सोमवार, 31 अक्टूबर 2011

पुस्तक परिचय - 4 , सोने का पिंजर ... अमेरिका और मैं ...

ajeet gupta

सोने का पिंजर ... अमेरिका और मैं ...
पिछले कुछ दिनों पूर्व मुझे डा० अजीत गुप्ता जी द्वारा लिखी यह पुस्तक पढने को मिली ... पुस्तक को पढते हुए लग रहा था कि सारी घटनाएँ मेरे सामने ही उपस्थित होती जा रही हैं ..यह पुस्तक उन लोगों को दिग्भ्रमित होने से बचाने  में सहायक हो सकती है जो अमेरिका के प्रति भ्रम पाले हुए हैं .निजी अनुभवों पर लिखी यह एक अनूठी  कृति है .
" अपनी बात " में कथाकार लिखती हैं कि उन्हें आठवें विश्व हिंदी सम्मलेन में भाग लेने के लिए अमेरिका जाने का सुअवसर मिला .. उनको देखने से ज्यादा देश को समझने की चाह थी ...रचनाकार के मन में बहुत सारे प्रश्न थे  कि ऐसा क्या है अमेरिका में जो बच्चे वहाँ जा कर वहीं के हो कर रह जाते हैं ..वहाँ का जीवन श्रेष्ठ मानते हैं ..माता पिता के प्रति अपने कर्तव्य को भूल जाते हैं .वो अपनी बात कहते हुए कहती हैं कि --" मैंने कई ऐसी बूढी आँखें भी देखीं हैं जो लगातार इंतज़ार करती हैं , बस इंतज़ार | मैंने ऐसा बुढ़ापा भी देखा है जो छ: माह अमेरिका और छ: माह भारत रहने पर मजबूर है . वो अपना दर्द किसी को बताते नहीं ..पर उनकी बातों से कुछ बातें बाहर निकल कर आती हैं ..


अजीत जी का मानना है कि -- अमेरिका नि: संदेह सुन्दर और विकसित देश है .. वो हमारी प्रेरणा तो बन सकता है पर घर नहीं ..
पुस्तक का प्रारंभ संवादात्मक शैली से हुआ है .. कथाकार सीधे अमेरिका से संवाद कर रही हैं ..जब वो बच्चों के आग्रह पर अमेरिका जाने के लिए तैयार हुयीं तो उनको वीजा नहीं मिला .. उस दर्द को सशक्त शब्दों में उकेरा है ...२००२ अप्रेल माह से जाने की  चाह पूरी हुई जुलाई २००७ में  जब  उनको अवसर मिला विश्व हिंदी सम्मलेन में भाग लेने का तब ही वो अमेरिका जा पायीं ..ज़मीन से जुड़े कथानकों  से यह पुस्तक और रोचक हो गयी है .. महानगर और गाँव की  पृष्ठभूमि को ले कर लिखी घटना सोचने पर बाध्य करती है ..
अमेरिका जिन बूढ़े माँ बाप को वीजा नहीं देता उसे भी सही बताते लेखिका हुए कहती हैं  -- " मेरे देश की  लाखों बूढी आँखों को तुमसे शिकायत नहीं है , बस वे तो अपने भाग्य को ही दोष देते हैं . वे नहीं जान पाते कि गरीब को धनवान ने सपने दिखाए हैं , और उन सपनों में खो गए हैं उनके लाडले पुत्र . मैं समझ नहीं पाती थी कि तुम क्यों नहीं आने देते हो बूढ़े माँ बापों को तुम्हारे देश में ? लेकिन तुम्हारी धरती पर पैर रखने के बाद जाना कि तुम सही थे .क्या करेंगे वे वहाँ जा कर ? एक ऐसे पिंजरे में कैद हो जायेंगे जिसके दरवाज़े खोलने के बाद भी उनके लिए उड़ने के लिए आकाश नहीं है ...तुम ठीक करते हो उन्हें अपनी धरती पर न आने देने में ही समझदारी है . कम से कम वे यहाँ जी तो रहे हैं वहाँ तो जीते जी मर ही जायेंगे ...
इस पुस्तक में बहुत बारीकी से कई मुद्दों को उठाया है ..जैसे सामाजिक सुरक्षा के नाम पर टैक्स वसूल करना ..बूढ़े माता पिता की  सुरक्षा करना वहाँ की  सरकार का काम है .. भारतीयों से भी यह वसूल किया जाता है पर उनके माता पिता को वहाँ बसने की  इजाज़त नहीं है ... वरना सरकार का कितना नुकसान हो जायेगा ...यहाँ माता पिता क़र्ज़ में डूबे हुए अपनी ज़िंदगी बिताते हैं ..
अमेरिका पहुँच कर होटल में कमरा लेने और भोजन के लिए क्या क्या पापड़ बेलने पड़े वो सब विस्मित करता है ..
पूरी पुस्तक  में भारत और अमेरिका को रोचक अंदाज़ में लिखा है ..अमेरिका की अच्छाइयां हैं तो भारत भी बहुत चीजों में आगे है ..
अपने अमेरिका प्रवास  के अनुभवों को बाँटते हुए यही कहने का प्रयास किया है कि हम भारतीय जिस हीन भावना का शिकार हो जाते हैं  ऐसा कुछ नहीं है अमेरिका में ... वो तो व्यापारी है ..जब तक उसे लाभ मिलेगा वो दूसरे देश के वासियों का इस्तेमाल करेगा ..
इस पुस्तक को पढ़ कर  अमेरिका के प्रति  मन में पाले भ्रम काफी हद तक कम हो सकते हैं ..रोचक शैली में लिखी यह पुस्तक मुझे बहुत पसंद आई ..
पुस्तक का नाम -- सोने का पिंजर .. अमेरिका और मैं
लेखिका --  डा० ( श्रीमती ) अजीत गुप्ता
प्रकाशक --- साहित्य चन्द्रिका प्रकाशन , जयपुर
प्रथम संस्करण -  २००९
मूल्य -- 150 / Rs.
ISBN - 978- 81 -7932-009-9

रविवार, 30 अक्टूबर 2011

बापू का एक पाप

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बापू का एक पाप

DSCN1502एक दिन बापू शाम की प्रार्थना सभा में बोलते-बोलते बहुत ही व्यथित हो गए। उन्होंने कहा, “जो ग़लती मुझसे हुई है, वह असाधरण और अक्षम्य है। कई बरस पहले मुझे इसका पता लगा, पर तभी मैंने इस ओर ध्यान नहीं दिया। इस कारण से कई वर्ष नष्ट हो गए। मुझसे बहुत बड़ा पाप हो गया है। अपनी गफ़लत से मैंने अपनी उस ग़लती को देख कर भी नहीं देखा। उससे फ़ायदा नहीं उठाया। दरिद्रनारायण की सेवा का जिसने व्रत ले रखा हो, उससे इस प्रकार की ग़फ़लत और लापरवाही किसी तरह भी नहीं होनी चाहिए। अगर उस दिन ही मैंने यह ग़लती सुधार लिया होता, तो इन बीते सालों में दरिद्रनारायण की जो क्षति उस ग़फ़लत के कारण हुई है, वह न हो पाती।”

सभा में सब लोग सन्न होकर बापू के व्यथित स्वर और आत्मग्लानि से भरे हुए शब्दों को सुन रहे थे। लोगों के मन में यह प्रश्न स्वाभाविक था कि कौन-सी वह बात है जिसके लिए बापू को इतनी लम्बी और कठोर भूमिका बांधनी पड़ रही है। बापू ने कौन-सा ऐसा काम कर डाला कि उसे वे पाप की संज्ञा दे रहे हैं।

बापू ने अपना पाप बताया। लोग रोज़ जो दातून इस्तेमाल करके फेंक देते हैं, उनको भी काम में लाया जा सकता है। यह विचार कुछ साल पहले उनके मन में आया था। पर उस विचार को कार्य रूप में परिणत करना वे भूल गए थे। यह उनकी दृष्टि में अक्षम्य अपराध था। एक भयंकर पाप था! उस दिन अचानक उनका ध्यान उस ओर गया। बापू साधारण से साधारण कामों में यह देखते थे कि किस तरह से कम से कम ख़र्च जो। कैसे अधिक से अधिक बचत हो। ताकि दरिद्र ग्रामवासी उस आदर्श को अपना कर अपनी ग़रीबी का बोझ कुछ कम कर सकें।

उस दिन उन्होंने इस्तेमाल की गई दातून का सदुपयोग करने का आदेश आश्रमवासियों को दिया। उन्होंने बताया कि इस्तेमाल की हुई दातून को धोकर साफ़ कर लिया जाय और फिर उसे धूप में सुखा कर रख दिया जाए। इस तरह सुखाई हुई दातून मज़े में ईंधन के काम आ सकती है।

बापू ने कुछ लोगों के चेहरे पर शंका मिश्रित आश्चर्य को पढ़ लिया। शंका का समाधान करते हुए उन्होंने कहा, “यह सोचना ग़लत है कि फेंकी हुई दातून का ईंधन एकदम नगण्य होगा। यहां के कुछ दिन के ही प्रवास में मेरे और दल के चार-पांच लोगों ने अपनी-अपनी दातूनों को सुखा कर जितना ईंधन इकट्ठा किया था, उसी से मेरे लिए स्नान के लिए एक लोटा पानी गरम हो गया। अब यदि यहां रहने वाले सभी भाई-बहन साल भर की दातून इकट्ठा कर लें तो कुछ दिनों की रसोई पकाने लायक़ ईंधन तो इकट्ठा हो ही जाएगी। और अगर साल में एक दिन के ईंधन की भी इस तरह से बचत हो जाए तो क्या वह कुछ भी नहीं?”

बापू ने आगे कहा, “गांव वाले की ग़रीबी के बोझ को थोड़ा-थोड़ा भी अगर कम किया जाय, बेकार समझ कर फेंक दी जाने वाली चीज़ों का भी अगर सोच-समझ कर कुछ न कुछ उपयोग निकाला जाय, तो धीरे-धीरे उनका बोझ बहुत कम हो जाएगा, और वे कूड़े को भी सोने में बदलने लगेंगे।”

उसी दिन से कुएँ के पास एक बाल्टी टांग दी गई और उसमें सभी लोग अपनी-अपनी इस्तेमाल की गई दातून अच्छी तरह धोकर डाल देते। उसे धूप में सुखा दिया जाता।

शनिवार, 29 अक्टूबर 2011

नहीं रहे “राग दरबारी” शुक्ल

नहीं रहे “राग दरबारी” शुक्ल

मनोज कुमार

यह एक बहुत ही दुखद खबर थी। पद्मभूषण श्रीलाल शुक्ल नहीं रहे!

“रागदरबारी” जैसी कालजयी कृति के रचयिता मशहूर व्यंग्यकार और आज़ादी के बाद भारतीय समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, पाखंड, अंतर्विरोध और विसंगतियों पर गहरा प्रहार करने वाले समाज के वंचितों और हाशिए के लोगों को न्याय दिलाने के पक्षधर लेखक श्रीलाल शुक्ल ने कल शुक्रवार, 28 अक्तूबर को 11.30 बजे लखनऊ के सहारा अस्पताल में अंतिम सांसें ली। वे 86 वर्ष के थे।

31 दिसम्बर 1925 को लखनऊ के अतरौली गांव में जन्मे श्रीलाल शुक्ल पिछले दो वर्ष से बीमार चल रहे थे। पिछले दिनों अमरकान्त के साथ उन्हें भी संयुक्त रूप से 45वें ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए चुना गया। वे इतने बीमार थे कि ज्ञानपीठ पुरस्कार देने के लिए उत्तर प्रदेश के राज्यपाल श्री बी.एल. जोशी अस्पताल गये और उन्हें सम्मानित किया। 2008 में उन्हें पद्मभूषण से नवाज़ा गया था।

उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1947 में स्नातक की उपाधि ग्रहण की और 1949 में राज्य सिविल सेवा में नौकरी ग्रहण की थी। 1983 में उन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा से अवकाश ग्रहण किया। “रागदरबारी” के लिए उन्हें 1969 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। वे अकादमी पुरस्कार प्राप्त करने वाले हिन्दी के सबसे कम उम्र के लेखक हैं। इस पुस्तक का अब तक 16 भाषाओं में अनुवाद हो चुका था। “विश्रामपुर का संत” के लिए उन्हें व्यास सम्मान से सम्मानित किया गया। इसके अलावे उन्हें लोहिया सम्मान, यश भारती सम्मान, मैथिली शरण गुप्त पुरस्कार, और शरद जोशी सम्मान भी मिला है।

उनका पहला उपन्यास 1957 में “सूनी घाटी का सूरज” छपा था। पहला व्यंग्य संग्रह “अंगद का पांव” 1958 में छपा था। “रागदरबारी” 1967 में छपा था। उनकी अन्य प्रसिद्ध कृतियां हैं – जहालत के पचास साल, खबरों की जुगाली, अगली शताब्दी का सहर, यह घर मेरा नहीं, उमराव नगर में कुछ दिन, आदि।

उनकी रचनाओं में भारत का सच्चा रूप दिखता है। गांव और शहर के बीच के संबंध पर तस्वीर खींचने वाले और ग्रामीण परिवेश की रोमानी अवधारणा को ध्वस्त करने वाले शुक्ल जी का निधन हिन्दी साहित्य के लिए अपूरनीय क्षति है।

शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2011

पुस्तक परिचय-3 धरती धन न अपना

पुस्तक परिचय-3

धरती धन न अपना

IMG_0130_thumb[1]मनोज कुमार

इस सप्ताह एक उपन्यास पढा, “धरती धन न अपना”। इस में उपन्यासकार जगदीश चन्द्र ने पंजाब के दोआब क्षेत्र के दलितों के जीवन की त्रासदी, उत्पीड़न, शोषण, अपमान व वेदना को बड़े ही प्रभावकारी ढंग से चित्रित किया है। उन्होंने दलितों की दयनीय व हीन दशा के लिए जिम्मेदार भारतीय जाति व्यास्था, हिन्दू धर्म व्यवस्था और जन्म-कर्म सिद्धांत के आधारभूत तथ्यों को भी उजागर किया है।

शोषित वर्गों के ऊपर अनेक उपन्यास हिन्दी साहित्य में रचे गए हैं। इन्हीं शोषितों में चमार भी एक जाति है। उनके जीवन को आधार बनाकर संभवतः पहला उपन्यास जगदीश चन्द्र ने लिखा है। जन्म के आधार पर अछूत करार दी गई जातियों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सरोकारों को इस उपन्यास के द्वारा एक विस्तृत पटल पर चित्रित करके भारतीय हिन्दू धर्म मूल्य व नीति मूल्यों की आलोचना भी की गई है। एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान को कुछ धार्मिक किताबों के आधार पर इंसान के दर्ज़े से गिरा देना और उसके मूलभूत अधिकारों को नकार कर पशुवत जीवन के लिए मज़बूर कर देना, और कुछ नहीं बल्कि मानवीय अद्यःपतन है।

इस उपन्यास में कथित चमार जाति के शोषण की त्रासदी को प्रामाणिकता के साथ चित्रित किया गया है। ‘काली’ इस उपन्यास का प्रमुख चरित्र नायक गांव की अभाव ग्रस्त ज़िन्दगी और भूख की त्रासदी से हारकर शहर की ओर भागता है। लेकिन अपनों का मोह और गांव का आकर्षण उसे छह वर्षों के बाद फिर से उसी गांव में खींच लाता है। यहां आकर वह अपना घर बनाना चाहता है। अच्छी ज़िन्दगी जीना चाहता है। ज्ञानो से प्रेम करता है। उसके साथ घर बसाने के सपने पालता है। शहर में रहते हुए तो कुछ सीमा तक उसे समानता और स्वतंत्रता के अनुभव हुए थे। इसके कारण उसकी चेतना विस्तरित हुई। लेकिन उस चेतना को गांव वापस आने पर धक्का लगता है। गांव का माहौल पहले जैसा ही है। गांव अब भी जातिवादी और सामंतवादी प्रवृत्तियों को ढो रहा है। काली का अपनी स्थिति से ऊपर उठने का हर प्रयास सवर्णों को उनके ख़िलाफ़ एक चुनौति लगने लगती है। विकास और प्रगति की ओर उठा उसका हर क़दम जातिवादी, सामंतवादी शोषकों द्वारा रोक दिया जाता है। यहां तक की उसकी अपनी जाति के लोग भी चौधरियों के मोहरे बन उसके राह में खड़े हो जाते हैं। हारकर काली अपनी प्रियतमा ज्ञानो की मृत्यु का दुख झेलकर शहर की ओर फिर पलायन करता है।

जातिगत विभाजन के कारण ये लोग चमादड़ी में रहते हैं और बहिष्कृतों का जीवन जीते हैं। उनका जीवन नर्क से भी बदतर है। चमादड़ी में केवल अभाव, दरिद्रता, अशिक्षा, अंधविश्वास और असुरक्षा का ही साम्राज्य है। जाति श्रेष्ठता के आधार पर स्वर्ण समाज को सबकुछ हासिल है लेकिन उसने कभी इसे बांटने की संस्कृति का निर्माण ही नहीं किया। वे तो दलितों को दास बनाकर रखते हैं। उनका शोषण करते हैं। हर चीज़ से वंचित यह समुदाय सदियों से इसी स्थिति में जीने का आदी रहा है। उसके द्वारा प्रतिकार या विरोध का स्वर भी कभी नहीं उभरा। वह इसे नियति मानकर चुप रहा।

काली, ज्ञानो जैसे पात्रों द्वारा जब कभी इन समुदाय में अपनी अस्तित्व की चेतना का अंकुर जन्म लेता है, तो परंपरावादी सवर्ण समाज शास्त्र ग्रंथों और अन्य साधनों के साथ इस अंकुर को कुचल कर नष्ट कर देता है, ताकि कल को यह हुंकार ही कहीं उनके अस्तित्व के लिए चुनौति न बन जाए।

जब कोई इंसान सारी ज़िन्दगी किसी की ग़ुलामी करते रहने को विवश हो और उसका जीवन हमेशा अभाव से ही ग्रस्त रहे तो विद्रोह का स्वर फूटना तो लाजिमी ही है। काली और ज्ञानो, उपन्यास के प्रमुख पात्रों में अपने अस्तित्व बोध की चेतना है। वे समाज, परिवार और खुद के प्रति अन्याय और शोषण वे बर्दाश्त नहीं कर पाते और जब-तब उनके विरोध का स्वर सुनाई देता है। किन्तु सवर्ण को यह सहा नहीं जाता और इस चेतना को नष्ट करने की सारी कुचालें चली जाती हैं। उनका खुद का दलित समुदाय ही भी अपनी अज्ञानता और अंधविश्वास के कारण उनकी इस उभरती चेतना के नष्ट कर देने का कारण बनता है। जिसकी परिणति ज्ञानो की हत्या, और वह भी अपनी मां और भाई द्वारा, और काली के गांव से पलायन के रूप में होती है। इस परिणति से साबित हो जाता है कि सत्ताधारी वर्ग किसी भी चुनौतिपूर्ण अहसास को झेलने से पहले ही उसके अहसास को ही ध्वस्त कर देने में सक्षम है। इस घटना पर यदि गंभीर चिंतन करें तो यह तो बिलकुल स्पष्ट है कि मानवता को शर्मसार करने वाली संस्कृति और इस तरह की सोच हमारे इर्द-गिर्द ही मौज़ूद है।

इस उपन्यास में भारतीय जाति-व्यवस्था के पीछे छुपे निहित स्वार्थ और षडयंत्र को भी उजागर किया गया है। इंसानों को जातियों के कटघरे में बांटकर किसी एक जाति या वर्ण की श्रेष्ठता को बनाए रखने के प्रयासों की तल्ख़ सच्चाई को सामने लाया गया है। जाति प्रथा को बनाए रखने और निम्न मानी गई जातियों का आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक शोषण करने की एक नीति का एक हिस्सा के रूप में उन्हें न सिर्फ़ सम्पत्ति, सत्ता, शिक्षा और नैसर्गिक सम्पदा के अधिकारों से वंचित रखा जाता है बल्कि सवर्णों के कुएं से पानी तक नहीं लेने दिया जाता। धर्म व परंपराओं की अमानवीय रूढ़ियों का पालन करने वाले सवर्ण दलितों को आर्थिक व सामाजिक अधिकारों से वंचित रखकर अपनी सत्ता को बनाए रखते हैं।

दलित स्त्रियां सवर्ण पुरुषों द्वारा यौन शोषण का शिकार होती हैं। वे आर्थिक रूप से इन्हीं सवर्णों पर निर्भर हैं। हर समय वह असुरक्षित स्थितियों में काम करने को बाध्य हैं। दलित स्त्रियों के यौन शोषण द्वारा चौधरी वर्ग न केवल आनी यौन विकृतियों की तुष्टि करता है बल्कि इससे भी बढ़कर दलित आत्म-सम्मान को कुचलकर उसे मानसिक रूप से पंगु बनाकर अपनी यंत्रणा का वर्चस्व भी स्थापित करता है।

ज़मीन के किसी टुकड़े पर उनका अधिकार नहीं है, यहां तक कि ‘चमादड़ी’ भी गांव की साझी ज़मीन है। बेगारी करने से मना करने पर उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है। इन तमाम यंत्रणाओं और यौन शोषण का प्रमुख कारण उनकी सामाजिक, आर्थिक स्थिति ही पूर्ण रूप से उत्तरदायी है। इसके साथ-साथ उनके अंदर चेतना का अभाव एवं परस्पर फूट भी कुछ हद तक इसे प्रभावित करता है। दलित समाज इन्हीं अंतर्विरोधों के बीच जीने को बाध्य है। जातिगत भेदभाव और अत्याचार के विरोध में दलित समाज संगठित होकर संघर्ष तो करना चाहता है लेकिन इसके लिए दिशादर्शी विचारधारा और दर्शन के अभाव में भटक जाता है। अपना संघर्ष अधूरा छोड़ कर उसे समझौता करना पड़ता है। यह पराजय उन्हें कचोटती नहीं। यह एक तल्ख़ हक़ीक़त है।

उपन्यास में कुछ ऐसे चरित्र भी हैं जो प्रतीक चरित्र हैं, जैसे डॉक्टर बिशन दास किसी कम्यूनिस्ट का चरित्र है, जो हवाई क्रान्ति के सपने लेता रहता है। जबकि पंडित सन्तराम धार्मिक पाखण्ड व दम्भ के प्रतीक का चरित्र है। वह पाखण्ड भरी बातें तो करता है लेकिन मुसीबत के समय किसी की सहायता नहीं करता। चौधरी हरनाम सिंह प्रतिनिधि चरित्र है जो चमारों पर धौंस जमाना, उनसे बेगार लेना अपना हक़ समझता है।

काली और ज्ञानो दोनों ही उपन्यास में प्रतिनिधि चरित्र हैं। ये दलित वर्ग की आगे बढ़ती हुई संघर्षशील चेतना के प्रतिनिधि चरित्र हैं। लेकिन उनकी तत्कालीन परिस्थितियां ही उनकी नियति की निर्णायक हैं। उन परिस्थितियों में उनका दुखद अंत उनकी नियति है। काली अपनी अन्तिम परिणति में दुखान्त चरित्र है। जीवन में वह अपनी समस्याएं हल नहीं कर पाता। अपने प्रेम की पवित्रता में वह हीर-रांझा से कम नहीं है। सामाजिक अत्याचार के ख़िलाफ़ और प्रेम की सच्चाई के लिए वह ख़ुद का बलिदान कर देता है। ज्ञानो काली से दृढ़ चरित्र है। अपने इरादों की पक्की लड़की है वह। ज्ञानो के दुखान्त के रूप में जगदीश चन्द्र ने सामन्ती मूल्यों वाले समाज में भारतीय नारी के दुखान्त को ही बड़े स्तर पर अभिव्यक्ति दी है। ज्ञानो और काली का दुखान्त चौधरियों के कारण नहीं, वरन चमार समाज के अपने सांस्कृतिक ढांचे के कारण है। दलित समाज का सांस्कृतिक ढांचा भी भीतर से दमनात्मक है। इस सांस्कृतिक दमन का शिकार बनते हैं, उस समाज के सबसे अच्छे लोग, यानि ज्ञानो और काली। किन्तु यह तो मानना ही पड़ेगा कि यह दमनात्मक सांस्कृतिक ढांचा समाज के व्यापक दमनात्मक ढांचे का हिस्सा ही है।

भारतीय समाज-व्यवस्था की तल्ख़ सच्चाइयों और विचारधारात्मक मतभेदों को बहुत ही संवेदनशीलता से उजागर करने के कारण ‘धरती धन न अपना’ में वेदना की अभिव्यक्ति मर्मस्पशी ढंग से हुई है। उपन्यास में जहां एक ओर वेदना की आत्माभिव्यक्ति है तो वहीं दूसरी ओर इस वेदना के कारणों की पड़ताल भी है। यह पड़ताल काफ़ी समझ-बूझ से की गई है। उपन्यास की कथा संगुम्फित और सुगठित है। कथा को रोचक बनाने वाली नाटकीय स्थितियों और कसाव के कारण यह उपन्यास एक सांस में पठनीय है। गैर दलित होकर भी जगदीश चन्द्र द्वारा लिखा गया यह उपन्यास दलित वर्ग का जीवन्त, मार्मिक और प्रामाणिक दस्तावेज़ है और जब तक दलितों का जीवन स्तर सुधर नहीं जाता यह उपन्यास हमें उनकी दशा की ओर ध्यान दिलाता रहेगा।

पुस्‍तक का नाम धरती धन न अपना (उपन्यास)

लेखक : जगदीश चन्द्र

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली

पहला संस्‍करण : 1972 (पुस्तकालय संस्करण)

संस्करण : 2007, 2009

मूल्‍य : 125 रु.  (पेपरबैक्स में)

बुधवार, 26 अक्टूबर 2011

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास बाजपेई

अंक-6

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास बाजपे

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में हमने देखा कि किस प्रकार आचार्य ने किस प्रकार नागा साधुओं के विरूद्ध आन्दोलन शुरू किया और बाद में किन परिस्थितियों में उन्हें उसे वापस लेना पड़ा। मेला निर्विघ्न समाप्त हो गया।

उन दिनों हरिद्वार म्यूनिसिपलिटी बोर्ड के चेयरमैन सरकारी अधिकारी होते थे। लेकिन तत्कालीन कांग्रेसी मंत्रिमंडल ने निर्णय लिया कि इस बोर्ड का चेयरमैन गैर सरकारी हो और हरिद्वार के तीर्थ पुरोहित सरदार पं0 राम रक्खा शर्मा बोर्ड के चेयरमैन निर्वाचित हुए। शर्मा जी ने घूसखोरी आदि बुराइयों को हटाने के लिए पदभार ग्रहण करते ही एक परिपत्र छपवाकर वितरित करवा दिया।

आचार्य जी ने भी देखा कि इन बुराइयों को दूर करने का यह अच्छा अवसर है। अतएव इन्होंने एक छोटे से स्थानीय साप्ताहिक पत्र क्रांति का प्रकाशन शुरू किया। ये स्वयं बोर्ड के हाईस्कूल के अध्यापक थे, अतएव सम्पादक पं0 कल्याणदत्त शर्मा को बनाकर सारा काम स्वयं किया करते थे। क्रांति से घूसखोर अधिकारियों और सदस्यों में तिलमिलाहट शुरू हो गयी। चेयरमैन साहब ने आचार्य जी को बुलाकर समझाया, तब तक बहुत कुछ हो चुका था। इसके परिणामस्वरूप आचार्य जी को अवज्ञा के आरोप में अपनी नौकरी गँवानी पड़ी। अपने निष्कासन के विरुद्ध इन्होंने अपील की, जो नियमानुसार अग्रसारित कर दी गई।

इसी संदर्भ में आचार्य जी स्वायत्तशासन की तत्कालीन मंत्री सुश्री विजयलक्ष्मी पंडित से मिले। दोनों के बीच हुई बातचीत को आचार्य जी की भाषा में उनके ग्रंथ साहित्यिक जीवन के अनुभव और संस्मरण से साभार यहाँ यथावत दिया जा रहा है -

''कहिए, क्या बात है?''

''मैं हरिद्वार म्यूनि. बोर्ड के हाई स्कूल में अध्यापक था। बोर्ड में साधुओं का तथा तीर्थ पुरोहितों का जोर है। मैंने कुछ समाज-सुधार के काम नहीं किए; इससे वे लोग नाराज हो गए और मुझे नौकरी से अलग कर दिया।''

-- ''तो आप समाज-सुधार के काम करते हैं, या बच्चों को पढ़ाते हैं?''

''बच्चों को तो पढ़ाता ही हूँ और इस काम में 99% सफलता परीक्षा-परिणाम बता देते हैं; पर अपने बचे हुए समय का उपयोग टयूशन आदि में न करके कुछ समाज सुधार के कामों में लगाता हूँ।''

''आप समाज-सुधार के काम करते ही क्यों हैं? किस ने कहा है?''

''आप ही लोग वैसा कहते हैं कि अध्यापकों को समाज सुधार के कामों में मदद करनी चाहिए।

'' मैंने कब वैसा कहा है?''

''आप ने तो नहीं, पर पं. जवाहर लाल नेहरू ने तो सैकड़ों बार वैसा कहा है।''

'' तो फिर उन्हीं के पास जाइए।''

'' उनके ही पास पहुँचता, यदि वे प्रान्त के स्वायत्त-शासन-मंत्री होते।''

'' अच्छा, तो कहिए, क्या काम आपने समाज-सुधार के किए?''

'' हरिजन-अभ्युत्थान आदि के काम करता रहता हूँ और सबसे बड़ा काम पिछले हरिद्वार-कुम्भ मेले पर नागा साधुओं के बारे में आन्दोलन किया वे एकदम दिगम्बर होकर निकला करें, कम-से-कम एक लंगोटी तो जरूर लगाए रहा करें।''

'' ऐसा आपने क्या समझ कर किया?''

''यह समझ कर कि हमारी नागरिक व्यवस्था के विपरीत वैसा प्रदर्शन पड़ता है और लोग उसे अच्छा नहीं समझते हैं।''

''आप ने यह कैसे समझा कि नागा साधुओं के उस प्रदर्शन को लोग अच्छा नहीं समझते?''

आचार्य जी लिखते हैं कि पं.नेहरू की बहिन के मुख से इस तरह की बातें सुनकर मैं जल-भुन गया और आँखें नीची कर अत्यन्त गम्भीरता से निवेदन किया -

'' मैंने पुरुष-वर्ग के तो सहस्त्रों व्यक्तियों से चर्चा की, सबने इससे असन्तोष प्रकट किया। टण्डन जी ने तथा नेहरू जी ने भी वैसा ही कहा; परन्तु मैंने स्त्रियों से नहीं पूछा कि वे उसे कैसा समझती हैं! हाँ, मेरी स्त्री तो वैसे प्रदर्शन को ठीक नहीं समझती है।''

यह सुनते ही श्रीमती पण्डित का गौरवपूर्ण बदन क्रोध से एकदम लाल हो गया और बोलीं-

'' आपसे मेरी कतई सहानुभूति नहीं है और आपको हर्गिज बहाल न किया जाएगा।''

इसके बाद आचार्य जी नमस्ते बोलकर चल दिए और सीधे राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन के घर पहुँचे, उनसे पूरी बातें बताईँ। टंडन जी उन दिनों अस्वस्थ थे और जलवायु परिवर्तन कर पुरी से लौटे थे। फिर भी उन्होंने अपने सेक्रेटरी से पार्लियामेन्टरी सचिव श्री खेर को तुरन्त फोन लगाने के लिए कहा। फोन पर अन्य बातें करने के बाद उन्होंने पूछा कि आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का कोई केस आया है। उन्होंने आचार्य जी और मंत्री महोदया के बीच हुई सारी बातों का ब्यौरा दिया और बताया कि चेयरमैन, कमिश्नर और गवर्नमेंट सेक्रेटरी ने भी बुरा ही लिखा है। टंडन जी ने उनसे कहा कि हो सकता है विजयलक्ष्मी जी ने यह सब हँसी में कहा हो और वाजपेयी जी संस्कृत के पंडित होने के कारण समझ न सके हों। अतएव इस मामले की विधिवत जाँच की जाए, क्योंकि यह राष्ट्रीयता का सवाल है। इतनी बात करके टंडन जी ने आचार्य वाजपेयी से कहा कि वे इधर-उधर न भटकें और सीधे हरिद्वार चले जाएँ।

आचार्य जी जबतक हरिद्वार पहुँचे तबतक हाई कमान का आदेश आ गया कि आवश्यक काम निपटाकर कांग्रेसी मंत्रिमंडलों को अपने त्यागपत्र सौंप दें। जरूरी कामों में आचार्य जी के केस का भी निपटारा हुआ और निर्णय उनके पक्ष में गया। परिणामस्वरूप उन्होंने फिर अपना कार्यभार सँभाला। साथ ही उन्हे दस महीने का वेतन भी मिला। क्योंकि अपील का निपटारा होते-होते दस महीने लग गये थे।

अब आचार्य जी को काफी धन मिल गया था। अतएव उन्होंने नीलामी में एक छोटा प्रेस खरीदा। इसमें उन्हें डेढ़ सौ रुपये ऋण भी लेने पड़े। प्रेस की मालकिन अपनी पत्नी को बनाया। हालाँकि प्रेस चलाने के अनुभव के अभाव में आचार्य जी उसे बहुत दिनों तक अपने पास न रख सके। प्रेस के कामों की जानकारी का अभाव, कर्मचारियों एवं काम की देखरेख न होने से घाटे तथा अंग्रेजी सरकार से तंग आकर उन्होंने उसे बेच दिया। वे लिखते हैं कि अनुभव न हो तो प्रेस प्रेत बनकर खाने लगता है। इसमें इनके मैनेजर पं. कल्याणदत्त शर्मा ने इन्हें धोखा दिया। इसी बीच आचार्य जी को नौकरी से फिर हाथ धोना पड़ा। प्रेस बेचने से जो कुछ मिला उसी से दाल-रोटी चलती रही।

इस बीच आचार्य जी ने अपने प्रेस में अपनी दो पुस्तकें - द्वापर की क्रांति (नाटक) और लेखन-कला छापीं। वैसे द्वापर की क्रांति गंगा पुस्तक माला से सुदामा नाम से पहले ही छप चुकी थी। जिसके विषय में डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने पुस्तक-साहित्य नामक विवरण में लिखा कि द्वारकावासी कृष्ण को लेकर केवल एक कलात्मक रचना इस काल में मिलती है, वह है पं. किशोरीदास वाजपेयी कृत सुदामालेखन-कला हिन्दी परिष्कार पर लिखी पहली पुस्तक है, जिससे प्रेरित होकर डॉ. रामचन्द्र वर्मा ने अच्छी हिन्दी नामक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी। आचार्य जी ने पुनः अपनी पुस्तक लेखन-कला में संशोधन कर अच्छी हिन्दी का नमूना लिखी।

इस अंक में बस इतना ही।

सभी पाठकों और टीम के सभी सदस्यों को दीपावली की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ।

मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

आग की भीख

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कवितादिनकर

आग की भीख


धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ-सा।
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है,
मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज़ रो रहा है?

दाता, पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे,
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।
प्यारे स्वदेश के हित अंगार माँगता हूँ।
चढ़ती जवानियों का शृंगार माँगता हूँ।

बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,
कोई नही बताता, किश्ती किधर चली है?
मँझधार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?

आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।
तम वेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ।
ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ।

आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है,
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ ढेर हो रहा है,
है रो रही जवानी, अंधेर हो रहा है।

निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है,
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है।
पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ।
जड़ता विनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ।

मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है,
अरमान आरजू की लाशें निकल रही है।
भीगी खुली पलकों में रातें गुजारते हैं,
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं,

इनके लिए कहीं से निर्भीक तेज ला दे,
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे।
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ।
विस्फोट माँगता हूँ, तूफ़ान माँगता हूँ।

आँसू भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,
मेरे शमशान में आ शृंगी ज़रा बजा दे।
फिर एक तीर सीनों के आरपार कर दे,
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे।

आमर्ष को जगाने वाली शिखा नई दे,
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे।
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ।
बेचैन ज़िन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ।

ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,
जो राह हो हमारी उस पर दिया जला दे।
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे,
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे।

हम दे चुके लहू हैं, तू देवता विभा दे,
अपने अनल विशिख से आकाश जगमगा दे।
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ।
तेरी दया विपद में भगवान माँगता हूँ।

सोमवार, 24 अक्टूबर 2011

जला कर तो देखो …


आस्था का तेल 
और दिल की बाती
यही है सच ही में
मुहब्बत की थाती
स्नेह पगे  फ़ूल
खिला कर तो देखो
मुहब्बत का दिया
जला कर तो देखो .
 
बाती से मिले बाती
तो हो रोशनी प्रज्ज्वलित
अपेक्षाएं हों  सीमित
तो प्रेम हो विस्तृत
समर्पण को ज़रा
विस्तार दे के देखो
मुहब्बत का दिया
जला कर तो देखो .
 
ऐसे दीयों की जब
सजी हो दीपमाला
हर दीप होगा अमर
नहीं चाहिए होगी हाला
नशे में इसके  खुद को
डुबा कर तो देखो
मुहब्बत का दिया
जला कर तो देखो ..

दीपावली की शुभकामनायें

रविवार, 23 अक्टूबर 2011

फूलहार से स्वागत

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फूलहार से स्वागत

प्रस्तुत कर्ता : मनोज कुमार

DSCN1319बात आज़ादी मिलने के कुछ महीने पहले की है। बापू नोआखाली के गांवों का दौरा कर रहे थे। जब वे देवीपुर पहुंचे तो गांव के लोगों ने उनके स्वागत के लिए खूब सजावट कर रखी थी। उसमें डेढ़-दो सौ रुपयों का ख़र्चा हुआ होगा। लोगों ने खास चांदपुर से फूल-ज़री, रेशम की पट्टियां, लाल-पीले-हरे काग़ज़ आदि से गांव को सजाया था। इसके अलावा उन्होंने तेल के दीये भी जलाये थे।

यह सब देख कर बापू काफ़ी गंभीर हो गए। वहां के मुख्य कार्यकर्ता को उन्होंने बुलवाया। उससे पूछे, “इस सजावट के लिए तुम पैसा कहां से लाए?”

कार्यकर्ता ने जवाब दिया, “आपके चरण हमारी धरती पर कहां बार-बार पड़ते हैं? इसलिए हम हिन्दुओं में से हरेक ने आठ-आठ आने दिये, और जो दे सकता था उससे ज़्यादा भी दिये। इस तरह क़रीब तीन सौ रुपये इकट्ठे किये गए। उसी से हम इन चीज़ों को ख़रीद कर लाये।”

यह सुनकर बापू को और भी चिढ़ हुई। उन्होंने कहा, “तुम्हारी की हुई यह सजावट कुछ ही देर में कुम्हला जायेगी। इससे तो मुझे यही लगता है कि तुम सब मुझे धोखा दे रहे हो। और मेरी हिम्मत पर यह सब ठाटबाट कर के तुम क़ौमी झगड़े को और भी बढ़ावा दे रहे हो। क्या तुम नहीं जानते कि मैं तो इस समय आग की लपलपाती ज्वाला से घिरा हुआ हूं?

“तुम लोगों ने जितने फूलों के हार पहनाए हैं, उनके बजाय यदि उतने ही सूत के हार पहनाते तो मुझे रंज न होता। क्योंकि सूत के हारों से सजावट भी होती है और बाद में वे कपड़े बनाने के काम आते हैं, वे फ़िज़ूल नहीं जाते।

“मुझे लगता है इस गांव में पैसे बहुत हैं! नहीं तो ऐसे मुश्किल की घड़ी में यों हार-तोरण लगाना तुम्हें नहीं सूझता। अगर तुम लोगों ने मेरे प्रति अपना प्रेम दिखाने के लिए यह सब किया है, तो यह ग़लत है। इससे ज़रा भी प्रेम प्रकट नहीं होता। इस सजावट में विलायती मिलों का रेशम और रिवन वगैरा कैसे लगाया तुम लोगों ने? मेरी दृष्टि में यह सब दुखदायी है। न जाने मुझे क्या-क्या देखना बदा है!”

बेचारे कार्यकर्ता को क्या पता था कि बापू को इतना दुख होगा। वे वहां से गए और आधे घंटे में सब सजावट निकाल डाली। जो-जो चीज़ें काम में ली जा सकती थीं वे ले ली गईं। हारों में जितना तागा काम में लिया गया था, बापू ने सबका एक बंडल बनाने के लिए कहा। वह बंडल काफ़ी बड़ा था। वह लोगों को सीने के काम में लेने के लिए दिया। उस बंडल में क़रीब 15-20 रील तागा था। अगर बापू इतना न कहते, तो इतना तागा बेकार चला जाता। उसके बाद गावों में हमेशा हाथ कते सूत के हारों से बापू का स्वागत किया जाता रहा। वह सूत क़रीब पांच थानों का इकट्ठा हुआ था। उसका कपड़ा बुनवाकर ग़रीबों में बांट दिया गया।

बापू ग़रीबों के ऐसे संगी थे!

दूर दुनिया क्या कहेगी


आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की कविताएं-3

दूर दुनिया क्या कहेगी

 


रेत  पर जो  लिख रहा मैं,
धार    उसको  मेट  देगी !
फिर किनारे पर खड़ी दुनिया,
कहो   तो,   क्या  कहेगी?

झुक गया भ्रम में न फूला
रुक गया पर पथ न भूला
यह  कहानी  जो  वही  मेरी  निशानी क्या रहेगी?
धार पर आंखें गड़ा, दुनिया, कहो फिर क्या कहेगी?

सजल  बादल बन न पाया
मैं गगन से छन न पाया,
अश्रुःफुहियों  के लिए क्या  भूमि लू-लपटें  सहेगी?
बाद बादल के जली बिजली कड़क कर क्या कहेगी?

दर्द यह चुप लिख रहा मैं,
गर्द में  क्या दिख रहा मैं!
यह कसक बन गान तेरे प्राण में लुक-छुप रहेगी?
मैं  सुनूंगा  ही नहीं फिर,  दूर दुनिया क्या कहेगी!

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शनिवार, 22 अक्टूबर 2011

नुक्कड़ नाटक

नाटक साहित्य

नुक्कड़ नाटक

मनोज कुमार

आज़ादी के बाद जनवादी मंच शिथिल पड़ने लगा। जन नाट्य मंच के रंग-निर्देशक उत्पल दत्त, बलराज साहनी आदि और रंगकर्मी एवं अभिनेता फ़िल्मों में चले गए। इसके परिणामस्वरूप 1960 तक जन नाट्य मंच के रंगमंचीय सांस्कृतिक क्रियाकलाप बंद हो गए। लेकिन जन नाट्य मंच ने जो सामाजिक न्याय की चेतना जगाई थी, वह समाजवादी राजनीतिक संगठनों के विकास के नये-नये रूपों में प्रकट होती रही। देश में भुखमरी, ग़रीबी, शोषण और अन्याय के खिलाफ़ जनता में असंतोष तो था ही विद्रोह के स्वर भी मुखरित होते रहे। हड़ताल और प्रदर्शन भी होता था। इसी चेतना के परिप्रेक्ष्य में बीसवीं सदी के सातवें दशक में नुक्कड़ नाटकों का नया रंग-प्रयोग शुरु हुआ।

शिक्षित-अशिक्षित जनता को जगाने-झकझोरने और सोचने-समझने के लिए नुक्कड़ नाटकों की भूमिका काफ़ी सराहनीय रही। परंपरागत रंगमंचीय प्रस्तुतियों से अलग नुक्कड़ नाटक एक नया रंग प्रयोग था। इस शैली के नाट्य प्रदर्शन के लिए किसी प्रेक्षागृह की ज़रूरत नहीं थी। किसी प्रकार की साज की भी आवश्यकता नहीं थी। रोज़मर्रा की स्थानीय ज़िन्दगी की विडंबनाओं, विसंगतियों और अंतर्विरोधों को सामने रखना इस तरह के नाटकों का लक्ष्य था। अभिनय में शरीक़ होने वाले पात्र जिस वेश में होते उसी वेश में अभिनय में भाग लेते। उनका रंगमंच तो झुग्गी-झोंपड़ी के बीच कोई ख़ाली जगह, क़स्बा या नगर का कोई नुक्कड़ या चौराहा या गांव की चौपाल, स्कूल का मैदान या कॉलेज का लॉन कुछ भी हो जाता था। नुक्कड़ नाटक मंडली के किसी एक अभिनेता की आवाज़ या पुकार पर भीड़ इकट्ठी हो जाती, दर्शक एक घेरा बना देते। नाटक शुरु हो जाता। दर्शकों से घिरा कोई पात्र संवाद शुरु करता। लोगों को लगता अरे! यह तो मेरे बीच का ही कोई पात्र है। वे यह भी महसूस करते कि यह तो हमें भी साझेदारी के लिए यह उत्साहित करता है। दर्शक भीड़े में आते-जाते रहते हैं। इस तरह परंपरागत रंगमंचीय साधन-प्रसाधन और किसी भी साज-सज्जा के बगैर खुले स्थान में सम्पन्न होने वाला नाट्य व्यापार नुक्कड़ नाटक काफ़ी प्रसिद्ध हुआ।

नुक्कड़ नाटक में किसी स्थानीय मुद्दे को लक्ष्य कर नाटक रचे जाते हैं। साथ ही उसे वे व्यापक सामाजिक-राजनीतिक विडम्बनाओं और विसंगतियों पर कटाक्ष करने का आधार बनाते हैं। समसामयिक जीवन की अनुचित अमानवीय और अन्यायपूर्ण घटना को नुक्क्ड़ नाटक के नाटककार केन्द्र बनाकर उस पर कटाक्ष भरी टिप्पणी करते हैं। भाषा हास्य-व्यंग्य की रहने एक नई मानवीय सोच जगाने में क़ामयाबी के साथ-साथ उससे लोगों का मनोरंजन भी होता है। हम देखते हैं कि रोज़ ही कुछ न कुछ बेतुका घटित होते रहता है। कहीं धार्मिक अंधविश्वास के कारण तो कहीं राजनीतिक दाँव-पेच के कारण, कहीं आर्थिक घोटाला तो कहीं अमानुषिक अत्याचार। ये हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं। इसी यथार्थ को नाटकीय ढ़ंग से नाट्यधर्मी प्रस्तुत करते हैं। नुक्कड़ नाटक में जाति-पांति, ऊंच-नीच, सांप्रदायिकता, दहेज, भ्रष्टाचार और हर तरह के शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई गई।

शिल्प का आधार तो लोक नाट्यों की नृत्य गान प्रधान ही होती है, लेकिन उसमें आलोचनात्मक टिप्पणी प्रधान संवाद रहने से इसमें एक नया आयाम जुड़ जाता है। इसे ब्रेख्ट की नाट्य़ प्रदर्शन शैली से लिया गया है। यही इसकी शैली का एक मौलिक पक्ष भी है। सामूहिक गीत की शैली में सामाजिक-राजनीतिक व्यस्था पर टिप्पणी करना वर्तोल ब्रेख्ट के एपिक रंगमंच का एक महत्वपूर्ण अंग है। ब्रेख्ट ने समूहगान की जिस प्रकार से राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था पर आलोचनात्मक टिप्पणी के लिए प्रयोग किया, उसी का अनुकरण नुक्कड़ नाट्य प्रेमियों ने भी अपना लिया। इसीलिए सामान्य लोक-नाटक से नुक्कड़ नाटक अधिक गंभीर और सार्थक रंगकर्म प्रतीत होता है।

भारतीय रंगमंच के क्षेत्र में नुक्कड़ नाटक के रंग प्रयोग का श्रेय बादल सरकार को है। ‘जुलूस’, ‘हत्यारे’, ‘औरत’, ‘मशीन’, आदि प्रसिद्ध नुक्कड़ नाटक हैं। आज तो लगभग सभी प्रमुख नगरोंमें नुकड़ नाटक प्रदर्शित होते हैं। जनता को अपने जीवन परिवेश के प्रति सजग करने में नुक्कड़ नाटकों के प्रदर्शन का योगदान सराहनीय है।

शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2011

पुस्तक परिचय-2 : मित्रो मरजानी

पुस्तक परिचय-2

मित्रो मरजानी

मनोज कुमार

कइस सप्ताह एक ऐसा उपन्यास पढ़ा जिसे 1967 में लिखा गया। इसकी लेखिका कृष्णा सोबती ने उन दिनों इतना कुछ लिखने का साहस दिखा दिया और इस उपन्यास को इतना पसंद किया गया कि तब से लेकर आज तक इसके पांच संस्करण निकल चुके हैं। आप सोचिए बीसवीं सदी के सातवें दशक में कोई ऐसी नारी पात्र की रचना करे जो यह कहे – - जिन्द जान का यह कैसा व्यापार? अपने लड़के बीज डालें तो पुण्य, दूजे डालें तो कुकर्म! तो यह इसकी लेखिका के साहस का कमाल ही है। सोबती जी ने मित्रो जैसे चरित्र को केन्द्र में रखकर कहानी लिखी, और उसके द्वारा देह के सुख और उसके लिए मुखर होने की चाह, परिवार, मर्यादा और सतीत्व जैसे पदबंधों की कमजोरियों को उघाड़कर रख दिया। रूढ़िवादी समाज इसे उत्तेजक कह सकता था, लेकिन विश्वनाथ त्रिपाठी जी के शब्दों में “इसके लिए बहुत साहस, निर्ममता और ममता की ज़रूरत पड़ी होगी। यह सब बहुत-बहुत आत्मीय परिचय, पात्र से तादातम्य के बिना संभव नहीं था।”

‘मित्रो मरजानी’ की कहानी पंजाब के किसी गांव में बसे एक संयुक्त परिवार की कहानी है। यह परिवार धीरे-धीरे बिखर कर टूट रहा है। गुरुचरन दास और उनकी पत्नी धनवंती के तीन बेटे और बहुएं हैं। समित्रावंती यानी मित्रो मंझली बहू है, जिसे उसका पति सरदारी आए दिन पीटता रहता है। इसका कारण यह है कि मित्रो ‘जग की रीत ठेंगे पर’ रखने के स्वभाव वाली है। ऐसे पात्र का सृजन इसके पहले भारतीय हिन्दी साहित्य में शायद ही हुआ हो। यह एक सजीव और सदेह पात्र है। उस संयुक्त परिवार के हर सदस्य से वह टक्कर लेती है। पति से उसे शिकायत है कि वह बस मार-पीट की भाषा जानता है, उसके तन और मन के सुख की परवाह नहीं करता। वह उन दिनों की आम नारी की तरह इसे अपनी नियति नहीं मान बैठती। बेलौस टक्कर लेती है। पूरी धौंस के साथ अपने शरीर और मन की चाह को कभी अपनी जिठानी तो कभी अपनी सास के सामने बयां करती है।

अब उन दिनों की क्या आज के समाज के संदर्भ में भी इस पात्र को देखें तो ऐसे चरित्र को कुलटा या ऐसे ही तमाम विशेषणों से नवाज दिया जाएगा। देखने में तो लगता है कि मित्रो के कई पुरुषों से संबंध रहे हों, और उसका पति इसी बात से क्रोधित भी होता रहता है। कहानी के विकास के साथ-साथ पारिवारिक दाव-पेंच भी चलते रहते हैं जो एक संयुक्त परिवार में होता रहता है। लेकिन इन सब के बीच भी यह चरित्र बहुत सहज है। उसमें कोई उलझाव, अवास्तविकता या बनावटीपन नहीं है। वह कोई असामान्य पात्र भी नहीं है।

मगर मित्रो के चरित्र की कहानी सिर्फ प्यास की ही कहानी नहीं है, आग की भी कहानी है और उसके नीचे धीमे आंच में पकते प्यार की भी। जहां एक ओर वह अपनी बहानेबाज़ देवरानी फुलवंती की खूब खबर भी लेती है तो वहीं दूसरी ओर जब घर में पैसों की जरूरत पड़ती है तो अपने साज-सिंगार की चाह को आले पर रखकर आभूषण देने को तैयार हो जाती है। जब उस पर सास और जिठानी द्वारा बच्चा न होने के कारण संशय किया जाता है तो बेख़ौफ़ सुना देती है कि जब तुम्हारे लाल में ही दमखम नहीं तो मैं क्या करूं। कहती है “मेरा बस चले तो गिनकर सौ कौरव जन डालूं, पर अम्मा अपने लाडले बेटे को भी तो आड़-तोड़ जुटाओ।”

मित्रो के द्वारा स्त्री देह से जुड़े पारंपरिक मानदंडों को चुनौती देने वाले इस उपन्यास में उसके द्वारा यह प्रश्न भी उठाया जाता है कि समाज में ऐसा क्यों है कि पति से पैदा हुआ बच्चा ही सही माना जाता है और किसी और से पैदा हुए बच्चे को पाप कह दिया जाता है। क्यों बच्चे को हमेशा बाप से ही जोड़ा जाता है? मां से क्यों नहीं?


‘मित्रो मरजानी’ नारी देह की आजादी के प्रश्न का संकेत देता है। किन्तु इस उपन्यास को पढ़ते समय हमें स्त्री देह की उन्मुक्तता और स्त्री के लिए देह की मुक्ति के बीच फ़र्क करना ज़रूरी है। पूरे उपन्यास में मित्रो देह सुख की चाह बयान करती नजर आती है, मगर आखिर में जब उसकी मां महज इसी के लिए प्रबंध करने जुटाती है, तो मित्रो उसे सिरे से नकार देती है। उस वक्त की मित्रो का चरित्र सशक्त होकर हमारे सामने आता है। वह एक ऐसा चरित्र है जो नियति का गुलाम नहीं है।

इस उपन्यास में सोबती जी ने अपनी संयमित अभिव्यक्ति और सुधरी रचनात्मकता के साथ-साथ बिंदास और बेलाग संवाद जिसे बोल्ड भी कह सकते हैं, के द्वारा कथा-भाषा को एक विलक्षण ताज़गी दी है। लेखिका ने अपनी भावनात्मक ऊर्जा और कलात्मक उत्तेजना से न सिर्फ़ पेचीदा सच उद्घाटित किए हैं बल्कि पाठक वर्ग को यह बताने में भी सफल होती हैं कि औरत सिर्फ तन नहीं और सिर्फ मन भी नहीं है। कहानी द्वारा कोई बना-बनाया निर्णय पाठकों को नहीं थमाना चाहिए, बल्कि पाठक को एक मद्धिम आंच देता हुआ विचार नियामक सौंप दिया जाए, इस नीति का पालन करते हुए सोबती जी ने इस उपन्यास में कोई ठोस निर्णायक उपसंहार देकर समाप्त नहीं किया है बल्कि पाठक के हिस्से यह बेचैनी छोड़ कर चुप हो जाती है कि कहानी यूं खत्म क्यों हो गई। उनके इस  उपन्यास का यह शिल्प और वह अंत ही इसकी ताकत है--

“सैयां के हाथ दाबे, पांव दाबे, सिर-हथेली ओठों से लगा झूठ-मूठ की थू कर बोली – कहीं मेरे साहिब जी को नज़र न लग जाए इस मित्रो मरजानी की!”

मित्रो मरजानीपुस्‍तक का नाम मित्रो मरजानी (उपन्यास)

लेखिका : कृष्णा सोबती

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली

पहला संस्‍करण : 1967 (पुस्तकालय संस्करण)

संस्करण : 1984, 1991, 2007, 2009

मूल्‍य : 60 रु.  (पेपरबैक्स में)

पेज : 99

गुरुवार, 20 अक्टूबर 2011

रजत रश्मियों की छाया में

 

आदरणीय गुणीं जनों को अनामिका का सादर नमस्कार !

[164323_156157637769910_100001270242605_331280_1205394_n%255B4%255D.jpg]अनामिका

साथियो आज बहुत दिनों बाद अपनी तबीयत के कोप से बच कर आप की दुनियां में लौटना हो पाया और कैसे ना लौटती आखिर आप सब की टिप्पणियां प्यार स्वरुप ही तो है जो मुझे यहाँ खींच लाती है, तो बताइए फिर  भला मैं  आप सब को कैसे नाराज़ कर सकती हूँ और वृहष्पतिवार के आपके इंतजार को और कैसे  बढ़ा सकती हूँ? . लेकिन आज अपनी ऐसी तबियत के चलते अपनी  लिखी एक कविता प्रयाण...   याद आ रही है जिसकी  कुछ पंक्तियाँ आप के साथ सांझा कर  रही हूँ...

दीपक मंद हो चला है
टिमटिमाना धीमा हो गया है
आयु का जल भी सूख चला है
लौ की उपर उठने की शक्ति क्षीण है
आंखो की ज्योति , शरीर की शक्ति ,
मस्तिष्क की विस्मृति , शमशान सा मौन,
विकृति की नीरस शांति
प्रयाण के लिये
सब साजो - सामान जुटा चुकी है !

क्रमशः .....प्रयाण...

तो चलिए आज फिर से अंतरजाल की दौड़ में शामिल हो जाती हूँ ....और अपना काम आरम्भ करते हुए  अपने ब्लॉग अनामिका की सदायें ...पर भी एक रचना लगाते हुए महादेवी जी के जीवन रुपी आभामंडल को विस्तार देती हूँ ...

महादेवी वर्मामहादेवी वर्मा 

प्रयाग विश्विद्यालय से संस्कृत में एम. ए . करने के पश्चात इन्होंने अपनी रुचि के अनुकूल कार्य समझकर प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या का पदभार ग्रहण कर लिया और चाँद का निशुल्क सम्पादन भी करने लगीं. अब तक उनकी द्वितीय काव्यकृति 'रश्मि' भी प्रकाशित हो चुकी थी. 'रश्मि' में उनकी आध्यात्मिक अनुभूतियों को दर्शन का दृढ़ आधार मिल जाता है और 'नीहार' का धुंधलापन निखर उठता है. जिज्ञासा और कौतुहल की अधिकता इसमें भी है, पर इसके समाधान दृढ़ और अडिग हैं. 'रश्मि' प्रकृति विस्मय की सृष्टि करने वाली न होकर कवि-व्यक्तिगत-सापेक्ष हो जाती है. इस कृति का आह्लादात्मक  बोध वेदना को माधुर्य -मंडित करने में सक्षम है. इसकी रहस्यानुभूतियाँ स्पष्ट और साधना- समर्थित हैं. भावुकता प्रौढ़ दार्शनिकता में बदल गयी है. अज्ञात का आकर्षण ज्यों का त्यों बना है, किन्तु उसकी अभिव्यक्ति के विभिन्न स्वरों में सामंजस्य की गरिमा बढ़ गयी है. जीवन, मृत्यु, मुक्ति, अमरत्व, प्रकृति और मानव आदि की द्वंदात्मक स्थितियों में साम्य का सूत्र संग्रथित हो गया है और भाषा भावाभिव्यक्ति में अधिक सफल और सघन हो गयी है.  इस कृति में वेदांत और बौद्ध दर्शन का प्रभाव स्पष्ट है, किन्तु कवयित्री ने अपने स्वतन्त्र चिंतन को अक्षुष्ण रखा है. बौद्ध दर्शन की मूल प्रवृत्ति व्यक्तित्व की निर्विशेषता को इन्होंने कहीं स्वीकार नहीं किया  -

‘पर न समझना देव हमारी लघुता है जीवन की हार !'  

इसी तरह उपनिषद के सुख -दुख - समन्वय को साधना का स्वरुप न मानकर दोनों को व्यापक सत्य के अंग रूप में स्वीकार किया है -

छिपाकर उर में निकट प्रभात,

गहनतम होती पिछली रात,

सघन वारिद अम्बर से छूट,

सफल होते जल-कण में फूट !

वस्तुतः 'रश्मि' में सर्ववाद-दर्शन की भावात्मक अथवा सृजनात्मक अभिव्यक्ति का प्राचुर्य है. आत्मा, प्रकृति और परमात्मा (ब्रह्म) की अन्तर्हित एकता ही 'रश्मि' का मूलाधार है.

कविता के साथ-साथ बचपन से ही इन्होने गद्य लिखना भी आरम्भ कर दिया था. और 'पर्दा-प्रथा' पर लिखित निबंध -प्रतियोगिता में उत्तर प्रदेश शिक्षा विभाग से पुरस्कृत भी हो चुकी थीं. 'भारतीय नारी' नामक नाटक भी कई जगह अभिनीत हो चूका था, कतिपय संस्मरण भी लिखे जा चुके थे, परन्तु चाँद के सम्पादकीय रूप में लिखित गद्य अपना एक अलग महत्त्व रखता है.  उपेक्षित प्राणियों में नारी का स्थान शीर्षस्थ है. महादेवीजी के लिए यह स्वाभाविक था की इस वर्ग के प्रति किये गए अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध वे आवाज़ उठातीं . इन निबंधों में इन्होने भारतीय नारी की सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं का एक समाजशास्त्री की भांति अत्यंत गहन विश्लेषण- विवेचन किया. 'श्रृंखला की कड़ियाँ' नामक कृति में ये निबंध संग्रहीत हैं. इन निबंधों में महादेवीजी ने जिस क्रन्तिकारी दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया है, वह बड़े से बड़े समाज-सुधारक में भी विरल है. सामान्य नारी की स्थिति का विश्लेषण करते हुए इन्होने विधवाओं, वेश्याओं और अवैध संतानों की समस्या पर भी अपने साहसी और निर्भीक विचार व्यक्त किये हैं -

'अनेक व्यक्तियों  का विचार है कि यदि कन्याओं को  स्वावलंबी बना देंगे  तो वे विवाह ही न करेंगी, जिससे दुराचार भी बढेगा और गृहस्थ धर्म में भी अराजकता उत्पन्न हो जाएगी. परन्तु वे यह भूल जाते हैं कि स्वाभाविक रूप से विवाह में किसी व्यक्ति के सहचर्य की इच्छा प्रधान होनी चाहिए, आर्थिक कठिनाइयों की विवशता नहीं ! '


आज अपनी लेखनी से ज्यादा ना परिश्रम करवाते हुए यहीं विश्राम देती हूँ...आगे के प्रसंग वर्णन के लिए कोशिश करुँगी की अगले वृहष्पतिवार हाज़िर हो जाऊ लेकिन त्यौहारों का समय है......दीपावली की तैयारियों में समय मिल पायेगा या नहीं...कहा नहीं जा सकता. फिर भी कोशिश जारी रहेगी...तब तक के लिए आज्ञा..

रजत रश्मियों की छाया में

रजत रश्मियों की छाया में धूमिल घन सा वह आता;

इस निदाघ से मानस में करुणा के स्रोत बहा जाता.

             उसमे मर्म छिपा जीवन का

             एक तर अगणित कम्पन का,

             एक सूत्र सब के बंधन का,

संसृति के सूने पृष्ठों में करुन्काव्य वह लिख जाता !

             वह उर में आता बन पाहुन,

             कहता मग से 'अब न कृपण बन',

             मानस की निधियां लेता गिन,

दृग द्वारों को खोल विश्व भिक्षुक पर, हंस बरसा आता !

             यह जग है विस्मय से निर्मित,

            मूक पथिक आते जाते नित,

            नहीं प्राण प्राणों से परिचित,

यह उनका संकेत नहीं जिसके बिन विनिमय हो पाता !

            मृग मरीचिका के चिर पथ पर,

            सुख आता प्यासों के पग धर,

            रुद्ध ह्रदय के पट लेता कर,

गर्वित कहता 'मैं मधु हूँ मुझ से क्या पतझर का नाता' !

            दुख के पद छू बहते झरझर,

           कण कण से आंसू के निर्झर,

           हो उठता जीवन मृदु उर्वर,

लघु मानस में वह असीम जग को आमंत्रित कर लाता !

सभी मित्रों को दीपावली की शुभकामनाएं!

बुधवार, 19 अक्टूबर 2011

अंक – 5 - हिन्दी के पाणिनि – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी


अंक – 5

हिन्दी के पाणिनि – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी

आचार्य परशुराम राय

पिछले चार अंकों में आचार्य किशोरीदास वाजपेयी के जीवन के प्रथम उन्मेष (1919-1930) का अवलोकन किया गया। यहाँ से अब उनके जीवन का द्वितीय उन्मेष शुरु होता है। आचार्य जी के जीवन का द्वितीय उन्मेष 1931 से प्रारम्भ होता है। पिछले अंक में हमने देखा कि आचार्य जी अध्यापन कार्य छोड़कर स्वतंत्रता आन्दोलन में कैसे कूद पड़े और पं. कृष्णदत्त पालीवाल के साथ हो लिए।

1931 में लाहौर में रावी नदी के तट पर एक स्वतंत्रता की प्रतिज्ञा की गयी थी। इस प्रतिज्ञा की प्रतियाँ सरकार ने जब्त कर ली थी और उसी वर्ष स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर उस प्रतिज्ञा को दुहराने का निर्णय लिया गया था। उत्तर प्रदेश की प्रान्तीय कांग्रेस, लखनऊ को उस प्रतिज्ञा की कुछ प्रतियों की आवश्यकता थी। पालीवाल साहब हाल ही में जेल से छूटकर आए थे। स्वतंत्रता आन्दोलन का संचालन बड़ी चतुराई से उन्हें करना पड़ रह था। प्रतिज्ञा की प्रतियाँ उनको छोड़कर दूसरा नहीं छाप सकता था। अतएव उनके सैनिक प्रेस में छिपाकर स्वतंत्रता की प्रतिज्ञा की 500 प्रतियाँ छपीं।

अब समस्या थी इन प्रतियों को लखनऊ पहुँचाने की। पालीवाल साहब ने आचार्य जी को उन्हें लखनऊ पहुँचाने का काम सौंपा। आचार्य जी की आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब थी। नौकरी छूट चुकी थी। ढाई साल का पुत्र चि. मधुसूदन, गर्भवती पत्नी, ऊपर से कर्ज। जोखिम भरा काम था। यदि पकड़े जाते, तो जेल हो जाती और जेल होती, तो पत्नी के प्रसव आदि की व्यवस्था और देख-रेख करना कठिन हो जाता। ऐसी विषम परिस्थिति में भी आचार्य जी ने मातृभूमि के प्रति अपने दायित्व से पिंड छुड़ाने की बात सोची तक नहीं। इसी बीच उन्हें काव्य-प्रवेशिका नामक एक पुस्तक लिखने का काम मिला 15% रायल्टी पर और पचास रुपये अग्रिम मिल गए। अतएव पत्नी को पचास रुपये देकर उन्होंने प्रतिज्ञा की प्रतियाँ कपड़े में लपेट तकिया की तरह विस्तर में बाँधीं और लखनऊ के लिए निकल पड़े। आने-जाने का किराया पालीवाल साहब ने दे दिया था। इस प्रकार यह काम निर्विघ्न पूरा हुआ और सामग्री नियत स्थान पहुँच गयी।

आचार्य जी ने भगतसिंह दिवस मनाने की एक घटना का बड़े ही मनोरंजक ढंग से उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि टाउन हॉल में (सम्भवतः आगरा में) भगतसिंह दिवस मनाने के लिए लोग जुटे। भाषण शुरु हुआ। आचार्य जी का भाषण चल रहा था कि अचानक एक धमाका हुआ। भगदड़ मच गयी और कई कांग्रेसी पकड़े गए। लेकिन जाँच के बाद पता चला कि फर्श पर किसी ने पटाखा रख दिया था, जो दबने के कारण फट गया था। अतएव सभी लोग छोड़ दिए गए।

इसी बीच गान्धी-इर्विन पैक्ट हुआ। इसकी एक शर्त के अनुसार जिन्हें नौकरी से निकाल दिया गया था, उन्हें बहाल कर दिया गया और आचार्य जी को भी इसका लाभ मिला। वे पुनः हरिद्वार जाकर अध्यापन में जुट गए। तबतक आचार्य जी की पुत्री चि.सावित्री गोद में आ चुकी थी। इसके बाद अध्यापन के बाद शेष समय को आचार्य जी ने समाज सुधार के कामों में लगाना प्रारम्भ किया। उनके तीर्थ के सुधार सम्बन्धी कार्यों से तीर्थ के पुरोहित और पंडे लोग नाराज हो गए। बाद में उन्होंने हरिजन उद्धार के लिए हरिजन सेवक संघ बनाया और दो वर्षों तक उसकी जिला-कमेटी के मंत्री के रूप में काम किया। वे कहते हैं कि इससे अतिसनातनी लोग उनसे काफी नाराज हुए।

इसके बाद 1938 में कुम्भ मेला लगना था। आचार्य जी ने निरंजनी, निर्वाणी आदि अखाड़ों के नागा साधुओं के विरुद्ध एक आन्दोलन छेड़ दिया कि वे मेले में नंगे स्नान करने न उतरें। कम से कम एक लंगोटी वे अवश्य पहनें। इसका बड़ा विरोध हुआ। अच्छी सोच-समझ रखने वाले भी आगे आने को तैयार नहीं थे। आर्यसमाजियों ने इसे सनातनी लोगों का आपसी मामला कहकर किनारा कस लिया। कांग्रेसी लोग तटस्थ बने रहे। केवल राजर्षि टंडन जी एवं पं.जवाहरलाल नेहरू आदि नेताओं ने पत्र लिखे, जिन्हें आचार्य जी ने प्रकाशित करवाया। धीरे-धीरे आन्दोलन ने इतना जोर पकड़ा कि नागा समाज में भी इस पर विचार-विमर्श होने लगा। परन्तु ऐसे साधुओं की संख्या बहुत कम थी। किन्तु उन साधुओं की संख्या अधिक थी, जो इस प्रथा को छोड़ने के लिए कत्तई तैयार नहीं थे। वे तलवारें और भाले चमचमाने में लग गए। टंडन जी, नेहरू जी आदि के पत्र प्रकाशित हो जाने से कांग्रेस के तटस्थ होने के बावजूद लोगों में चर्चा थी कि कांग्रेस ही यह सब कुछ करा रही है और सत्याग्रह करने के लिए दस-पाँच हजार कांग्रेस के स्वयंसेवक आ रहे हैं। आचार्य जी लिखते हैं कि इससे थोड़ी उन्हें राहत थी, फिर भी बहुत सावधान होकर रहना पड़ता था।

मेले का समय जैसे-जैसे करीब आता गया लोगों में बेचैनी बढ़ने लगी। अन्त में आचार्य जी के एक सहपाठी और अखाड़े के अच्छे विद्वान और राष्ट्रवादी नागा साधु स्वामी चन्द्रशेखर गिरि एक दिन उनसे मिले और समझाए कि वे इस आन्दोलन को बन्द कर दें। क्योंकि इससे मेला खराब होगा, खून-खराबा भी हो सकता है। इस प्रकार की अत्यंत रूढ़ प्रथाएँ इतनी आसानी से नहीं उड़ाई जा सकतीं। आचार्य जी ने स्वामी जी की बात मानकर समचार पत्रों में आन्दोलन या विरोध प्रदर्शन न करने की सूचना छपवा दी। जिसके परिणाम स्वरूप वातावरण बिलकुल शान्त हो गया। सभी ने राहत की साँस ली, आचार्य जी ने भी।

इस अंक में बस इतना ही।

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