पुस्तक परिचय-21
कलामे रूमी
मनोज कुमार
एयरपोर्ट पर एकाध पुस्तक की दुकान मिल जाती है जिस पर टाइम पास करते एकाध प्रबुद्ध पुस्तक-प्रेमी। दिल्ली एयरपोर्ट पर अपवादस्वरूप कई पुस्तक की दुकानें दिख जाती हैं। एयरपोर्ट की पुस्तक की दुकानों पर अंग्रेज़ी पुस्तकें ही दिखती हैं। हालाकि मैं अमूमन न तो अंग्रेज़ी पुस्तकें ख़रीदता हूं, और न ही पढ़ता हूं, लेकिन एयरपोर्ट की पुस्तक की दुकान पर जाता ज़रूर हूं, पुस्तक विक्रेता को यह कहने कि आपको हिंदी पुस्तकें भी रखनी चाहिए। मुम्बई जाते वक़्त जब कोलकाता एयरपोर्ट पहुंचा, तो वहां की एकमात्र पुस्तक की दुकान में इस बार हिंदी की पुस्तकें देखकर मेरा मन हर्षित हुआ। चार पुस्तकें ख़रीदी जिनमें से एक पढ़ डाली है और आज की पुस्तक परिचय में उसी पुस्तक से आपका परिचय कराने जा रहा हूं।
अभय तिवारी एक ब्लॉगर हैं और इनका ब्लॉग है निर्मल-आनंद। अपने परिचय में लिखते हैं – “कानपुर की पैदाइश, इलाहाबाद और दिल्ली में शिक्षा के नाम पर टाइमपास करने के बाद कई बरसों से मुम्बई में - फ़िल्म और टैलिवीज़न के बीच; ख़ुदमुख़्तारी और मजूरी के बीच; रोज़गार, सरोकार और बेकार की चिन्ताओं के बीच।” उन्होंने “कलामे रूमी” नाम से फ़ारसी साहित्य के विद्वान सूफ़ी विचारक और संत मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन रूमी की प्रसिद्ध पुस्तक “मसनवी” का हिंदी अनुवाद किया है। अभय तिवारी बताते हैं कि यह काम उन्होंने 2005 में शुरू किया था और तीस-चालीस ग़ज़लों का अनुवाद करने के बाद अपने काम से सिलसिले में उन्हें अनुवाद कार्य बंद कर देना पड़ा। फिर ये ब्लॉग की दुनिया में फरवरी 2007 से प्रवेश कर गए। जब ये ब्लॉग लेखन नियमित रूप से करने लगे तो इन्होंने अपने अनुवाद कार्य को एक “रूमी हिंदी” नाम से ब्लॉग की शक्ल दे दिया।
अक्तूबर 2009 में हिंद पॉकेट बुक्स के संपादक तेजपाल सिंह धामा की नज़र इस ब्लॉग पर पड़ी। उन्होंने ने तिवारी के काम को पसंद किया और इसे किताब के रूप में छापने की पेशकश की। तिवारी के लिए यह उत्साहवर्धन था और उन्होंने दिनरात एक करके अपने अनुवाद कार्य को पूरा किया और यह “कलामे रूमी” के नाम से पुस्तक की शक्ल में आया।
मसनवी फ़ारसी साहित्य की अद्वितीय कृति है। इसमें संस्मरणों और रूपकों के ज़रिए ईश्वर और आस्था के मसलों पर विवेचन किया गया है। रूमी सिर्फ़ कवि नहीं है, वे सूफ़ी हैं, वे आशिक़ हैं, वे ज्ञानी हैं, विद्वान हैं और सबसे बढ़कर वे एक गुरु हैं। उनमें एक तरफ़ तो उस माशूक़ के हुस्न का नशा है, विसाल की आरज़ू व जुदाई का दर्द है, और दूसरी तरफ़ नैतिक और आध्यात्मिक ज्ञान की गहराईयों से निकाले हुए अनमोल मोती हैं। इसीलिए रूमी का साहित्य सारे संसार को सम्मोहित किए हुए है।
हज़रत जलालुद्दीन रूमी रह. का जन्म 1207 में बल्ख़ में हुआ था। जब हज़रत रूमी रह. बारह बरस के थे तो चंगेज़ खान के आतंक से डर कर उनके पिता बहाउद्दीन वलेद परिवार को लेकर बल्ख़ से भाग खड़े हुए। इस भटकन के दौरान रूमी की मुलाक़ात हज़रत फ़रीदुद्दीन अत्तार रह. से हुई। इस मुलाक़ात ने हज़रत रूमी पर गहरा असर डाला। दोनों ने बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में सूफ़ीमत को ख़ास और आम सबके दरम्यान लोकप्रिय बनाया। हज़रत अत्तार रह. ने अनुभवजन्य ज्ञान पर बल देकर सूफ़ी-साधना को फ़ना (निर्वाण) के साथ आबद्ध किया। जबकि हज़रत रूमी रह. ने हाल या वज्द (भावाविष्टावस्था) को सूफ़ी-साधना की महत्वपूर्ण पद्धति के रूप में प्रकाशित किया।
हज़रत रूमी रह. की रचनाओं के दो मुख्य ग्रंथ हैं, पहला उनकी ग़ज़लों और रूबाइयों का संग्रह “कुल्लियाते दीवाने शम्स तबरेज़ी” और दूसरा हिकायतों के ज़रिये आध्यात्मिक रहस्यों का काव्य “मसनवी मानवी”। “कुल्लियात” उनकी बेख़ुदी की हालत की उपज है। माना जाता है कि हज़रत रूमी कोन्या की गलियों में बेख़ुदी में नाचते-गाते फ़िरने लगे थे। वे अपने माशूक़ में, वस्ल में या फ़िराक़ में इस क़दर डूबे रहते थे कि उनको किसी चीज़ की सुध नहीं रहती थी। इसलिए दीवान की ग़ज़लें उनका आत्मालाप है, अंदर के भावों की अभिव्यक्ति। दीवानेपन के एक लंबे दौर से गुज़रने के बाद हज़रत रूमी एक ऐसे मक़ाम पर पहुंच गए जहां उनके भीतर दीवानगी का वो आलम नहीं था जो उन्हें सुध-बुध भुलाए रखे। इसलिए मसनवी बहुत सचेत रूप से उनके मुरीदों को संबोधित है।
“कलामे रूमी” पुस्तक में रूमी के अमर काव्य के साथ-साथ रूमी के जीवन-दर्शन और आध्यात्मिक वार्तालाप को भी समेटा गया है । पुस्तक पांच खंडों में विभाजित है। पहले खंड में सूफ़ी मत, रूमी के जीवन, उनसे संबंधित कुछ किस्से, उनकी करामतें और फ़ारसी से हिंदी में अनुवाद की मुश्किलों पर तिवारी ने चर्चा की है। दूसरा खंड “मसनवी मानवी से काव्यांश” का हिंदी रुपांतरण है। तिवारी का अनुवाद बड़ा ही सरल है और हिंदी पाठकों को आसानी से समझ आने वाला है।
सुनो ये मुरली कैसी करती है शिकायत
हैं दूर जो पी से, उनकी करती है हिकायत
काट के लाये मुझे, जिस रोज़ वन से
सुन रोये मरदोज़न, मेरे सुर के ग़म से
एक और विशेषता जो आकर्षित करती है वह यह कि जगह-जगह पर तिवारी ने फुट-नोट के ज़रिए सूफ़ी दर्शन पर प्रकाश डाला है। देखिए एक शे’र और उसका फुट नोट –
आदमी बन जा और गधागीरो से घबरा नहीं
अरे मर्दे कामिल तू गधा नहीं, ख़ौफ़ खा नहीं
गधागीरो = गधा पकड़ने वाले; मर्दे कामिल = संपूर्ण मनुष्य ; सूफ़ी मत के अनुसार आदमी आधा जानवर है और आधा फ़रिश्ता। दोनों में संघर्ष सतत चलता रहता है लेकिन मनुष्य जीवन का ध्येय एक संपूर्ण मनुष्य बनना ही है। यहां उस भोंदू को याद दिलाया गया है कि वो अपने को जानवर से पहचानने के बजाय अपने ध्येय को याद करे।
पुस्तक का तीसरा खंड कुल्लियाते दीवाने शम्स तबरेज़ी से ग़ज़लों का हिंदी अनुवाद है। चौथे खंड में फ़ीह मा फ़ीह से संवाद और पांचवां खंड परिशिष्ट है जिसमें सूफ़ी परंपरा के कुछ ख़ास तसव्वुर, स्रोत ग्रंथ और संदर्भों की सूची दी गई है।
चूंकि अभय तिवारी ने हज़रत रूमी के काव्य का अनुवाद सीधे फ़ारसी से हिंदी में किया है इसलिए यह न्यायसंगत और आसान बन पड़ा है। उन्होंने हज़रत रूमी के काव्य को उसी रूप में पेश किया है जिसमें वे रचे गए थे, यानी ग़ज़ल और मसनवी के छंद के प्राथमिक स्वरूप को उन्होंने बनाए रखा है। हां तुक मिलाकर उन्होंने अपनी अनुदित रचनाओं में माधुर्य का जो प्रवाह डाला है उससे स्रोत काव्य के भाव और रूप पर कोई फ़र्क़ नहीं आया है। ‘‘कलामे रूमी” के माध्यम से अभय तिवारी ने रूमी के जीवन-दर्शन, उनके सूफ़ी चिंतन और काव्य का एक सरल अनुवाद कर हिंदी पाठकों के समक्ष एक बेजोड़ कृति प्रस्तुत की है।
इसी पुस्तक की एक ग़ज़ल से मैं आज के पुस्तक परिचय को विराम देता हूं –
मुहब्बत से
कड़वा हो जाता है मीठा मुहब्बत से
तांबा हो जाता है सोना मुहब्बत से
करकट हो जाता सफ़ा है मुहब्बत से
दर्द हो जाता दवा है मुहब्बत से
मुहब्बत से मुर्दा हो जाता है ज़िन्दा
मुहब्बत से शाह हो जाता है बन्दा
नतीजा अक़ल का ही है ये मुहब्बत
तख़्तनशीं होता नहीं कोई बेमुरव्वत
*** *** *** ***
पुस्तक का नाम | कलामे रूमी |
लेखक | अभय तिवारी |
प्रकाशक | हिन्द पॉकेट बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, जे-40, जोरबाग लेन, नई दिल्ली-110032 |
संस्करण | 2010 |
मूल्य | 195 |
पेज | 295 |