रविवार, 31 अक्टूबर 2010

कहानी ऐसे बनी-१०::चच्चा के तन ई बधना देखा और बधना के तन चच्चा देखे थे।

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

अब क्या बताएं.... इतने दिन हो गए शहर का धुंआ खाते पर दिल है कि मानता नहीं.... अब भी सरपट दौड़ जाता है  गाँव की ओर। हां, गाँव की बात ही कुछ और है। मनमोहक हरियाली, लज्जा का आवरण ओढ़े महिलाएं, मिलनसार बुजुर्ग, छैल छबीले युवक मंडली... मतलब एक अलग तरह क अल्हड़पन होता है, गाँव के परिवेश में। यहाँ शहर में तो एक छोटा-सा का घर होता है, एक रसोई पकाने का कोना और एक ही गुशलखाना। और उसी में स्त्री-पुरुष सब लाइन लगाए रहते हैं। एक अन्दर है तो दूसरा बाहर से दरवाजा पीट रहा है। और अपने गाँव में देखो कितनी आजादी रहती है।

अब उसी दिन की बात लीजिये न। हम बहुत दिनों बाद गए थे अपने गाँव। अब तो बताने में थोड़ा संकोच भी हो रहा है। एकदम सुबह-सुबह.... नीले गगन के तले... सुबह के पांच बजे... हाथ में लोटा... लोटा में पानी गाछी की ओर चले। अच्छा गाँव की एक और खासियत है। शहर में भले कोई शुभ कार्य में भी साथ ना दे मगर गाँव में गाछी जाने के समय भी आपको दो-चार साथी मिल ही जायेंगे। हमें भी मिल गए। और बहुत दिनों बाद गए थे सो हाल-समाचार पूछते-पाछते बढ़ चले गाछी की ओर। दोनों तरफ़ लहलहाते खेत और बीच मे एकदम संकड़ी पगडंडी। उसी पर हम लोग बिल्कुल रेल-गाड़ी के डब्बे की तरह लाइन से चले जा रहे थे। उधर से अब्दुल चाचा गाछी से निपट कर लौट रहे थे। इसबार कमर थोड़ी झुक गई है। चश्मा की एक डंडी की जगह सुतली बाँध कर कान पर चढ़ाए हुए हैं लेकिन बूढी आँखों में अब भी पुराना स्नेह चमक रहा है। माटी का बधना (एक प्रकार का लोटा जिसमे पानी निकलने के लिए टोटी लगी होती है) पकड़े हुए कमजोर हाथ काँप रहा था। आमना-सामना हुआ... दुआ-सलाम भी। लेकिन सुबह के समय ज्यादा देर तो ठहराव नहीं हो सकता है न सो आगे बढ़ने लगे। लेकिन पतली पगडंडी पर क्रोसिंग कैसे हो ? हम तो किसी तरह साइड कटा के निकल लिए... लेकिन पीछे और भी लोग थे और इधर संभाल-संभाल कर कदम उठाते और रखते अब्दुल चच्चा। एक-दो लड़के तो निकल लिए पर गनेसिया पता नहीं कैसे टकरा गया? अब्दुल चाचा को तो रामभरोस ने संभाल लिया लेकिन उनके हाथ से बधना छूट गया। बधना बेचारा पगडंडी पर ऐसे चारो खाने चित्त गिरा की दुबारा उठ नहीं पाया। बेचारे का इहलीला समाप्त होय गया। लेकिन यह क्या... दुर्घटना के शिकार बधना को जमीन पकड़े देख अब्दुल चाचा रामभरोस का हाथ झटक धम्म से खेत में ही बैठ गए... और लगे रोने। मेरा तो कलेजा मुंह को आ गया.... ये अब्दुल चाचा को क्या हो गया... ? झट से पीछे मुड़ के गए उनके पास। चाचा तो एकदम कलेजा पीट-पीट कर आठ-आठ आंसू रो रहे थे। हम पूछे क्या हुआ चाचा ?

चाचा चिग्घारते हुए बोले, "रे बाबू रे बाबू.... हमारा बधना चला गया रे....! दस बरस से हमारे साथ था...! अपना-पराया सब साथ छोड़ दिया.... पर ई बधना अभी तक निबाह रहा था.... ई गनेसिया हमारे बधना की जिन्दगी छीन लिया रे बेटा.... अब हम क्या लेकर रहेंगे रे बाबू... ! ई रमभरोसिया.... रे तू हमको काहे बचाया... मरने देता हमको गिर कर.... हमारे बधना को तो बचा लेता रे मुद्दैय्या.... अब हम क्या लेकर रहेंगे रे बाप!''

हमने देखा हे भगवान! .... अब्दुल चाचा तो ऐसा विलाप कर रहे हैं मानों बधना नहीं चच्ची हो। फिर भी हम अपना गीता-ज्ञान बघारने लगे। उको समझाए। "क्या चाचा आप भी इतना समझदार होकर इअस मामूली बधना के लिए रो रहे हैं...? इन चीजों का तो आना-जाना लगा रहता है। अभी आपको कुछ हो जाता तो?"

चाचा आंसू से तर-बतर घिघियाते हुए बोले, "मर जाने दो हमें... अब बधना बिना भी क्या जीना.... !"

हम बोले, "अरे चच्चा ! बधना का क्या है, एक गया दूसरा आएगा...। चलिए अभी कारी पंडित से नया बधना आपको ख़रीद देते हैं। रोइए मत।"

इस पर अब्दुल चाचा अपना आंसू पोछते हुए बोले, "न रे बेटा.... बात नया बधना का नहीं है। नया तो मिलिए जाएगा। पर हमरा वो बधना तो नहीं ही मिलेगा न। उसकी बात जुदा थी। वह हमारा सब कुछ देखा हुआ था... हम उसका देखे हुए थे। अब तो जो दूसरा आएगा... वह भी हमरा सब कुछ देख लेगा और पता नहीं इअस बधना जैसे पचा के रखेगा कि हमारा तन देख कर समूचे गाँव मे चुगली कर देगा...!"

हम्म्म्म.... अब हमारी समझ में आया कि चाचा फजूल का नहीं रो रहे थे। बात में तो दम था। हमारे पीछे लड़का लोग "चाचा के तन बधना देखा... बधना के तन चाचा!" कह-कह के ताली पीट कर हंस रहा था। हम सब को डांटे। सब चुप हुए। फिर चाचा को किसी तरह सांत्वना दिला कर गाँव का रास्ता पकराए।

तभी लखना कहने लगा, "बूढा सठिया गया है। बधना के लिए भी कोई ऐसे रोता है ???”

हम उसको समझाए, "धुर्र बुरबक! समझा नहीं... चाचा के तन ई बधना देखा और बधना के तन चच्चा देखे थे। मतलब चाचा बधना के लिए नहीं रो रहे थे। बधना तो सच में फिर से आ जाएगा.... मगर क्या पता वो भी इसी बधने की तरह वफादार होगा? इस बधने पर जो उनका विश्वास था उसके लिए रो रहे थे चाचा। सच ही तो  कह रहे थे चाचा कि अब तो जो नया आएगा वह भी चाचा का सबकुछ देखेगा... लेकिन क्या पता कि उसी पुराने बधने की तरह भरोसेमंद होगा... ?”

तब सब लड़कों के समझ मे आयी चाचा की बात। और उसी दिन से ये कहाबत भी बन गयी।

नए के प्रति अंदेशा और पुराने वफादार के प्रति विश्वास व्यक्त करने के लिए, लोग अक्सर इस कहावत का प्रयोग करते हैं।

शनिवार, 30 अक्टूबर 2010

इतिहास :: मुग़ल काल में सत्ता का संघर्ष

मुग़ल काल में सत्ता का संघर्ष

IMG_0531मनोज कुमार

मुगल शासन व्‍यवस्‍था में उतराधिकार का कोई नियम नहीं था। फलतः सुलतान के मरते ही शहजादे गद्दी के लिए आपस में संघर्ष किया करते थे। मुगल साम्राज्‍य के इतिहास में गद्दी के दावे के लिए अनेक गृह युद्ध हुए हैं जिन्‍होंने मुगलों की शक्ति और प्रतिष्‍ठा को भारी क्षति पहुंचाई।

बाबर और हुमायूं ने भारत में मुगल राजवंश की स्‍थापना तो कर दी थी परंतु वे इसे स्‍थायित्‍व नहीं दे पाये। अकबर ने इस काम को पूरा किया। उसने राज्‍य के विस्‍तार के अलावा इसके सुदृढ़ीकरण की भी व्‍यवस्‍था की पर उसके जीवनकाल में ही जहांगीर ने गद्दी पर अधिकार करने के लिए विद्रोह कर दिया था, अकबर ने उसे समझा-बुझाकर शांत किया था।

जहांगीर के शासनकाल में शहजादों के विद्रोह ने बड़ा विकृत रूप धारण कर लिया। उसके शासनकाल में पहला विद्रोह शहजादा खुसरो का हुआ था परंतु जहांगीर ने अपनी काबिलियत से उसे दबा दिया। खुसरो की सहायता करने के अपराध में जहांगीर ने सिखों के गुरू अर्जुन देव जी को फांसी की सजा दी। इससे मुगल सिख संबंध अच्‍छे नहीं रहे। खुसरो के विद्रोह से ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण खुर्रम का विद्रोह था। नूरजहां अपने दामाद शहरयार को गद्दी दिलवाना चाहती थी। इसलिए शहजादा खुर्रम ने विद्रोह कर दिया। हालांकि उसने बाद में जहांगीर से माफी मांग ली पर उसके इस विद्रोह के कारण मुगलों को कंधार खोना पड़ा।

शाहजहां ने अपने भाइयों व भतीजों का वध करके गद्दी हासिल की थी। बाप के चरण चिह्नों पर चलते हुए औरंगजेब ने भी यही इतिहास दुहराया। खुद औरंगजेब के शासनकाल में शहजादों के विद्रोह ने सम्राट को परेशान किये रखा। ऐसे विनाशकारी संघर्षों में धन-जन की भारी हानि हुई और साम्राज्‍य को गहरा धक्‍का लगा। इन सभी गद्दी के दावों के लिए हुए युद्धों में से जो शाहजहां के बेटों के बीच लड़ा गया, वह कई अर्थों में विशिष्‍ट था। पहली बात तो यह कि शासक के जीवित रहते हुए उत्तराधिकार का जो विद्रोह हुआ, वह शाहजहां के समय में जितने लंबे समय तक चला और जितने विस्‍तृत क्षेत्र में यह संघर्ष हुआ, ऐसा इसके पूर्व कभी नहीं हुआ। इस संघर्ष में एक विद्रोही राजकुमार विजयी होता है और स्‍वयं सत्ता संभाल लेता है। जब मुगलकाल में उत्तराधिकार के लिए संघर्ष की बात होती है तो हमारा ध्‍यान बरबस यहीं आ टिकता है।

यह लड़ाई 1657-58 ई. के बीच हुई थी। हालांकि औरंगजेब के चार बेटे थे, पर यह लडाई मुख्‍य रूप से शाहजहां के पुत्र दारा और औरंगजेब के बीच लड़ी गई थी। दारा सबसे बड़ा था और हमेशा शाहजहां के साथ रहता था तथा उत्तरी भारत का उत्तराधिकारी भी था। वह उदार और दयालु स्‍वाभाव का था। शाहजहां उससे बहुत प्‍यार करता था। दूसरा बेटा शाह शुजा बंगाल का शासक था लेकिन वह अकर्मण्‍य एवं विलासी था। तीसरा औंरगजेब दक्षिण का शासक था। वह सैनिक गुणों एवं कूटनीतिज्ञता में माहिर था। चौथा मुराद गुजरात एवं मालवा का शासक था। उसमें भी सैनिक एवं प्रशासनिक योग्‍यता का अभाव था।

चूंकि चारों बेटे चार अलग-अलग क्षेत्र के शासक थे तो ऐसा प्रतीत होता है कि शायद शाहजहां अपने बेटों के बीच राज्‍य का बंटवारा करना चाहता था। पर वास्‍तविकता क्‍या थी, कहा नहीं जा सकता। स्थिति ऐसी थी कि उत्‍तराधिकार की समस्‍या पर कभी भी लड़ाई हो सकती थी क्‍योंकि चारों के पास सैनिक थे और चारों गद्दी के लिए लालायित थे। ऐसी स्थिति में 16 सितंबर, 1657 ई. में शाहजहां जब सख्‍त बीमार पड़ा और उसके बचने की उम्‍मीद न के बराबर थी, तब चारों बेटों-दारा, शुजा, औरंगजेब और मुराद के बीच उत्तराधिकार का संघर्ष शुरू हो गया क्‍योंकि वे अपनी अपनी पकड़ मजबूत करना चाहते थे। सिंहासन प्राप्‍त करने की महत्‍वकांक्षा वाले उसके सभी पुत्र अपनी अपनी योजनाएं बनाने लगे। इसकी शुरूआत शुजा ने की। उसने बंगाल में स्‍वयं को सम्राट घोषित कर दिल्‍ली की ओर प्रस्‍थान किया। फिर क्‍या था – मुराद भी खुद को शासक घोषित कर दिल्‍ली की ओर चल पड़ा। औरंगजेब ने खुद को शासक तो घोषित नहीं किया, पर दिल्‍ली की ओर इस घोषणा के साथ चल पड़ा कि वह अपने बीमार पिता को देखने जा रहा है।

इधर शाहजहां की बीमारी के समय दारा उसके साथ दिल्‍ली में ही था। उसने शाहजहां की बीमारी की खबर को रोकने के प्रयास किए। साथ ही पिता को लेकर दिल्‍ली से आगरा आ गया। पर परिणाम उलटा हुआ। लोगों में यह अफवाह फैल गई कि शाहजहां वास्‍तव में मर गया है और दारा इस खबर को छिपाकर खुद को बादशाह घोषित करना चाहता है। इस बीच दारा की सेवा-सुश्रुषा में शाहजहां थोड़ा ठीक हुआ। उसे जब उत्तराधिकारी के संघर्ष की जानकारी लगी, तो उसने अपने बेटों को पत्र लिखा कि अपने-अपने क्षेत्र वापस लौट जाएं। वे स्‍वस्‍थ हैं। इस पर किसी ने भी ध्‍यान नहीं दिया। बल्कि औरंगजेब ने कहा कि यह पत्र जाली है। इधर शाहजहां ने संघर्ष टालने के इरादे से दारा को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया। पर इसका प्रभाव दारा के अन्‍य भाइयों पर विपरीत ही पड़ा और वे गद्दी पर अधिकार प्राप्‍त करने के लिए व्‍याकुल हो उठे।

इतिहास भी तो अपने आप को दुहराता है। मुगलों के बीच उत्तराधिकार का मामला, अधिकांशतः तलवारों के द्वारा ही निर्धारित हुआ था। शाहजहां ने भी तो खुद इस रास्‍ते गद्दी पाई थी। फिर उसके बेटे कहां चूकने वाले थे। युद्ध एवं रक्‍तपात अवश्‍यंभावी था। पर इस बार इसमें एक विशेषता थी। पहले के उत्तराधिकार का संघर्ष सम्राट की मृत्‍यु के पश्‍चात हुआ था। इस बार यह तब होने जा रहा था जबकि शाहजहां अभी जीवित था। इस युद्ध में न सिर्फ उसके चार बेटे ही लड़े बल्कि उसकी बेटियां ने भी परोक्ष रूप से हिस्‍सा लिया। जहांआरा ने दारा शिकोह की सहायता की तो रोशन आरा ने औरंगजेब की मदद की तथा गौहन आरा ने मुराद बख्‍श का पक्ष लिया।

औरंगजेब ने मुराद को अपने पक्ष में मिलाकर आपस में राज्‍य का बंटवारा कर लेने का समझौता किया तथा दोनों की मिलीजुली सेना आगरा की तरफ़ कूच कर कई। उधर शाह शुजा भी बनारस तक आ पहुंचा था। तब शाहजहां एवं दारा के पास उनको युद्ध में पराजित करने के अलावा कोई चारा नहीं था। उन्‍होंने अपनी सेना भेजने का निश्‍चय किया।

दारा के पुत्र सुलेमान शिकोह के नेतृत्‍व में एक सेना शाह सुजा को पराजित करने के लिए भेजी गई और दूसरी सेना राजा जसवंतसिंह के नेतृत्‍व में मालवा की तरफ़ औरंगजे‍ब एवं मुराद के खिलाफ युद्ध के लिए भेजी गई। सुलेमान शिकोह की सेना के हाथों शाह शुजा की पराजय हुई और वह बंगाल भाग गया परंतु अप्रैल, 1658 में राजा जसवंत सिंह के नेतृत्ववाली शाही सेना को औरंगजेब एवं मुराद के विरूद्ध धरमत के युद्ध में मुंह की खानी पड़ी। वास्‍तव में जसवंतसिंह को यह जानकारी नहीं थी कि उसे औरंगजेब एवं मुराद की मिलीजुली सेना का सामना करना पड़ेगा। वह तो सिर्फ मुराद की सेना की उम्मीद कर रहा था। फलतः उचित संसाधनों के अभाव में उन दोनों के संगठित सैन्‍य बल का मुकाबला वह नहीं कर पाया। यह विजय मुराद एवं औरंगजेब की हौसला अफजाई के लिए काफी थी । अब वे आगरा की तरफ बढ़ेब।

परिस्थिति की गंभीरता को भांपकर दारा ने भी मैदान ए जंग में कूदने का निर्णय लिया। उसने एक विशाल सेना इकट्ठी की एवं अपने बागी भाइयों का सामना करने चल दिया। जून, 1658 में दोनों पक्षों की सामूगढ़ में भिड़ंत हुई। औरंगजेब एवं मुराद की सेना एवं उनकी युद्ध-कुशलता के आगे दारा टिक न सका। उसकी बुरी तरह से हार हुई। निराश-हताश दारा शाहजहां से भी मिलने का साहस न जुटा सका और अपने परिवार के साथ दिल्‍ली की तरफ भाग गया और वहां से लाहौर चला गया। इस प्रकार औरंगजेब और मुराद की स्थिति काफी मजबूत हो गई। सामूगढ़ की लड़ाई ने दारा का भविष्‍य निर्धारित कर दिया। औरंगजेब ने आगरे के किले पर अधिपत्‍य जमाया तथा अपने पिता शाहजहां को बंदी बनाकर कैदखाने में डाल दिया, जहां शाहजहां अपनी मृत्‍यु पर्यन्‍त जनवरी 31,1666 ई. तक कैद में ही रहा। बाप बेटे के बीच पत्रों का आदान-प्रदान तो होता था पर दोनों में कभी आमना-सामना नहीं हुआ।

औरंगजेब काफी महत्त्वाकांक्षी था। उसने अपनी और गद्दी के बीच आनेवाली हर बाधा को दूर करने का निश्‍चय किया। आगरा के किले पर फतह के बाद औरंगजेब ने दारा पर खास ध्‍यान केंद्रित नहीं किया। अब उसके सामने मुख्‍य बाधा थी – मुराद एवं उसका सैन्‍य बल। मुराद स्‍वतंत्र रूप से रहने लगा था। अतः औरंगजेब को उसकी तरफ़ से खतरे का एहसास था। उसी तरह मुराद भी उसकी तरफ शंका की दृष्ष्टिकोण रखता थे। औरंगजेब ने अपने रास्‍ते से मुराद को हटाने का निर्णय लिया। उसने मुराद को कई बार दावत पर बुलाया, पर हर बार मुराद नकार जाता था। एक बार शिकार से लौटते हुए मथुरा के निकट एक रात की दावत के औरंगजेब के नयौते को उसने अपने एक अधिकारी की सलाह पर स्‍वीकार कर लिया। उस अधिकारी को औरंगजेब ने धन देकर अपनी तरफ मिला लिया था। मुराद को खासी तगड़ी दावत खाने को मिली। तत्पश्‍चात एक सुंदर दासी को मुराद की मालिश करने को भेजा गयास। काफी चालाकी से उसने मुराद को गहरी नींद सुला दिया एवं उसके सभी शस्‍त्र उसके पास से हटा दिए। इस प्रकार निहत्‍था मुराद आसानी से बंदी बना लिया गया।

औरंगजेब मथुरा से दिल्‍ली आ गया। बिना किसी प्रतिरोध के उसने दिल्‍ली पर अधिपत्‍य जमाया और राज्‍यभिषेक कर खुद को सम्राट घोषित कर दिया। दारा सामूगढ़ की हार के बाद भटकता रहा था। बाद में उसे भी पकड़ कर बंदी बना लिया गया तथा मृत्‍यु दंड दे दिया गया। शुजा भी बनारस की लड़ाई के बाद बंगाल लौटा। वहां भी औरंगजेब के द्वारा तंग किए जाने पर आसाम से होते हुए बर्मा गया और वहीं उसकी मृत्‍यु हो गई।

सन 1658 तक औरंगजेब के सभी विरोधी खत्‍म हो गये। गद्दी के सभी दावेदार समाप्‍त हो गए। उसकी स्थिति काफी मजबूत हो गई। उसने शाहजहां को बंदी बना लिया था और स्वयं को शासक घोषित कर चुका था।

गद्दी के उत्तराधिकार के इस संघर्ष का परिणाम बहुत बुरा रहा। ढेर सारे लोग मारे गए। इसके कारण साम्राज्‍य को आर्थिक एवं सैनिक, दोनों की भारी क्षति पहुंची। एक वर्ष तक मुगल साम्राज्‍य इसमें उलझा रहा। इससे साम्राज्‍य विरोधियों का मनोबल काफी बढ़ा। मराठा अपनी शक्ति को बढ़ाने लगे। उत्तर पश्चिमी सीमा पर अफगानियों ने विद्रोह किया। इस बीच दक्षिण भारत से भी मुगल साम्राज्‍य का ध्‍यान हटा रहा।

दूसरी ओर उत्तराधिकार के इस संघर्ष में इसकी सफलता अभूतपूर्व थी। इसकी सफलता ने यह सिद्ध कर दिया कि भविष्‍य में सत्ता पर अधिकार करने के लिए उत्तराधिकार का फैसला तलवार द्वारा ही संभव है।

इस तरह उत्तराधिकार का यह संघर्ष, मुगल साम्राज्‍य के लिए तात्‍कालिक और दूरगामी, दोनों ही तरह से, हानिकारक सिद्ध हुआ । औरंगजेब का 50 वर्ष का शासनकाल शांति और सुव्‍यवस्‍था की जगह समस्‍याओं का काल रहा। औरंगजेब के अंत तक साम्राज्‍य की एकाग्रता एवं संगठन समाप्‍त हो चुका था और महान मुगल साम्राज्‍य का पतन शुरू हो गया था। और उस पतन के बीज उत्तराधिकार के संघर्ष में ही छिपे थे। यह संघर्ष धीरे धीरे साम्राज्‍य को खोखला करता गया और एक दिन वह बीज विशाल वृक्ष बन कर उसके पतन की राह प्रशस्‍त कर गया।

शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010

मशीन अनुवाद का विस्तार (६)

              मशीन अनुवाद सिर्फ सीधे सीधे वाक्यों के अतिरिक्त भी होता है. अगर हम किसी भी शासकीय पत्र को लें तो उसके लिखने का तरीका और उसकी शब्दावली अलग होती है. इसमें हर शब्द का एक अलग अर्थ हो सकता है. इसके लिए एक अलग शासकीय शब्दों का भण्डारण करते हैं और जब ऐसे पत्रों का अनुवाद होता है तो उसी को प्रयोग करते हैं. वैसे भी हम दैनिक जीवन में भी शासकीय शब्दावली को अलग प्रयोग में लाते हैं बल्कि सिर्फ शासकीय ही क्यों? मेडिकल , फिजिक्स , केमिस्ट्री सभी विषयों के लिए अलग शब्दावली का प्रयोग होता है.
             साधारण में हम " To " का प्रयोग परसर्ग के रूप में करते हैं और इसका अर्थ "को/से"  से लेते हैं लेकिन पत्रावली की भाषा में हम इसको "सेवा में" या "प्रति" के रूप में लेते हैं. मशीन अनुवाद में भी अगर हम पत्रों का अनुवाद करते हैं तो इसको ही प्रयोग करते  हैं.
             इसके साथ ही हम पत्र  में  यदि संक्षिप्त संकेतों का प्रयोग भी करते हैं तो उसका  विस्तृत रूप अनुवाद में प्राप्त होता है.
अंग्रेजी में हम "Ref :" ही लिखते हैं लेकिन अनुवाद करने के लिए मशीन इसको इसके पूर्ण रूप में विस्तृत करके ही अनुवाद देती है. "Ref :" का अनुवाद हमें "सन्दर्भ " ही मिलेगा कुछ और नहीं. सम्पूर्ण पत्र की भाषा को ये शासकीय भाषा में ही अनुवाद करती है.
           इससे हमें ये फायदा होता है कि कई स्थानों पर आने वाले पत्रों की भाषा और अंग्रेजी का गहन ज्ञान न रखने वाले लोगों के लिए भी ये सहज हो  जाता है कि अन्य विभागों से प्राप्त हुई सामग्री का वे अनुवाद करके ठीक से समझ सकते हैं. यहाँ भी द्विअर्थी शब्दों के लिए वही नियम प्रयोग में लाया जाता है  जैसे  कि  अगर हम शासकीय सामग्री का अनुवाद कर रहे हैं तो उसके लिए शासकीय शब्दकोष को प्रयोग करते हैं ताकि उससे अधिक विकल्प प्राप्त न हों.
                       जब हम हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद की बात करते हैं तो   एक प्रश्न हमसे पूछा जाता है कि क्या हमारी मशीन "गया गया गया" का सही अनुवाद दे सकती है. तो हमारा यही उत्तर होता है कि हाँ वो एकदम सही अनुवाद ही प्रस्तुत करेगी. वाक्य विन्यास के अनुसार ही अनुवाद भी होता है. इसमें प्रथम शब्द कर्ता  दूसरा कर्म और तीसरा क्रिया होगा. अतः हमें प्राप्त होने वाला अनुवाद "Gaya went to Gaya " ही होगा. यहाँ हम यह भी बता दें कि अगर कोई शब्द संज्ञा है और उसको हम व्यक्ति , स्थान और क्रिया तीनों रूपों में प्रयोग करते हैं तो भी हमारी मशीन उसको सही ढंग से प्रस्तुत कर देती है.
                       हाँ इसकी कुछ सीमायें भी हैं क्योंकि मशीन को पढ़ाने में हमने व्याकरण की शुद्धता पर भी ध्यान दिया है. इस लिए अगर हम कोई वाक्य अगर गलती से भी गलत लिख देते हैं तो वह हमें ये निर्देश देती है. " frame the sentence again " 
आज कल जो हमारी  मीडिया की भाषा हो गयी है या फिर हम जिसे fluent english कहते हैं उसमें व्याकरण की शुद्धता पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है.  अगर हम कभी किसी समाचार पत्र का कोई समाचार डालकर अनुवाद चाहते हैं तो हमें इस सीमा का ध्यान रखना होता है और अगर नहीं रखते हैं तो मशीन हमको याद दिला देती है. हर मशीन की अपनी सीमा होती है. चाहे हम उससे भौतिक कार्यों के लिए प्रयोग करें या फिर सॉफ्टवेयर  जैसी  चीज को प्रयोग करें. सीमा का तो हमें हर स्थान पर ध्यान रखना ही पड़ेगा. उसको हम उसकी कमजोरी नहीं मान सकते हैं बल्कि मनुष्य अधिक त्वरित कार्य करने वाली मशीन भले मनुष्य के वर्षों के प्रयास का फल हो फिर भी वह अगर मानव भूल का शिकार है तो वह उसको शुद्ध करके हमें नहीं दे सकती है. नियमानुसार वह इस बात के लिए इंगित कर सकती है और हमारे वाक्य को फिर से विन्यास कि सलाह दे सकती है.  वह मनुष्य से  द्रुत गति से काम करके वह मनुष्य के कार्य की गति को बढ़ा ही रही है. मानव भूल जैसी बात के लिए इसमें कोई स्थान नहीं होता है क्योंकि वह जो भी हमने उसको सूचनाएं दे रखी हैं वह उन्हीं को प्रयोग करके हमें प्रदान कर देती है. 
                मशीन अनुवाद कैसे हमारे लिए दिन पर दिन उपयोगी बनता जा रहा है, इसको हम आगामी अंशों में देख सकेंगे.
                        

गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010

ये अंधेरों में लिखे हैं गीत

Sn Mishraश्रद्धेय गुरु तुल्य स्व. श्री श्‍यामनारायण मिश्र हमारे साथ मेदक में काम करते थे। वहां उनसे नवगीत विधा में रचना की ढेर सारी जानकारी मिली और उनके मार्गदर्शन में बहुत कुछ सीखा। कई नवगीत लिखे भी। मेदक से मैं स्थानान्तरण होकर चंडीगढ आ गया। जब चंडीगढ में था तो उनसे पत्राचार होते रहते थे। आज उनका लिखा एक पत्र और उनकी एक रचना पोस्ट कर रहा हूं। अब वो हमारे बीच नहीं रहे। उनकी एक मात्र संतान उनकी पुत्री से इसे पोस्ट करने की अनुमति ले चुका हूं। हर सप्ताह गुरुवार के दिन उनकी एक रचना हम प्रकाशित करेंगे तथा नवगीत विधा पर कुछ चर्चा भी।

पत्र लिखना स्वयं में एक कला है। मुझे तो यह पत्र किसी साहित्यिक कृति से कम नहीं लगता। तो पहले पत्र फिर उनकी एक रचना।

आदरणीय मनोज कुमार साहब,

सादर नमस्‍कार।

आप तो जानते हैं कि कभी मेरी आत्‍मा गीतों में ही रची-बसी थी। भावपूर्ण गीतों के साथ आपके पत्र मिलते ही मैं अपने अतीत में लौट आता हूँ। इन गीतों से मेरे भी सुख दुख जुड़े हैं इसलिए मुझे ये प्रिय हैं। गीत हमारी रग रग में प्रवाहित होते हैं। इतने प्राकृतिक हैं ये। हवाओं का, पानी का और हमारे मन का साथ साथ बहना किसी धुन किसी लय और किसी छंद में ही होता है।

हू-हू हाय-हाय कल कल कल कल

सूं-सूं-धांय-धांय छल छल छल छल

कू-कू-कांय-कांय (कांव कांव) भल भल भल भल

चूं चूं चांय-चांय तल तल तल तल

टू-टू टांय-टांय मल मल मल मल

ठू-ठू ठांय ठांय पल पल पल पल

कुछ प्राणियों के स्‍वर भी उदाहरण के रूप में देखे जा सकते हैं

पंत जी ने लिखा है - "टी बी टी टुट टुट बोल रही थी चिडि़यां।"

तीतर बोलता है -- चिड़ी कोको, चिडि़ कोको ।

बटेर की आवाज -- चह गुल गुल, चह गुल गुल

चक्रवाक का स्‍वर है -- दुर्र पों, दुर्र पों ।।

मानसून आते ही हर दिशाओं में पंछियों की कुछ ऐसी ही बोलियां गूंज उठती है। तिल बोऊं कि कक्‍करा। उठो लोगो जिमी जोतो। उठ पूल तिल पूर। पचीस तीस लात। बस इनकी आवृतियों पर नजर (ध्‍यान) रखते रखते मेरे ओठो पर छंद ताल लय से पूरित गीत थिरकने लगते थे। ग्‍वालों का बंशी अलगोजा, बच्‍चों की पपिहरी, लड़कियों का फुंकनी फुकना, गायों के गले लकड़ी के घंटी नुमा खड़खड़े बजना मुझे सब कुछ गीत नुमा लगते थे। देहातियों का गाली गलौज करना - हरामजादे, कमीने की औलाद, मुंहजले या और भी फूहड़ गालियां -- सब कुछ तो गीत मय ही था। बच्‍चों का कुछ बोलकर मुंह चिढ़ाना, रोना, मचलना, छींकना-डकारना क्‍या सब लय बद्ध ताल बद्ध और छंद बद्ध (आवृतियों के साथ) नहीं है? इसलिए मैं गीत के समर्थन में सदा रहा। तथाकथित कविता गद्य से या नई कविता से मुझे कोई शिकायत नहीं, मैं उसे कविता नहीं मानता क्‍योंकि वह प्राकृतिक नहीं है। मैं अतीत की दूरी में जाकर काव्‍य की व्‍याख्‍या के पचड़े में नहीं पड़ना चाहता हमें अपने ही युग में जीना और मरना है।

अपनी ही सांस की धुन सुनकर मन कभी हिरन सा बिदक उठता है, मैं इसे भी कविता में बांध चुका हूँ। फिर कोई कारण नहीं है कि हमारे तमाम जीवन्‍त क्रिया-कलाप गीतों के अंश नहीं बनते। सचमुच वह बड़ा अलग संसार था। कई बार अस्तित्‍व की रक्षा के लिए बचाव की मुद्रा में आना पड़ा और अब तो बस बचाव में जीवन उलझकर रह गया है। आप मेरे जीवन यथार्थ से भली भांति परिचित हैं। समय ने मुझे कुछ भी न बनने दिया, यह कहना ठीक नहीं। बस अपने व्‍यक्तित्‍व में ही कुछ कमियां थी कि हम समय या अवसर से लाभ लेना न सीख सके।

मुझे पूरा विश्‍वास है आप अपने पूरे जीवन का सदुपयोग सृजन में कर सकेंगे। ईश्‍वर ने आपको प्रतिमा के साथ-साथ चयन की क्षमता, काल का विशाल फलक दे रखा है। बस गावं या नदियों वाली रचना की तरह शब्‍दों से गीत चित्र बनाते रहें। आपके सुखद-सफल भविष्‍य की कामना के साथ पत्र समाप्‍त करता हूँ।

भवदीय

श्‍यामनारायण मिश्र

अब

नवगीत

ये अंधेरों में लिखे हैं गीत

श्‍यामनारायण मिश्र

ये अंधेरों में लिखे हैं गीत

सूर्य से इनको जंचाना चाहता हूँ।

दिनभर आकाश से आखें लड़ाकर

शहतीर के नीचे दुबककर सो गई चिडि़या,

आंखों में सतरंगी इन्‍द्रधनुष के अंडे

सपनों के सुख में ही खो गई चिडि़या,

कुंठा के कोबरे-करैतों की

दाढ़ से इसको बचाना चाहता हूँ ।

एक ओर घर था एक ओर जंगल

घर को अपनाकर वह परेशान क्‍यों है?

जिसको बेआबरू करके निकाला था

आंखों में अब भी वह मेहमान क्‍यों है?

आघात से अनवरत रिसता है,

इस रंग से जीवन रचाना चाहता हूँ ।

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

कविताओं में प्रतीक - शब्दों में नए सूक्ष्म अर्थ भरता है

कविताओं में प्रतीक

शब्दों में नए सूक्ष्म अर्थ भरता है

IMG_0531 मनोज कुमार

यर्थाथ के धरातल पर हम अगर चीजों को देखें तो लगता है कि हमारे संप्रेषण में एक जड़ता सी आ गई है। यदि हमारी अनुभूतियां, हमारी संवेदनाएं, यर्थाथपरक भाषा में संप्रेषित हो तो बड़ा ही सपाट लगेगा। शायद वह संवेदना जिसे हम संप्रेषित करना चाहते हैं, संप्रेषित हो भी नहीं। अच्‍छा लगा” और मन भींग गया” में से जो बाद की अभिव्‍यक्ति है, वह हमारी कोमल अनुभूति को दर्शाती है। अतींद्रिय या अगोचर अनुभवों को अभिव्‍यक्ति के लिए भाषा भी सूक्ष्‍म, व्‍यंजनापूर्ण तथा गहन अर्थों का वहन करने वाली होनी चाहिए। भाषा में ये गुण प्रतींकों के माध्‍यम से आते हैं।

 

प्रयोगवाद के अनन्य समर्थक अज्ञेय ने अपने चिंतन से कविता को नई दिशा दी। उन्होंने परम्परागत प्रतीकों के प्रयोग पर करारा प्रहार करते हुए शब्दों में नया अर्थ भरने की बात उठाई थी। उनकी वैचारिकता से बाद के अधिकाँश कवियों ने दिशा ली, प्रेरणा ली और कविताओं में नए रंग सामने आने लगे।

इसे स्‍पष्‍ट करने हेतु अज्ञेय की एक छोटी सी कविता लेते है –

उड़ गई चिडि़या,

कांपी,

स्‍थिर हो गई पत्ती।

चिडि़या का उड़ना और पत्ती का कांपकर स्थिर हो जाना बाहरी जगत की वस्‍तुएँ है। परंतु कवि का लक्ष्‍य इसे चित्रित करना नहीं है। वह इनके माध्‍यम से कुछ और कहना चाहता है। जैसे किसी के बिछुड़ने पर मन में उभरती और शांत होती हलचल। इस मनोभाव को समझाने के लिए कवि ने बाहरी जगत की वस्‍तुओं को केवल प्रतीक के तौर पर लिया है।

एक और उदाहरण लें। हमारे मित्र अरूण चन्द्र रॉय की कविता कील पर टँगी बाबूजी की कमीज़ ! नए बिम्बों के प्रयोग के संदर्भ में देखें तो अरुण राय ने कविता में 'कील' को प्रतीक रूप प्रयोग कर अपने कौशल से विस्तृत अर्थ भरने का सार्थक प्रयास किया है। प्रयोग की विशिष्टता से कील मानवीय संवेदना की प्रतिमूर्ति बन सजीव हो उठी है। कील महज कील न रहकर सस्वर हो जाती है और अपनी अर्थवत्ता से विविध मानसिक अवस्थाओं यथा - आशा, आवेग, आकुलता, वेदना, प्रसन्नता, स्मृति, पीड़ा व विषाद का मार्मिक चित्र उकेरती है।

शर्ट की जेब
होती थी भारी
सारा भार सहती थी
कील अकेले

एक प्रतीक है कील, जिस पर टंगी है पिता जी की कमीज़, जिन की जेब पर हमारी आशा, उम्मीद, आंकाक्षा टंगे होते हैं, और वे इसे सहर्ष उठाए रहते हैं। कील द्वारा शर्ट का भार अकेले ढोना संवेदना जगाता है और यह परिवार के जिम्मेदार व्यक्ति द्वारा मुश्किलों का सामना करते हुए उत्तरदायित्वों को कठिनाई से निर्वाह करना व्यंजित कर जाता है। अर्थात्‌ इस रचना में मूर्त जगत अमूर्त भावनाओं का प्रतीक बनकर प्रस्‍तुत हुआ है।

प्रतीक के माध्‍यम से हम अपने आशय को साफ-सपाट रूप में प्रस्‍तुत करने की जगह सांकेतिक रूप में अर्थ की व्‍यंजना करते हैं। यह अभिधापरक नहीं होता। फलतः इसमें अर्थ की गहनता, गंभीरता तथा बहुस्‍तरीयता की प्रचुर संभावना होती है। इससे कविता का सौंदर्य बढ़ जाता है।

कविता में यदि हम किसी शाश्‍वत सत्‍य की व्‍यंजना प्रस्‍तुत करना चाहते हैं तो वह प्रतीकों के माध्‍यम से ही संभव है। ये सनातन सत्‍य का संकेत बड़ी आसानी से दे जाते हैं। “कबीर” जैसे अनपढ़ व्‍यक्ति भी प्रतींकों के माध्‍यम से अपनी बात बड़ी आसानी से कह गए और लोगों को उनके कहे के सैंकड़ों वर्षों बाद भी उनमें नयापन दीखता है।

जैसे पकड़ बिलाड़ को मुर्गे खाई” या नैय्या बीच नदिया डूबी जाए।” इस आधार पर हम कह सकते हैं कि प्रतीक भौतिक तथा अध्‍यात्मिक जगत को, मूर्त और अमूर्त को मिलाने का माध्‍यम है।

ऐडगर ऐलन पो के शब्‍द लें तो कह सकते हैं कि

इस संसार का सौंदर्य एक विराट आध्‍यात्मिक सौंदर्य का प्रतिबिम्‍ब मात्र है और कविता उस प्रतिबिम्‍ब के चित्रण के जरिए उस अगम्‍य सत्‍य तक पहुँचती है।”

तभी तो कहा गया है –

जहां न जाए रवि

वहां जाए कवि।”

जिसे हम देख सकते वह तो प्रकाश से संभव है। पर जिसे हम नहीं देख सकते, मात्र महसूस कर पाते हैं, उसे अपने अंतर में ही समझ पाते हैं, वह अमूर्त आत्‍म तत्‍व है। इन आंतरिक संवेदनाओं तथा अनुभव को काव्‍य में अभिव्‍यक्ति मिलनी चाहिए। वस्‍तु के स्‍थान पर भावों तथा विचारों की प्रस्‍तुति को प्रतीकों के माध्‍यम से कविता के शिल्‍प शैली में निखार आता है।

पर रूढ़ प्रतीकों का सदा समर्थन नहीं करना चाहिए। जैसे अंधकार सदा निराशा का प्रतीक और उजाला सदा आशा का प्रतीक। कुछ नया, कुछ अलग भी सोचना चाहिए। हर रचनाकार के व्‍यक्तित्‍व तथा जीवनदृष्टि में अंतर तो होता ही है। इसलिए उसके विचार, संवेग, मनोभाव भी औरों से अलग होते हैं। अभिव्‍यक्ति के लिए हर रचनाकार अपने व्‍यक्ति-विशिष्‍ट के अनुसार प्रतीकों की तलाश करता है। किसी की रचना में मैं पढ़ रहा था डायरी में पड़ा सूखा गुलाब, यह समाप्‍त हो गई मुहब्‍बत का प्रतीक था, वहीं समीर जी की रचना गुलाब का महकना... में वह हर पल खुश्‍बू बिखेरती सहेजकर रखी याद के रूप में इस्तेमाल हुआ है।

 

खोलता हूँ
नम आँखों से
डायरी का वो पन्ना
जहाँ छिपा रखा है
गुलाब का एक सूखा फूल
जो दिया था तुमने मुझे
और
भर कर अपनी सांसो में
उसकी गंध
बिखेर देता हूँ
एक कागज पर...

 

कविता में हमें वस्‍तुपरक वर्णन तथा मूर्त्त व्‍यापारों के चित्रण से बचना चाहिए। यह तो रचनाकार के ऊपर है कि वह कब किस वस्‍तु को किस भाव के प्रतीक के तौर पर इस्‍तेमाल करता है। केवल दृश्‍य ही प्रतीक नहीं ध्‍वनि भी प्रतीक हो सकते हैं। ध्वनि से विशिष्‍ट भावों की व्‍यंजना दिखाई जा सकती है – बीती विभावरी जाग री” कविता में कवि जयशंकर प्रसाद जब खग-कुल कुल-कुल सा बोल रहा।” कहते हैं तो कुल-कुल” केवल पक्षियों के कलरव को प्रभाव नहीं देता, यह प्रतीक है देश, समाज तथा साहित्‍य के आते जागरण के उल्‍लास तथा उत्‍साह का।

इसमें यह सावधानी बरतनी चाहिए कि कविता का विशिष्‍ट लय बाधित न हो। साथ ही प्रतीक में इंद्रियातीत अगम्‍य अनुभवों तथा स्थितियों की अभिव्‍यक्ति की क्षमता होनी चाहिए। इस प्रकार की अभिव्‍यंजना तभी संभव है जब शब्‍दों का उनके परिचित सामान्‍य अर्थ-संदर्भों से काट दिया जाए। अर्थात रचना में शब्द पारम्‍‍परिक अर्थ न देकर वही अर्थ दे जो कवि का अभिप्राय हो। यही बात सामान्‍य या विशिष्‍ट घ्‍वनि के व्‍यंजक प्रयोग पर भी लागू होती है। शब्द योजना ऐसी हो जो भाषा में नवीनता प्रदान करे। एक दो उदाहरण से बात स्पष्ट करता हूं।

वो चांद की तरह सुंदर मुखड़े वाली है” यह प्रतीक बहुत पुराना है। इसका ज़माना ख़्त्म हो गया। इसे जब यूं कहा गया “वह रुपये की तरह सुंदर थी और उसका लावण्य रोटी की तरह तृप्ति देने वाला था” तो ऐसा लग रहा है जैसे उस सुंदरता को देख कर मन जुड़ा गया। यहां रुपया और रोटी नए प्रतीक के रूप में आए हैं।

एक और उदाहरण लें, गया है। सपनों में फफूंद लग गई है”! ‘फफूंद’ शब्द तो पुराना है पर शब्द योजना ऐसी है कि नया अर्थ प्रदान कर रहा है। या फिर इसी तरह का प्रयोग “सारे सपने गधे चर गए” में मिलता है।

तो हमें दोनों बातें ध्‍यान में रखनी चाहिए, - एक नए प्रतीकों को अपनी रचनाओं में लाएं और दूसरे पारम्‍परिक प्रतीकों के नए प्रयोग पर बल दें। इससे रचना में नवीनता आएगी तथा भाषा के इस्तेमाल में वह शब्‍दों में नए सूक्ष्म अर्थ भरेगा।

इस आलेख का अंत करने के पहले हम आपका ध्‍यान अज्ञेय की कविता “कलगी बाजरे की” पर ले जाना चाहेंगे। यह कविता एक ढर्रे पर चलने वाली कविता से उनके विरोध को दर्शाती है।

अगर मैं तुमको

          ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका

          अब नहीं कहता,

         या शरद के भोर की नीहार-न्हायी-कुंई,

        टटकी कली चम्‍पे की

        वगैरह, तो

नहीं कारण कि मेरा हृदय उथलाया कि सूना है

या कि मेरा प्यार मैला है।

      बल्कि केवल यही :

      ये उपमान मैले हो गए हैं

      देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच!

कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्‍मा छूट जाता है।

इस कविता द्वारा अज्ञेय ने नए प्रतीकों की आवश्‍यकता पर बल दिया है। अज्ञेय प्रयोग और अन्‍वेषण को कविता का महत्‍वपूर्ण प्रयोजन बताते हैं। उनका कहना था कि राग वही रहने पर भी रागात्मक संबंधों की प्रणालियाँ बदल गई है। अतः कवि नए तथ्यों को उनके साथ नए रागात्‍मक संबंध जोड़कर नए सत्‍यों का रूप दे -- यही नई रचना है। जिसमें वस्‍तु और भाषा तथा रूप की नवीनता होगी।

मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

समकालीन डोगरी साहित्य के प्रथम महत्वपूर्ण हस्ताक्षर : श्री नरेन्द्र खजुरिया

समकालीन डोगरी साहित्य के प्रथम महत्वपूर्ण हस्ताक्षर : श्री नरेन्द्र खजुरिया

अरुण सी राय

डोगरी साहित्य ने अपनी विविधता, लोकजीवन से निकट और नवीन विचारों के कारण भारतीय साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है. डोगरी भाषा के प्रथम साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत स्वर्गीय नरेन्द्र खजुरिया का लेखन काल बेहद कम रहा लेकिन उन्होंने डोगरी साहित्य को नई दिशा दी. अरुण चन्द्र रॉय दे रहे हैं स्वर्गीय नरेन्द्र खजुरिया का संक्षिप्त परिचय.

अपना देश विविधताओं से भरा है. देश के रंग और संस्कृति को जानने के लिए विभिन्न प्रदेशों की लोक भाषों से सशक्त को और माध्यम नहीं. ऐसे में यदि सुदूर उत्तर की सांस्कृतिक पहचान देश तक पहुंची है तो डोगरी कथा, कविता, निबंध के माध्यम से. साहित्य अकादमी ने १९७० से डोगरी भाषा में अकादमी पुरस्कार देना प्रारंभ किया था और पहली बार श्री नरेन्द्र खजुरिया को मरणोपरांत उनके कथा संग्रह "नीला अम्बर काले बादल" के लिए पुरस्कृत किया गया था. इस कथा संग्रह को समकालीन डोगरी साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है.

डोगरी साहित्य के विशिष्ठ कथाकार, कवि, नाटककार स्वर्गीय नरेन्द्र खजुरिया का जन्म जम्मू जिले में १९३३ में हुआ था और ३७ वर्ष की अल्प आयु में साहित्य साधना करके १९७० में उनका देहांत हो गया. साहित्य उनका पहला प्रेम था. उन्होंने एक बार कहा था, "मुझे अपनी वे कहानिया पसंद हैं जो मैंने अभी नहीं लिखी, केवल मूल विचार अपने मन की डाइरी में लिख रखें हैं. मैं अपने को उन्हें लिखने में समर्थ नहीं समझता."

जब वे छः वर्ष के थे तभी उनकी माता का देहांत हो गया था और मात्र आठ वर्ष के थे जब उनके पिता चल बसे. फलस्वरूप उनका लालन पालन उनके बड़े भाई श्री रामनाथ शास्त्री ने किया. शिक्षा समाप्त करने के उपरान्त श्री खजुरिया राज्य के शिक्षा विभाग में प्राथमिक शिक्षक बन गए और उन्हें सुदूर गाँव में पदस्थापित कर दिया गया. वहीँ जमीन, आम आदमी, प्रकृति और लोक कला के बीच रहकर उन्होंने साहित्य का सृजन किया. यहाँ उन्हें सरल पहाड़ी जन का निकट संपर्क प्राप्त हुआ जिनसे वे अपनी रचनाओं के लिए प्रेरणा पाते रहे.

१९६४ में श्री खजुरिया को जम्मू एंड कश्मीर अकादमी आफ आर्ट, कल्चर एंड लन्गुएज़ के अधीन हिंदी पत्रिका शीरजा का संपादक नियुक्त किया गया. उर्वर लेखन के धानी श्री खजुरिया ने अपनी इस अल्प चर्या में अनेक विधाओं में रचना की और अपने पृथक दृष्टिकोण, वैचारिक ताजगी के कारण डोगरी साहित्य के क्षेत्र में पदचिन्ह अंकित किये.

उनका पहला कथा संग्रह "कोले दिया लीकरां" डोगरी कथा साहित्य में एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ और इसे नई दिशा और विचार प्राप्त हुए. साहित्य अकादमी द्वारा १९७० में पुरस्कृत पुस्तक "नीला अम्बर, काले बादल" उनका दूसरा कहानी संग्रह है. अपनी मनोहर गद्य शैली और यथार्थ परक चरित्र चित्रण से युक्त यह कथा संग्रह समकालीन डोगरी साहित्य में महत्वपूर्ण देन है.

पुरस्कृत पुस्तक नीला अम्बर, काले बादल में आठ कहानिया हैं जो लोक जीवन, प्रकृति प्रेम, सांस्कृतिक विविधता के रंगों से रंगे हैं. ये कहानिया हैं - कास्तु का काला तीतर, इनामी कहानी, एक कविता का अंत, नीला अम्बर काले बादल, अपना अपना धर्म, पंछी लौटे पर..., धागे और चट्टान एवं सद्दरो दाई.

नरेन्द्र खजुरिया जी कहते हैं , " साम्बा के बस अड्डे पर मैंने पुलिस की हिरासत में एक स्त्री को देखा. उसपर किसी का बछा चुराने का आरोप था. जाने क्यों मुझे उस स्त्री के चेहरे पर कहीं भी पाप, अत्याचार या बुराई का कोई चिन्ह दिखाई नहीं दिया. इस तरह सद्दरो दाई कहानी बनी" यह कथाकार के संवेदनशील ह्रदय को दर्शाता है.  बेमेल विवाह जो केवल उम्र के लिहाज से नहीं बल्कि रहन सहन, विचारों की भिन्नता के आधार पर भी जो जाते हैं और इसी विषय पर उन्होंने एक कहानी लिखी "एक कविता का अंत" .  अपने पात्रों के बारे में स्वर्गीय नरेन्द्र खजुरिया ने कहा था कि "मुझे वे पात्र अधिक पसंद हैं जो अभी मेरी लेखनी के कैदी नहीं बने." केवल ३७ वर्ष की आयु में १९७० में श्री खजुरिया के अकाल मृत्यु से ना केवल डोगरी साहित्य को क्षति हुई बल्कि सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में कुछ अधूरा, कुछ रिक्त रह गया.

सोमवार, 25 अक्टूबर 2010

कविता :: इम्तहान

कविता

इम्तहान

संगीता स्वरूप

ज़िंदगी में इम्तहान तो
हर घड़ी चला करते हैं
कुछ स्वयं आ जाते हैं सामने
तो कुछ हम खुद चुन लिया करते हैं
और जो बचते हैं वो
हम पर थोप दिए जाते हैं।

और मान लिया जाता है कि
ज़िंदगी के इम्तिहान में
हमें सफल होना है।

यूँ ज़िंदगी से
जद्द-ओ -जहद करते हुए
हर इंसान
कदम दर कदम
आगे बढ़ता है
हर लम्हा कुछ
नया खोजते हुए
कुछ नया चाहते हुए
अपनी ख्वाहिशों को
अपनों पर लुटाते हुए।

क्या पता ऐसा करना
उसकी मजबूरी होती है या ज़रूरत ?
या फिर अपनों के प्रति
श्रद्धा या क़ुर्बानी
पर प्यार भरी डगर पर
चलते - चलते वो इंसान
अचानक ख़त्म कर देता है
अपनी कहानी॥

और फिर -
एक नाकाम सी कोशिश में
सब कुछ भूलने का प्रयास करते हुए
स्वयं उलझ कर रह जाता है

रविवार, 24 अक्टूबर 2010

कहानी ऐसे बनी-९ :: गोनू झा मरे ! गाँव को पढ़े !

कहानी ऐसे बनी-९

गोनू झा मरे! गाँव को पढ़े!

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमा

राम-राम हजूर! देखते ही देखते सप्ताह बीत गया और फिर आ गया रविवार कहानी ऐसे बनी का दिन! अब क्या बताएं, आज सुबह-सुबह ब्लॉग पर आए तो ऐसा  अमोल बोल देखे कि गाँव की एक पुरानी कहावत याद आ गयी। हमारे मिथिलांचल में कहते हैं 'गोनू झा मरलथि ! सौंसे गाम जंचलथि!!' अर्थात्‌ 'गोनू झा मरे ! गाँव को पढ़े !!'

आपको गोनू झा के किस्से तो मालूम ही होंगे। यदि नहीं मालूम है तो कोई बात नहीं। हम फिर से कह देते हैं। वही कमला-बलान के किनारे मिथिला का प्रसिद्ध गाँव है, भरवारा। उस गांए के  बड़े पोखर के सामने जो ऊंचा आवास है न.... वह गोनू झा का ही है। गोनू झा की चालाकी के किस्से तो मिथिलांचल क्या अगल-बगल के क्षेत्र में भी एक युग से प्रचलित है। गोनू झा किसी स्कूल-कॉलेज में पढ़े नहीं. थे .. वे तो मिथिला का एक सीधा-सादा किसान थे। लेकिन हाज़िरजवाबी और चतुराई में बड़े-बड़े विद्वान को धूल चटा देते थे।

अब तो गाँव की बात पता ही है। उनकी चालाकी से भी सभी गाँव वाले जलते थे लेकिन मुंह पर उनका 'फैन' बने फिरते थे। पर गोनू झा की छठी बुद्धि को शक था कि लोगो के प्यार में कुछ झूठ मिश्रित है। वे बहुत दिनों से गाँव-घर के लोगों के अनमोल प्यार की परीक्षा लेने का प्लान बना रहे थे। अगर बात सिर्फ गाँव वालों की ही होती तब तो गोनू झा अपने जोगार टेक्नोलोजी से उनको तुरत फिट कर देते। मगर उनको तो अपने घर के लोगों की बातों में भी मिलाबट की महक आती थी। सो उन्होंने सोचा कि क्यूँ न सबका एक ही 'कॉमन टेस्ट एग्जाम' ले लिया जाय।

बहुत सोच-विचार कर झा जी एक दिन सुबह में उठे ही नहीं! सूरज चढ़ गया छप्पर के ऊपर मगर गोनू झा बिछावन नहीं छोड़े। तब ओझाइन को थोड़ा अंदेशा हुआ। गयी जगाने तो यह क्या ....  हे भगवान .... अरे बाप रे बाप...!!! झा जी के मुंह से तो झाग निकला हुआ था और बेचारे बिछावन से गिरकर नीचे एक कोने में लुढ़के पड़े थे। ओझाइन तो लगी कलेजा पीट के वहीं चिल्लाने। बेटा भी माँ की आवाज़ सुन कर बाबू के कमरे में आया। वहाँ का नजारा देख कर उसका कलेजा भी दहल गया। वह भी लगा फफक-फफक कर रोने।

इधर ओझाइन कलेजे पर दोनों गाथ मार-मार कर चिल्ला रही हैं,.... उधर बेटा कहे जा रहा है कि हमारा सब कुछ कोई लेले बस हमारे बाबूजी को लौटा दे। इस महा दुखद खबर सुन कर गोनू झा से उनको मरणोपरांत अपने खर्चा पर गंगा भेजने का वादा करने वाले मुखिया जी भी पहुँच गए। गोदान का भरोसा दिलाने वाले सरपंच बाबू भी। लगे दोनों जने झा जी के बेटे को समझाने। "आ..हा...हा... ! बड़े परतापी आदमी थे। पूरे जवार में कोई जोर नहीं। अब विध का यही विधान था।"

उधर ज़िन्दगी भर झा जी का चिलमची रहा अकलू हजाम औरत महाल में ज्ञान बाँट रहा है। 'करनी देखो मरनी बेला !' देखा गोनू झा जैसे उमर भर सब को बुरबक बनाते रहे वैसे ही चट-पट में अपना प्राण भी गया। सारा भोग बांक़ी ही रह गया।'

सरपंच बाबू ओझाइन को दिलासा दिए, 'झा जी बहुत धर्मात्मा आदमी थे। सीधे स्वर्ग गए। अब इनके पीछे रोने-पीटने का कोई काम नहीं है। कुछ रुपया-पैसा रखे हैं तो गौदान करा दीजिये। बैकुंठ मिलेगा।'

उधर मुखिया जी उनके बेटे को बोले, जल्दी करो भाई, घर में लाश अधिक देर तक नहीं रहना चाहिए। ऊपर से मौसम भी खराब है। प्रभुआ और सीताराम को तुम्हारे गाछी में भेज दिया है पेड़ काटने। जल्दी से ले के चलो। फिर दो आदमी से पकड़ कर झा जी को कमरे से बाहर निकालने लगे। लेकिन गोनू झा कद काठी के जितने ही बड़े थे उनके घर का दरवाजा उतना ही छोटा था। अपनी जिन्दगी में तो झा जी झुक कर निकल जाते थे। लेकिन अभी लोग बाहर कर ही नहीं पा रहे थे। तभी मोहन बाबू कड़क कर बोले, “अरे सुरजा बढई को बुलाओ। दरवाजा काट देगा।”

सूरज तुरत औजार-पाती लेकर हाज़िर भी हो गया। तभी झा जी का बेटा बोल पड़ा, 'रुको हो सूरज भाई ! बाबू जी तो अब रहे नहीं। उन्होंने बड़े शौक से यह दरवाजा बनवाया था। इसे काटने से उनकी आत्मा को भी तकलीफ होगी। अब तो वे दिवंगत हो गए। शरीर तो उनका रहा नहीं। इसलिए उनके पैर को बीच से काट कर छोटा कर दो। फिर आराम से निकल जायेंगे।'

images (3) ‘हूँ’ कर के सूरज बढई जैसे ही झा जी के घुटने पर आरी भिड़ाया कि गोनू झा फटाक से उठ कर बैठ गए.... और बोले “रुको! अभी हम मरे नहीं हैं। वह तो हम तुम सब लोगों की परीक्षा ले रहे थे कि मुंह पर ही खाली अपने हो कि मरने के बाद भी।”

अब तो सरपंच बाबू, मुखिया जी, अकलुआ हजाम, सूरज बढ़ई और उनका अपना बेटा... सब का मुंह बासी जलेबी की तरह लटक गया। आखिर सब की कलई जो खुल गयी थी। गोनू झा तो नकली मर के असली जी गए लेकिन तभी से यह कहावात बन गयी कि "गोनू झा मरे ! गाँव को पढ़े !!"

मतलब बुरे वक़्त में ही हित और अहित की पहचान होती है।

शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

पक्षियों का प्रवास-2

पक्षियों का प्रवास-2

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मनोज कुमार

पक्षियों का प्रवास-1 का लिंक यहां है।

पक्षियों में कुछ प्रवास ऋतुओं पर आधारित होता है। ब्रिटेन में बतासी (स्विफ्ट्स), अबाबील (स्वैलो), बुलबुल (नाइटिंजेल), पपीहा (कक्कू) गृष्म काल में पहुंचते हैं। दक्षिण की दिशा से यहां आकर वे प्रजनन करते हैं एवं शरत्काल तक यहां व्यतीत करते हैं। इसी तरह जाड़े के मौसम में आने वाले पक्षी हैं पथरचिरटा (बंटिंग)। सर्दियों में बर्फ की चादर बिछते ही विदेशी पक्षी मूलतः पूर्वी यूरोप साईबेरिया अथवा मध्य एशिया से हजारों मील की दूरी का सफर तय करके भारत के कई भागों और पंक्षी उद्यान में पहुंचते हैं।

इन विदेशी मेहमानों का सफरनामा भी कम रोचक नहीं है। आखिर कैसे ये निरीह अपना कार्यक्रम, देश व दिशा तय करते हैं? बत्तख (डक्स), सामुद्रिक (गल्स) एवं समुद्र तटीय पक्षी रात या दिन किसी भी समय अपनी यात्रा करते हैं। पर कुछ पक्षी जैसे कौए, अबाबील, रोबिन, बाज, नीलकंठ, क्रेन, मुर्गाबी (लून्स), जलसिंह (पेलिकन्स), आदि केवल दिन में ही उड़ान भरते हैं। अपनी लम्बी उड़ान के दौरान ये कुछ देर के लिए उचित जगह पर चारे की खोज में रुकते हैं। किन्तु अबाबील और बतासी तो अपने आहार कीट-पतंगों को उड़ते-उड़ते ही पकड़ लेते हैं। दिन में उड़ने वाले पक्षी झुंड में चलते हैं। बत्तख, हंस एवं बगुले में झुंड काफी संगठित होता है। इन्हें टोली का नाम दिया जा सकता है। जबकि अबाबील का झुंड काफी बिखरा-बिखरा होता है।

अधिकांश पक्षी रात में ही लंबी यात्रा करना पसंद करते हैं। इस श्रेणी में बाम्कार (थ्रशेज), एवं गोरैया (स्पैरो) जैसे छोटे-छोटे पक्षी आते हैं। ये अंधेरे में अपने शत्रुओं से बचते हुए यात्रा करते हैं। इसके अलावा एक और बात महत्त्वपूर्ण है, यदि ये पक्षी दिन में यात्रा करें तो रात होते-होते काफी थक जाएंगे। अतः अगली सुबह ऊर्जाहीन इन पक्षियों को अपने आहार प्राप्त करने में काफी दिक़्क़त होगी। यह उनके लिए प्राणघातक भी साबित हो सकता है। जबकि रात को चलते हुए सवेरा होते-होते ये उचित जगह पर थोड़ा विश्राम भी कर लेते हैं, फिर भोजनादि की तलाश में जुट जाते हैं। रात होते ही आगे की यात्रा पर पुनः निकल पड़ते हैं।

ये एक साथ आकाश में सैनिकों की भाँति अनुशासनात्मक पंक्तिबद्ध उडान भरते हैं। कुछ पक्षी जैसे बाज, बतासी, कौड़िल्ला (किंगफिशर), आदि अलग-अलग अपनी ही प्रजाति की टोली में चलते हैं। जबकि अबाबील, पीरू (टर्की), गिद्ध एवं नीलकंठ कई प्रजातियों की टोली में चलते हैं। इसका कारण उनके आकार-प्रकार का एक ही तरह का होना या फिर आहार की प्रकृति एवं पकड़ने के तरीक़े का समान होना हो सकता है। कुछ प्रजातियों में नर और मादा की टोली अलग-अलग चलती है। नर गंतव्य पर पहले पहुंच कर घोंसलों का निर्माण करता है। जबकि मादा अपने साथ नन्हें शिशु पक्षी को लिए पीछे से आती है।

अपनी प्रवासीय यात्रा के दौरान ये पक्षी कितनी दूरी तय करते हैं यह उनकी स्थानीय परिस्थिति एवं प्रजाति के ऊपर निर्भर करता है। इनके द्वारा तय की गई यात्रा की दूरी मापने के लिए पक्षी विज्ञानी इन्हें बैंड लगा देते हैं या फिर इनके ऊपर रिंग लगा देते हैं। फिर जहां वे पहुंचते हैं, उसका उन्हें अंदाज़ा हो जाता है। और तब दूरी माप ली जाती है। आर्कटिक क्षेत्र के कुररी (टर्न) पक्षी को सबसे ज़्यादा दूरी तय करने वाला पक्षी माना जाता है। लेबराडोर की तटों से ये ग्यारह हज़ार मील की दूरी तय कर अन्टार्कटिका में जाड़े के मौसम में पहुंचते हैं। इतनी ही दूरी तय कर गर्मी में ये वापस लौट जाते हैं। इसी तरह की मराथन उड़ान भरने वाली अन्य प्रजातियां हैं सुनहरी बटान, टिटिहरी (सैंड पाइपर) एवं अबाबील। ये आर्कटिक क्षेत्र से अर्जेन्टिना तक की छह से नौ हज़ार मील की दूरी तय करते हैं। यूरोप के गबर (व्हाइट स्टौर्क) जाड़ों में आठ हज़ार माल की दूरी तय कर दक्षिण अफ्रीका पहुंच जाते हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि प्रवासी पक्षियों में ज़बरदस्त दमखम होता हागा, नहीं तो इतनी दूरी तय करना कोई आसान बात नहीं है। इस जगत में इनसे ज़्यादा अथलीट शायद ही कोई जीव होगा। प्रवासी यात्रा आरंभ करने के पहले ये पक्षी अपने अंदर काफी वसा एकत्र कर लेते हैं जो उनकी उड़ान वाली यात्रा के दौरान इंधन का काम करते हैं।

दूरी के साथ-साथ अपनी उड़ान में जो ऊंचाई ये छूते हैं वह भी कम रोचक नहीं है। कुछ तो जमीन के काफी साथ-साथ ही चलते हैं, जबकि सामान्य रूप से ये तीन हज़ार फीट की ऊंचाई पर उड़ान भरते हैं। उंचाई पर उड्डयन में कठिनाई यह होती है कि ज्यों-ज्यों उड़ान की ऊंचाई अधिक होती जाती है त्यों-त्यों संतुलन एवं गति बनाए रखना काफी मुश्किल हो जाता है। क्योंकि ऊपर में हवा का घनत्व काफी कम होता है और हवा की उत्प्लावकता (बुआएंसी) काफी कम हो जाती है। रडार के द्वारा पता लगा है कि कुछ छोटे-मोटे पक्षी पांच हज़ार से पंद्रह हज़ार फीट तक की ऊंचाई पर भी उड़ान भरते हैं। यहां तक कि हिमालय या एंडेस की पहाड़ियों को पार करते समय ये पक्षी बीस हज़ार फीट या उससे भी अधिक की ऊंचाई प्राप्त कर लेते हैं।

ऐसे प्रमाण मिले हैं जिससे यह पता लगता है कि पक्षी अपनी प्रवासीय यात्रा के दौरान सामान्य से अधिक गति से यात्रा करते हैं। छोटे-छोटे पक्षियों की यात्रा में औसत गति तीस मील प्रति घंटा होती है। जबकि अबाबील और अधिक गति से उड़ते हैं। बाज की गति तीस से चालीस मील प्रति घंटा होती है। तटीय पक्षी की गति चालीस से पचास मील प्रति घंटा होती है। जबकि बत्तख की गति पचास से साठ मील प्रति घंटा होती है। भारत में सबसे अधिक गति ब्रितानी पक्षी बतासी(स्वीफ्ट) का रिकार्ड किया गया है जो 171 से 200 मील प्रति घंटा होती है। प्रवासी पक्षी एक दिन या एक रात में क़रीब 500 मील की दूरी तय कर लेते हैं। पक्षी साधारणतया पांच से छह घटों की एक उड़ान भरते हैं। बीच में वे विश्राम या भोजन के लिये रुकते हैं। उनकी गति पर मौसम का भी प्रभाव पड़ता है। जैसे वर्षा, ओलों का गिरना या फिर तेज हवा के झोंकों से इनकी गति बाधित होती है।        

कई पक्षियों की प्रवासी यात्रा में कफी नियमितता पाई जाती है। साल-दर-साल के गहन अध्ययन से यह पता लगा कि ये नियमित रूप से मौसम की प्रतिकूलता की मार सहकर भी अपनी लंबी यात्रा बिल्कुल नियत समय पर नियत स्थल पर पहुंच कर पूरी करते हैं। शायद ही कभी एकाध दिन की देरी हो जाए। अबाबील और पिटपिटी फुदकी (हाउस रेन) ठीक 12 अप्रैल को वाशिंगटन पहुंच जाती हैं। भारत के प्रख्यात पक्षीशास्त्री सालीम अली ने खंजन (ग्रे वैगटेल) को अलमुनियम का छल्ला पहना दिया। मुम्बई के उनके आवास पर यह पक्षी प्रति वर्ष नियत समय पर पहुंच जाया करता था। पक्षी अपने धुन के बड़े पक्के होते हैं।

जान पर खेलकर पहुंचे ये पक्षी जिस तरह से अपना आशियां बनाते हैं, उसकी प्रक्रिया देखकर समझा जा सकता है कि नीड़ का निर्माण कितनी जटिल प्रक्रिया है और उसे कितनी सरलता से पक्षियों द्वारा पूरा किया जाता है। इनकी बस्ती में प्रकृति और पक्षियों का परस्पर सामञ्जस्य विलक्षण सौंदर्य की अनुभूति है। कौए जैसा काला स्याह आरमोरेन्ट, इग्रीट और स्पूनबिल जैसे झक्क सफेद पक्षी बिना किसी रंगभेद के एक ही वृक्ष की भिन्न-भिन्न शाखाओं पर अपने-अपने घोंसले बनाते हैं, प्रजनन व पालन करते हैं। अपने प्रवास के दौरान ये पक्षी मात्र प्रजनन क्रिया ही संपन्न नहीं करते। वे इस दौरान यहां अपने पुराने पंखों का परित्याग भी करते हैं। फिर धीरे-धीरे दो से तीन माह के दौरान ये अपने नये पंखों को हासिल भी कर लेते हैं। हां, इस दौरान ये उड़ नहीं पाते। इस कारण इनके शिकारियों के जाल में फंसने का खतरा बना रहता है।

प्रवासी पक्षी एक निश्चित पथ पर ही अपनी यात्रा तय करते हैं। हज़ारों किलोमीटर की दूरी तय कर आने वाले ये पक्षी पुन: उसी रास्ते वापस लौट जाते हैं। ये अपना रास्ता नहीं भूलते। प्राणी विशेषज्ञों का कहना है कि ये एकाधिक समुद्र पार कर आते हैं। प्रजनन की क्रिया संपन्न कर ठीक उसी रास्ते वापस चले जाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि इंसान से भी अधिक इनकी स्मरण शक्ति होती है। हां इस पथ में परिवर्तन कुछ खास कारणों से हो सकता है। साधारणतया भौगोलिक आकृतियां जैसे नदी, घाटी, पहाड़, समुद्री तट, आदि इनका मार्ग दर्शन करते हैं। कुछ पक्षी तो अपनी पिछली यात्रा के अनुभव के आधार पर अपने दूसरे साथियों का पथ प्रदर्शन एवं मार्ग दर्शन करते हैं। पर उनका अनुभव शायद ही बड़े काम का होता होगा। क्योंकि पक्षियों की अधिकांश प्रजातियां तो टोली में यात्रा करने से कतराते हैं। वे तो अलग-अलग ही चलते हैं। हां आकाशीय पिंड उनकी इस मराथन यात्रा में उनका पथ-प्रदर्शक होते हैं। पक्षियों के अंदर एक आंतरिक घड़ी भी होती है जो उनके गंतव्य तक पहुंचाने में सहायता प्रदान करती है।

अब पहले की तरह प्रवासी पक्षी नहीं आते। इनकी तादाद लगातार घटती जा रही है। जानकारों का मानना है कि इसके पीछे प्रमुख कारण ग्लोबल वार्मिंग है मौसम मे परिवर्तन प्रवासी पक्षियों को रास नहीं आता इस कारण वे अब भारत से मुंह मोड़ने लगे हैं जलवायु परिवर्तन से पक्षियों का प्रवास बहुत प्रभावित हुआ है। पहले पूर्वी साइबेरिया क्षेत्र के दुर्लभ पक्षी मुख्यतः साइबेरियन सारस भारत में आते थे। जलस्त्रोतों के सूखने से उनके प्रवास की क्रिया समाप्त प्राय हो गई है। ये सुदूर प्रदेशों से अपना जीवन बचाने और फलने फूलने के लिए आते रहे हैं। पर हाल के वर्षों में इनके जाल में फांस कर शिकार की संख्या बढ़ी है। कई बार तो शिकारी तालाब या झील में ज़हर डाल कर इनकी हत्या करते हैं। माना जाता हा कि उनका मांस बहुत स्वादिष्ट होता है तथा उच्च वर्ग में इसका काफा मांग हाती है। अब वे चीन की तरफ जा रहे हैं। हम एक अमूल्य धरोहर खो रहे हैं। पक्षियों के प्रति लोगों में पर्यावरण जागरूकता को बढ़ावा देना चाहिए। पक्षी विहार से लाखों लोगों को रोजगार मिलता है। इसके अलावा काफी बड़ी संख्या में प्रवासी पक्षियों को दखने पर्यटक आते हैं।

इस प्रवासीय यात्रा की शुरुआत क्यों हुई यह भी रोचक है। एक साधारण सी कहावत है कि “बाप जैसा करता है, वैसा ही करो” – शायद इसी रास्ते पर इसकी शुरुआत मानी जा सकती है। पर यह कोई वैज्ञानिक व्याख्या नहीं कही जी सकती। हां इतना तो माना जा सकता है कि बदलते वातावरण के कारण कुछ विपरीत परिस्थितियां पैदा हो गई होंगी, जिसके कारण पक्षियों के गृह स्थल पर भोजन एवं प्रजनन की सुविधाओं का अभाव हो गया होगा। इस सुविधा की प्राप्ति के लिए पक्षी अपने स्थान बदलने को विवश हो गए होंगे। समय बीतने के साथ यह साहसिक अभियान उनकी आदत में शुमार हो गया होगा। पक्षियों के जीवन यापन, शत्रुओं से सुरक्षा, भोजन एवं प्रजनन की सुविधा में यह प्रवास निश्चित रूप से उनके लिए लाभकारी साबित हुआ।

प्रवासी पक्षी अपने वतन लौटने की तैयारी लगभग दो सप्ताह पूर्व ही आरंभ कर देते हैं। सप्ताह पूर्व से अपना वजन घटाने हेतु सजग हो जाते हैं। यहाँ आए, ठहरे, प्रजनन में व्यस्त रहे, मौसम का लाभ लिया, शिशु के पंख खुलने लगे, उडने योग्य हुए और आबोदाना उठना शुरू। पक्षीविद् के अनुसार शुक्ल पक्ष की दूधिया चाँदनी में उडान के समय रोशनी में वे अपना निश्चित मार्ग सुगमता से देख सकते हैं। दिन में दिशाभ्रम, तेज धूप, असहनीय गर्मी तथा शत्रु भय के कारण शुक्ल पक्ष उनकी वापसी उडान का शुभ मुहूर्त होता है। इसलिये भी कि यात्रा के प्रत्येक चरण में रोशनी मिलती रहे। अपने वतन तक पहुँचने में अंतिम पडाव तक अथक निरन्तर सक्रिय व गतिशील बने रहें, इस उद्देश्य से विदाई पूर्व वजन घटाते हैं।

अपने वतन लौट चलने की तैयारी में जुटे प्रवासी जोरदार विशेष ध्वनि में अपने सभी सहयोगी मित्रों से ऊँची आवाज में लौट चलने हेतु आमंत्रित करती है। इनके जाने के बाद तिनकों से सजे वीरान आशियाने तथा प्रजनन के वक्त के बचे अण्डों की खोलें इनके गुजरे वक्त के चश्मदीद गवाह होते हैं। जाते-जाते ये बेजुबान मेहमान हमें ढेरों संदेश दे जाते हैं।

 

पिंजड़े   में   बंद  पंछी,   क्या   जाने   आकाश  को,

खुले गगन में, खुले चमन में, उड़ने के अहसास को!

--- बस!---

(चित्र आभार गूगल सर्च)

शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010

पक्षियों का प्रवास-१

पक्षियों का प्रवास-१

IMG_0130मनोज कुमार

image पक्षियों की दुनियाँ वड़ी विचित्र है। पक्षी प्रकृति पदत्त सबसे सुन्दर जीवों की श्रेणी में आते हैं। इनसे मानव के साथ रिश्तों की जानकारी के उल्लेख प्राचीनतम ग्रंथों में भी मिलते हैं। किस्सा तोता मैना का तो आपने सुना ही होगा। इन किस्सों में आपने पाया होगा कि राजा के प्राण किसी तोते में बसते थे। फिर राम कथा के जटायु प्रसंग को कौन भुला सकता है। कबूतर द्वारा संदेशवाहक का काम भी लिया जाता रहा है। कहा जाता है कि मंडन मिश्र का तोता-मैना भी सस्वर वेदाच्चार करते थे। कई देवी देवताओं की सवारी पक्षी हुआ करते थे। सारांश यह कि पक्षियों का जीवन विविधताओं भरा अत्यंत ही रोचक होता है। पक्षियों के जीवन की सर्वाधिक आश्चर्यजनक घटना है उनका प्रवास। अंग्रेज़ी में इसे माइग्रेशन कहते हैं। शताब्दियों तक मनुष्य उनके इस रहष्य पर से पर्दा उठाने के लिए उलझा रहा। उत्सुकता एवं आश्चर्य से आंखें फाड़े आकाश में प्रवासी पक्षियों के समूह को बादलों की भांति उड़ते हुए देखता रहा। अनेको अनेक जीवों में प्रवास की घटना देखने को मिलती है, पर पक्षियों जैसी नहीं, जो इतनी दूर से एक देश से दूसरे देश में प्रवास कर जाते हैं। इस रहस्यमय यात्रा में पक्षी कहां जाते हैं इस कौतूहल को दूर करने के लिए मनुष्यों ने दूरबीन, रडार, टेलिस्कोप, वायुयान आदि का प्रयोग कर जानकारी एकत्र करना शुरु कर दिया। यहां तक कि जाल में उन्हें पकड़ कर, उनके ऊपर बैंड या रंग लगा कर अध्ययन किया गया। तब जाकर इस रहस्यमय घटना के बारे में पर्याप्त जानकारी मिली।

साधारणतया तो पक्षियों के किसी खास अंतराल पर एक जगह से दूसरी जगह जाने की घटना को पक्षियों का प्रवास कहा जाता है। पर इस घटना को वातावरण में किसी खास परिवर्तन एवं पक्षियों के जीवनवृत्त के साथ भी जोड़कर देखा जा सकता है। पक्षियों का प्रवास एक दो तरफा यात्रा है और यह एक वार्षिक उत्सव की तरह होता है, जो किसी खास ऋतु के आगमन के साथ आरंभ होता है और ऋतु के समाप्त होते ही समाप्त हो जाता है। यह यात्रा उनके गृष्मकालीन और शिशिरकालीन प्रवास, या फिर प्रजनन और आश्रय स्थल से भोजन एवं विश्राम स्थल के बीच होती है। मातृत्व का सुखद व सुरक्षित होना अनिवार्य है। ऐसा मात्र इंसानों के लिए हो ऐसी बात नहीं है। सुखद व सुरक्षित मातृत्व पशु-पक्षी भी चाहते हैं। इस बात का अंदाज़ा साइबेरिया से हज़ारों किलोमीटर दूर का कठिन रास्ता तय कर हुगली, पश्चिम बंगाल पहुंचे साइबेरियन बर्ड को देख कर लगाया जा सकता है। प्राणी विशेज्ञों की राय है कि ये पक्षी मात्र जाड़े से सुरक्षित व सुखद मातृत्व के लिए यह दूरी तय कर यहां पहुंचते हैं।

प्रवासी यात्रा में पक्षियों की सभी प्रजातियां भाग नहीं लेतीं। कुछ पक्षी तो साल भर एक ही जगह रहना चाहते हैं। और कई हज़ारों मील की यात्रा कर संसार के अन्यत्र भाग में चले जाते हैं। प्रकृति की अनुपम देन पंखों की सहायता से वे संसार के दो भागों की यात्रा सुगमता पूर्वक कर लेते हैं। इनकी सबसे प्रसिद्ध यात्रा उत्तरी गोलार्द्ध से दक्षिण की तरफ की है। गृष्म काल में तो उत्तरी गोलार्द्ध का तापमान ठीक-ठीक रहता है, पर जाड़ों में ये पूरा क्षेत्र बर्फ से ढ़ंक जाता है। अतः इस क्षेत्र में पक्षियों के लिए खाने-पीने और रहने की सुविधाओं का अभाव हो जाता है। फलतः वे आश्रय की तलाश में भूमध्य रेखा पार कर दक्षिण अमेरिका या अफ्रीका के गर्म हिस्सों में प्रवास कर जाते हैं। अमेरिकी बटान (गोल्डेन प्लोवर) आठ हज़ार मील की दूरी तय कर अर्जेन्टीना के पम्पास क्षेत्र में नौ महीने गृष्म काल का व्यतीत करते हैं। इस प्रकार वे प्रवास कर साल भर गृष्म ऋतु का ही आनंद उठाते हैं। उन्हें जाड़े का पता ही नहीं होता। इसी प्रकार साइबेरिया के कुछ पक्षी भारत के हिमालय के मैदानी भागों में प्रवास कर जाते हैं। हुगली के हरिपाल जैसे अनजान व शांत इलाके में ये पक्षी आकर तीन से चार माह का प्रवास करते हैं। इस दौरान वे प्रजनन की क्रिया संपन्न करते हैं। बच्चों को जन्म देने के बाद वे पुन: वापस लौट जाते हैं। उत्तर प्रदेश के भी कई वन्य विहार, नदियों, झीलों आदि में ये अपना बसेरा बना लेते हैं। हंस (हेडेड गोज), कुररी (ब्लैक टर्न), चैती, छेटी बतख (कामन टील), नीलपक्षी (गार्गेनी), सराल (इवसलिंग), सिंकपर (पिनटेल) आदि पक्षी न सिर्फ दिखने में खूबसूरत होते हैं बल्कि अपनी दिलकश अदाओं के लिए भी जाने जाते हैं।

दक्षिणी गोलार्द्ध के कुछ पक्षी उत्तर की ओर वर्षा ऋतु में प्रवास कर जाते हैं। पुनः सूखा मौसम आते ही वापस अपने क्षेत्र में लौट आते हैं। कुछ पक्षियों में पूर्व से पश्चिम या इसके विपरीत प्रवास होता है। तेलियर (स्टर्लिंग) जाड़े से बचने के लिए पूर्वी एशिया के अपने प्रजनन क्षेत्र से अटलांटिक तटों की ओर चले जाते हैं।

बड़े और ऊंचे पहाड़ों के उपर रहने वाले पक्षी ऋतुओं में परिवर्तन के साथ ही ऊपर से नीचे, और नीचे से ऊपर अपना प्रवास बदलते रहते हैं। गर्मी में तो ये पहाड़ों पर रहते हैं, पर जाड़े में नीचे चले आते हैं। प्रायः यह यात्रा छोटी दूरी की होती है। इस तरह की यात्रा अर्जेन्टीना के एडिस पहाड़ों पर पनडुब्बी (ग्रेब्स) एवं टिकरी (कूट्स) तथा ग्रेट ब्रिटेन के बैगनी अबाबीलों (स्वैलोज) पक्षियों में पाई जाती है। मौसम का असर इन पक्षियों पर इतना अधिक होता है कि इनकी भूरे रंग की पक्षति (प्लुमेज) सफेद हो जाती है और इनका आहार भी बदल जाता है। जाड़े में ये कीट-पतंगों की जगह टहनी पत्तों के खाकर अपना गुजारा करते हैं।

कुछ पक्षियों में आंशिक प्रवास देखने को मिलता है। इनका प्रवास बहुत कम समय के लिए होता है। ये दूसरे भाग के पक्षियों से मिलने-जुलने के लिए जाते हैं। भेंट-मुलाक़ात कर ये अपने घर वापस आ जाते हैं। कुछ प्रवास काफी अनियमित होते हैं। जैसे बगुलों (हेरोन्स) में प्रजनन के बाद व्यस्क एवं शिशु पक्षी भोजन की तलाश एवं शत्रुओं से रक्षा के लिए सभी दिशाओं में अपने गृहस्थल को छोड़ निकल पड़ते हैं। यह यात्रा सैकड़ों मीलों की हो सकती है।

अभी ज़ारी है…..

(चित्र आभार गूगल सर्च)

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

साहित्यकार-7 :: फणीश्वरनाथ रेणु

साहित्यकार-7

फणीश्वरनाथ रेणु

मनोज कुमार

हिन्दी कथा-साहित्य में अत्यधिक महत्वपूर्ण रचनाकार फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के पूर्णिया ज़िला के औराही हिंगना गांव में हुआ था।

वे सिर्फ़ सृजनात्मक व्यक्तित्व के स्वामी नहीं थे बल्कि एक सजग नागरिक व देशभक्त भी थे। 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में उन्होंने सक्रिय रूप से योगदान दिया। इस प्रकार एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनाई। इस चेतना का वे जीवन पर्यंत पालन करते रहे और सत्ता के दमन और शोषण के विरुद्ध आजीवन संघर्षरत रहे।

1950 में जब बिहार के पड़ेसी देश नेपाल में राजशाही दमन बढ गया और वहां की जनता पर असीमित अत्याचार हो रहा था तो वे नेपाल की जनता को राणाशाही के दमन और अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के संकल्प के साथ वहां पहुंचे और वहां की जनता द्वारा जो सशस्त्र क्रांति व राजनीति की जा रही थी में उसमें सक्रिय योगदान दिया।

दमन और शोषण के विरुद्ध आजीवन संघर्षरत रहे ‘रेणु’ ने सक्रिय राजनीति में भी हिस्सेदारी की। 1952-53 के दौरान वे बहुत लम्बे समय तक बीमार रहे। फलस्वरूप वे सक्रिय राजनीति से हट गए। उनका झुकाव साहित्य सृजन की ओर हुआ। 1954 में उनका पहला उपन्यास ‘मैला आंचल’ प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास को इतनी ख्याति मिली कि रातों-रात उन्हें शीर्षस्थ हिन्दी लेखकों में गिना जाने लगा।

जीवन के सांध्यकाल में राजनीतिक आन्दोलन से उनका पुनः गहरा जुड़ाव हुआ। 1975 में लागू आपात्‌ काल का जे.पी. के साथ उन्होंने भी कड़ा विरोध किया। सत्ता के दमनचक्र के विरोध स्वरूप उन्होंने पद्मश्री की मानद उपाधि लौटा दी। उनको न सिर्फ़ आपात्‌ स्थिति के विरोध में सक्रिय हिस्सेदारी के लिए पुलिस यातना झेलनी पड़ी बल्कि जेल भी जाना पड़ा। 23 मार्च 1977 को जब आपात्‌ स्थिति हटा तो उनका संघर्ष सफल हुआ। परन्तु वो इसके बाद अधिक दिनों तक जीवित न रह पाए। रोग से ग्रसित उनका शरीर जर्जर हो चुका था। 11 अप्रील 1977 को इस महान लेखक का स्वर्गवास हो गया।

उनके उपन्यास हैं – ‘मैला आंचल’, ‘परती परिकथा’, ‘दीर्घतपा’, ‘कलंक मुक्ति’, ‘जुलूस’ और ‘पलटू बाबू रोड’। ‘पलटू बाबू रोड’ उनके निधन के बाद छपा।

‘रेणु’ को जितनी शोहरत उपन्यासों से मिली, उतनी ही प्रसिद्धि उनको उनकी कहानियों से भी मिली। ‘ठुमरी’, ‘अगिनखोर’, ‘आदिम रात्रि की महक’, ‘एक श्रावणी दोपहरी की धूप’, ‘अच्छे आदमी’, ‘सम्पूर्ण कहानियां’, आदि उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं।

उनकी कहानी ‘मारे गए गुलफ़ाम’ पर आधारित फ़िल्म ‘तीसरी क़सम’ ने भी उन्हें काफ़ी प्रसिद्धी दिलाई।

कथा-साहित्य के अलावा उन्होंने संस्मरण, रेखाचित्र और रिपोर्ताज आदि विधाओं में भी लिखा। उनके कुछ संस्मरण भी काफ़ी मशहूर हुए। ‘ऋणकुल धनजल’, ‘वन-तुलसी की गंधी’, ‘श्रुत अश्रुत पूर्व’, ‘समय की शिला पर’, ‘आत्म परिचय’ उनके संस्मरण हैं। इसके अलावा वे ‘दिनमान’ पत्रिका में रिपोर्ताज भी लिखते थे। ‘नेपाली क्रांति कथा’ उनके रिपोर्ताज का उत्तम उदाहरण है।

आंचलिक उपन्यासों की परंपरा को स्थापित करने का सबसे पहला प्रयास उन्होंने किया। उन्होंने उपन्यास लेखन के पहले से चली आ रही परंपरा को तोड़कर एक नए शिल्प में ग्रामीण-जीवन को प्रस्तुत किया। साथ ही उन्होंने अंचल विशेष की भाषा का अधिक से अधिक प्रयोग किया ताकि उस जन समुदाय को ज़्यादा से ज़्यादा प्रामाणिकता से चित्रित किया जा सके। ‘रेणु’ ने अपनी अनेक रचनाओं में आंचलिक परिवेश के सौंदर्य, उसकी सजीवता और मानवीय संवेदनाओं को अद्वितीय ढंग से उजागर किया है। दृश्यों को चित्रित करने के लिए उन्होंने गीत, लय-ताल, वाद्य, ढोल, खंजड़ी नृत्य, लोकनाटक जैसे उपकरणों का बखुबी इस्तेमाल किया है। रचनाओं में आंचलिक पहलू को उभारने के लिए ‘रेणु’ ने सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण का चित्रण बड़े लगाव से किया है। `रेणु’ ने मिथक, लोकविश्वास, अंधविश्वास, किंवदंतियां, लोकगीत- इन सबको अपनी रचनाओं जगह दी। ये सभी ग्रामीण जीवन की अंतरात्मा हैं। इन सबके बिना ग्रामीण जीवन की कथा नहीं कही जा सकती। उन्होंने “मैला आंचल” उपन्यास में अपने अंचल का इतना गहरा व व्यापक चित्र खींचा है कि सचमुच यह उपन्यास हिन्दी में आंचलिक औपन्यासिक परंपरा की सर्वश्रेष्ठ कृति बन गया है। उनका साहित्य हिंदी जाति के सौंदर्य बोध को समृद्ध करने के साथ-साथ अमानवीयता, पराधीनता और साम्राज्यवाद का प्रतिवाद भी करता है। व्यक्ति और कृतिकार – दोनों ही रूपों में ‘रेणु’ अप्रतिम थे।

बुधवार, 20 अक्टूबर 2010

काव्य प्रयोजन :: आधुनिक काल

काव्य प्रयोजन :: आधुनिक काल

द्विवेदी युग

इस युग में रीतिवाद विरोधी अभियान चला। मकसद था हिन्दी कविता को दरबारी काव्य की रूढियों से मुक्त करना! आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से इस आंदोलन को गति प्रदान की। उनका मानना था कि साहित्य की महत्ता लोकजागरण की चेतना से सम्बद्ध है। साहित्य में जो शक्ति है वह तो, तलवार और बम में भी नहीं है। उनके अनुसार लोकजागरण के लिए साहित्य से बढकर कोई दूसरा  समर्थ माध्यम नहीं है।

मैथिलीशरण गुप्त ने भी इस आंदोलन को आगे बढाया। उन्होंने कविता के प्रयोजन को बताते हुए कहा
(१)
केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए
(२)
है जिस कविता का काम लोकहित करना
सद्भावों से मन मनुज मात्र का भरना
पहले तो कांता सदृश हृदय का हरना
फिर प्रकटित करना विमल ज्ञान का झरना

(३)
अर्पित हो मेरा मनुज काय
बहुजन हिताय बहुजन हिताय
(४)
संदेश नहीं मैं स्वर्गलोक का लाया
इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया
इस तरह से इनके साहित्य का उद्देश्य लोकमंगल भावना को हम पाते हैं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रस की लोकमंगलवादी व्याख्या की। उन्होंने कलावाद-रूपवाद का विरोध किया, साथ ही विरुद्धों के सामंजस्य सिद्धांत का समर्थन किया। उन्होंने तुलसीदास और उनके ‘रामचरितमानस’ को लोकमंगल की साधनावस्था का प्रतिमान माना तथा विद्यापति और बिहारीलाल को सिद्धावस्था का कवि कहा।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी साहित्य का प्रयोजन “लोकचिंता” को मानते थे। उनके प्रिय कवि हैं कबीर। इनका मानना था कि लोकचिंताओं से जुड़कर ही रचनाकार को लोक को दिशा-दृष्टि देनी चाहिए।

छायावाद के कवियों ने सृजन को मानव-मुक्ति चेतना की ओर ले जाने का काम किया। सुमित्रानंदन पंत ने रीतिवाद का विरोध करते हुए ‘पल्लव’ की भूमिका में कहा कि मुक्त जीवन-सौंदर्य की अभिव्यक्ति ही काव्य का प्रयोजन है।

जयशंकर प्रसाद का कहना था आनंद और लोकमंगल दोनों का सामंजस्य ही सृजन-धर्म है - “श्रेयमयी प्रेम ज्ञानधारा”।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने नवजागरण परंपरा का विस्तार किया और रूढिवाद का विरोध।

महादेवी वर्मा के अनुसार साहित्य का उद्देश्य है मानव करुणा का विस्तार।

प्रगतिवाद ने रूढिवादिता का विरोध किया और मार्क्सवादी समाज-चिंतन को अपनाया।
प्रेमचंद के अनुसार रचनाकार समाज में आगे चलने वाली मशाल होता है। अतः साहित्य का उद्देश्य जनता की चेतना को जाग्रत करना तथा परिष्कृत करना होता है।
प्रगतिवाद एक निश्चित तत्ववाद को सूचित करता है। ऐसे साहित्य में विषय-वस्तु या अंतर्वस्तु को अधिक महत्व दिया जाता है। रूप को, कला-विन्यास को कम। इनके मतावलंबियों के अनुसार साहित्य का उद्देश्य है प्रतिक्रियावादी शक्तियों के लोक-विरोधी, जन-विरोधी चरित्र का भंडाफोर और मनुष्य का, मनुष्यता का विकास-परिष्कार-प्रसार। अर्था‍त्‌ उपयोगितावाद-यर्थार्थवाद की महत्वप्रतिष्ठा।
डॉ. रामविलास शर्मा ने लोकमंगलवादी चिंतन-दृष्टि का विकास ही साहित्य का प्रयोजन माना।

गजानन माधव मुक्तिबोध ने साहित्य को जनता के लिए जनजागरण का अस्त्र माना और उन्होंने अपनी रचनाओं, “चांद का मुंह टेढा है” और “भूरी-भूरी खाक धूल” द्वारा पूंजीवादी-साम्राज्यवादी चिंतन का विरोध किया।

नयीकविता युग तथा समकालीन युग के विद्वानों, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, निर्मल वर्मा आदि, कवियों के मतानुसार साहित्य का प्रयोजन मानव-व्यक्तित्व का समग्र विकास, मानव-स्वाधीनता की रक्षा, मुक्त-चिंतन का विकास है।

उपसंहार
इस प्रकार हम पाते हैं कि हिन्दी चिंतन परंपरा में लोकमंगलवादी मानव सत्यों से साक्षात्कारवादी दृष्टि ही साहित्य का प्रयोजन रही है। रचनाकार का मानवतावाद रचना की अर्थ-व्यंजना में निहित रहता है।
हिन्दुस्तान में संस्कृति का आधारभूत तत्व है - “सुरसरि सम सबका हित होई।” अर्थात्‌ गंगा की तरह सभी को अपने में मिलाना और गंगा बना देना। लोक-कल्याण और आनंद दो अलग नाम हैं परन्तु तत्त्वतः दोनों एक हैं, दोनों का मूल प्रयोजन है – लोक के साथ जीना, लोक-चिंता के साथ जीना।
अपने हृदय को लोक के हृदय में मिला देना ही “रस दशा” है। इसका अर्थ है हृदय की मुक्तावस्था, भावयोग दशा, साधारणीकरण या समष्टिभावना का आनंद। हिन्दी काव्यशास्त्र का प्रयोजन इसी हिन्दुस्तानी लय से ओत-प्रोत है।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि काव्य का प्रयोजन है लोकमंगल भावना अर्थात्‌ मनुष्यता का विकास। जिसमें मानव के प्रति गहरे सामाजिक सरोकार हों। रचनाकार मानवता के प्रति करुणा और सहानुभूति की चेतना का विस्तार कर अपने-पराए की भेद-बुद्धि को मिटाता है और मानवतावाद की दृष्टि का प्रचार करता है। लोकजागरण और लोक-कल्याण ही जीवन का सत्य  है, शिव है, सुन्दर है। और यही है साहित्य का प्रयोजन!