विज्ञान का श्रम व्यर्थ । 

सुन रहा आकाश चढ़ ग्रह तारकों का नाद ;
एक छोटी बात ही पड़ती न तुझको याद ।

वासना की यमिनी , जिसके तिमिर से हार ,
हो रहा नर भ्रांत अपना आप ही आहार ;
बुद्धि में नभ की सुरभि ,तन में रुधिर की कीच, 
यह वचन से देवता , पर , कर्म से पशु नीच । 

यह मनुज , 
जिसका गगन में जा रहा है यान , 
काँपते जिसके कारों को देख कर परमाणु ।
खोल कर अपना हृदय गिरि , सिंधु , भू , आकाश 
हैं सुना जिसको चुके निज गुह्यतम इतिहास ।
खुल गए पर्दे , रहा अब क्या यहाँ अज्ञेय 
किन्तु , नर को चाहिए नित विघ्न कुछ दुर्जेय ,
सोचने को और करने को नया संघर्ष ,,
नव्य जय का क्षेत्र पाने को नया उत्कर्ष । 

पर धरा सुपरीक्षिता, विशिष्ट ,स्वाद - विहीन ,
यह पढ़ी पोथी न दे सकती प्रवेग नवीन ।
एक लघु हस्तामलक यह भूमि मण्डल गोल , 
मानवों ने पढ़ लिए सब पृष्ठ जिसके खोल ।

किन्तु , नर - प्रज्ञा सदा गतिशालिनी  उद्दाम ,
ले नहीं सकती कहीं रुक एक पल विश्राम ।
यह परीक्षित भूमि , यह पोथी पठित , प्राचीन 
सोचने को दे उसे अब बात कौन नवीन ?
यह लघुग्रह भूमिमंडल , व्योम  यह संकीर्ण , 
चाहिए नर को नया कुछ और जग विस्तीर्ण । 

घुट रही नर-बुद्धि की है सांस ; 
चाहती वह कुछ बड़ा जग , कुछ बड़ा आकाश ।
यह मनुज जिसके लिए लघु हो रहा भूगोल 
अपर-ग्रह-जय  की तृषा जिसमें उठी है बोल ।
यह मनुज विज्ञान में निष्णात ,
जो करेगा , स्यात , मंगल और विधु से बात । 

यह मनुज ब्रह्मांड का सबसे सुरम्य प्रकाश , 
कुछ छिपा सकते न जिससे भूमि या आकाश ।
यह मनुज जिसकी शिखा उद्दाम ;
कर रहे जिसको चराचर भक्तियुक्त प्रणाम । 
यह मनुज , जो सृष्टि का शृंगार ;
ज्ञान का , विज्ञान का , आलोक का आगार ।


क्रमश: 

प्रथम सर्ग --        भाग - १ / भाग –२

द्वितीय  सर्ग  --- भाग -- १ / भाग -- २ / भाग -- ३ 


तृतीय सर्ग  ---    भाग -- १ /भाग -२


चतुर्थ सर्ग ---- भाग -१    / भाग -२  / भाग - ३ /भाग -४ /भाग - ५ /भाग –6 


षष्ठ  सर्ग ---- भाग - 1




7 टिप्‍पणियां:

  1. घुट रही नर-बुद्धि की है सांस ;
    चाहती वह कुछ बड़ा जग,कुछ बड़ा आकाश ।
    यह मनुज जिसके लिए लघु हो रहा भूगोल
    अपर-ग्रह-जय की तृषा जिसमें उठी है बोल ।
    यह मनुज विज्ञान में निष्णात ,
    जो करेग,स्यात, मंगल और विधु से बात ।

    मनुष्य के ज्ञान-बोध पर आधारित दिनकर जी की अपनी मान्यता रही है कि आज मनुष्य के पास ज्ञान का अपरिमित भंडार है एवं प्रकृति की हर चीज को वह एक नया आयाम प्रदान कर सकता है । ज्ञान के कारण भौगोलिक परिसीमाएं एवं बैज्ञानिक अभिज्ञानों में अभिवृद्धि हुई है जिसके बल पर एक दिन मनुष्य प्रकृति पर भी विजय प्राप्त कर सकता है । दिनकर जी की कृति "कुरूक्षेत्र" से बहुत कुछ सीखा जा सकता है । धन्यवाद ।

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  2. कवि का दर्शन अनुपम है..आभार इस सुंदर प्रस्तुति के लिये !

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  3. मनुष कितनी भी तरक़्की कर ले रहेगा प्रकृति का दास ही।

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