शनिवार, 31 मार्च 2012

पुस्तक परिचय-23 : बच्चन के लोकप्रिय गीत

पुस्तक परिचय-23

बच्चन के लोकप्रिय गीत

मनोज कुमार

bacchan-ke-lokpriye-geet-hindi_thm27 नवम्बर 1907 को प्रयाग में जन्मे श्री हरिवंशराय बच्च किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। आज के पुस्तक परिचय में हम आपका परिचय कराने जा रहे हैं हिंदी के इस लोकप्रिय कवि के एक श्रेष्ठ गीतों के संकलन “बच्चन के लोकप्रिय गीत’ से। हिन्दी गीति-काव्य के इस महान कवि के गीत हिंदी साहित्य जगत में काफ़ी लोकप्रिय हुए हैं और उनके गीतों के कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। पर इस पुस्तक की खासियत यह है कि इस संकलन के गीतों का चयन खुद कवि बच्चन ने ही किया है।

कविवर बच्चन इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1942 से 1952 तक अंग्रेज़ी के लेक्चरर रहे। बाद में इन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवरिटी से पी.एच.डी. की उपाधि ग्रहण की। भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिंदी विशेषज्ञ के रूप में काफ़ी सालों तक काम किया। 1966 में राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हुए।

कविवर की रचनाएं अपनी गेयता के लिए न सिर्फ़ प्रसिद्ध हैं बल्कि बहुत ही लोकप्रिय भी हैं। कवि-सम्मेलनों में उनके गीतों पर लोग झूम उठते थे। आज भी उनके गीत कई श्रोताओं को कंठस्थ हैं। ऐसे ही कई गीतों का चुनाव इस संकलन में कवि ने स्वयं किया है।

इस पुस्तक की प्रवेशिका में बच्चन जी ने कहा है गीत भावना-जगत की वाणी है। जब मनुष्य की भावनाएं तीव्र होती हैं, तब वे उसे सहज ही लयमय कर देती हैं। शब्दों के माध्यम से यदि उनकी अभिव्यक्ति हुई तो वह स्वाभाविक ही छन्दोबद्ध, संगीतात्मक तथा रागोद्बोधक होती हैं। गीत अपने आकार में लघु होते हुए भी भाव को जगाते हैं, और उसे विकास तथा गति देकर एक तीव्रतम स्थिति तक पहुंचा देते हैं। वे मानव-हृदय की किसी-न-किसी भावना के साथ अपना निकट संबन्ध बना लेते हैं।

गीत शब्द का अर्थ ही है – गाया हुआ। इस संकलन के गीत मात्रा, लय, तुक का सहारा लेकर तरन्नुम के साथ मुखरित किए जा सकते हैं। इस संकलन के गीतों में शब्द और अर्थ का भी, अपना एक आन्तरिक संगीत है। इसलिए इसे सस्वर पढ़ कर इसका आनन्द लिया जा सकता है। ध्वनि और अर्थ दोनों मिलकर ही गीत के लक्ष्य को पूरा करते हैं।

इस संकलन के अपनी पसंद के एक गीत से आज के पुस्तक परिचय को विराम देता हूं –

चांद-सितारो, मिलकर गाओ

 

चांद-सितारो, मिलकर गाओ !

 

आज अधर से अधर मिले हैं,

आज बांह से बांह मिली,

आज हृदय से हृदय मिले हैं,

मन से मन की चाह मिली;

 

चांद-सितारो, मिलकर गाओ !

 

चांद-सितारो, मिलकर बोले,

 

कितनी बार गगन के नीचे

प्रणय-मिलन व्यापार हुआ है,

कितनी बार धरा पर प्रेयसि-

प्रियतम का अभिसार हुआ है !

 

चांद-सितारो, मिलकर बोले।

 

चांद-सितारो, मिलकर रोओ !

 

आज अधर से अधर अलग हैं,

आज बांह से बांह अलग,

आज हृदय से हृदय अलग हैं,

मन से मन की चाह अलग;

 

चांद-सितारो, मिलकर रोओ !

 

चांद-सितारो, मिलकर बोले,

 

कितनी बार गगन के नीचे

अटल प्रणय के बन्धन टूटे,

कितनी बार धरा के ऊपर

प्रेयसि-प्रियतम के प्रण टूटे !

 

चांद-सितारो, मिलकर बोले।

         ***

पुस्तक का नाम

बच्चन के लोकप्रिय गीत

कवि

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक

हिन्द पॉकेट बुक्स प्राइवेट लिमिटेड

संस्करण

तीसरा रिप्रिंट : 2008

मूल्य

60 clip_image002

पेज

119

गुरुवार, 29 मार्च 2012

दोहावली .... भाग - 5 / संत कबीर


जन्म  --- 1398
निधन ---  1518
बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ ।
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥ 41 ॥
अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट ॥ 42 ॥
कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय ।
ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥ 43 ॥
पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप ।
पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥ 44 ॥

बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार ।
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥ 45 ॥
हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध ।
हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध ॥ 46 ॥
राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस ।
रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश ॥ 47 ॥
जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच ।
वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥ 48 ॥
तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार ।
सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥ 49 ॥
सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन ।
प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 50 ॥
 
क्रमश:
दोहवाली --- भाग –1 / भाग – 2 /भाग – 3 /भाग - 4

देवता हैं नहीं

164323_156157637769910_100001270242605_331280_1205394_nसुधीजनों को अनामिका का सादर प्रणाम !
बहुत दिनों बाद आना हुआ इसके लिए क्षमा याचक हूँ. चलिए आज आपके बीच एक नयी श्रृंखला की शुरुआत करती हूँ और उम्मीद करती हूँ कि आप इसे पढ़ कर आनंदित होंगे.
आज से मैं हिंदी साहित्य के क्रांति कारी कवि श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' जी के जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं को  आपके साथ साझा करुँगी... जो बेहद मनोरंजक और पठनीय तो हैं ही साथ ही साथ 'दिनकर' जी के इन्द्र्धनुश्वरनी व्यक्तित्व की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हैं.....
File:Ramdhari Singh 'Dinkar'.JPG
रामधारी सिंह दिनकर जी  का जन्म (बंगाल और बिहार में प्रचलित फसली संवत ) के अश्विन मॉस में नवरात्र के भीतर बुधवार की रात में हुआ था. गणकों के अनुसार यह तिथि १९०८ के ३० सितम्बर को पड़ी थी. इनका  जन्म सिमरिया ग्राम में हुआ, जो मुंगेर जिले (अब बेगुसराय) में गंगा के उत्तरी तट पर अवस्थित है. 
दिनकर जी के पिता साधारण, अत्यंत साधारण स्थिति के किसान थे. उनका स्वर्गवास उस समय हो गया जब दिनकर जी मात्र दो साल के थे. दिनकर जी तीन भाइयों में से मंझले थे. इनका  लालन-पालन और शिक्षा - दीक्षा का प्रबंध इनकी विधवा माता ने किया. दिनकर जी की प्राथमिक शिक्षा गाँव में ही हुई, मैट्रिक की परीक्षा इन्होने गाँव के पास मोकामाघाट के हाई स्कूल से १९२८ में पास की और बी.ए. इन्होने पटना कालेज से १९३२ में किया. ये उस समय ग्रेजुएट हुए, जब आनर्स के साथ पास करने वाले मेधावी युवक आसानी से अच्छी नौकरियां प्राप्त कर  लेते थे. इनके भीतर कवित्व छात्र-जीवन में ही भली भांति स्फुटित हो चुका था, पर इनकी जिन्दगी इनके परिवार के नाम गिरवी हो चुकी थी.निर्धन परिवार ने पेट काटकर इन्हें पढाया था और आवश्यक था कि ये कमाकर उनकी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ती करें. उन दिनों प्रतियोगी परीक्षाएं नहीं होती थी और डिप्टीगिरी खास कर उन्हें मिलती थी जिनकी मदद बड़े लोग करते थे. लेकिन इन बड़े लोगो ने दिनकर जी की ओर ध्यान नहीं दिया. निदान १९३३ में इन्होने एक नए हाई स्कूल के प्रधानाध्यापक का पद कबूल कर लिया और ये व्यवस्थित परिवार की सेवा करने लगे.
'दिनकर' जी देखने में भारी-भरकम शरीर के स्वामी, गोरा-चिट्टा रंग, पांच फुट ग्यारह इंच लम्बाई वाले, बड़ी बड़ी आँखों वाले थे. जिनकी आंखे बात करते समय या कविता पाठ करते समय प्रदीप्त हो उठती थीं. ललकार भरी बुलंद आवाज़, तेज़ चाल और क्षिप्र बुद्धि - ये विशेषताएं थीं इनके व्यक्तित्व की. किसी भी परिस्थिति पर तुरंत ही प्रतिक्रिया करते थे. इनकी कविताओं में इनके व्यक्तित्व की आभा, स्वाभिमान और आत्मविश्वास की प्रबलता छलकती है और इनका आक्रमणकारी रूप सामने आता है. दिनकर जी की हर अंगभंगी यह ललकार कर कहती है - "दैवेन देयमिति कापुरुषाह वदन्ति" अर्थात जिसका मार्क्सवादी अनुवाद है - मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता है.
क्रमशः 
देवता हैं नहीं
देवता हैं नहीं,
तुम्हें दिखलाऊं कहाँ ?
सूना है सारा आसमान,
धुऐं में बेकार भरमाऊँ कहाँ ?
इसलिए कहता हूँ,
जहाँ भी मिले मौज ले लो !
जी चाहता हो तो टेनिस खेलो,
या बैठ कर घूमो कार में !
पार्कों के इर्द-गिर्द अथवा बाज़ार में,
या दोस्तों के साथ मारो गप्प !
सिगरट पियो !
तुम जिसे मौज मानते हो, उसी मौज में जियो !
मस्ती को धूम बन छाने दो,
उँगली पर पीला-पीला दाग पड़ जाने दो !
लेकिन, देवता हैं नहीं,
तुम्हारा जो जी चाहे करो !
फूलों पर लोटो,
या शराब के शीशे में डूब मारो !
मगर, मुझे अकेला छोड़ दो १
मैं अकेला ही रहूँगा !
और बातें जो मन पर बीतती हैं,
उन्हें अवश्य कहूँगा !
मसलन, इस कमरे में कौन है
जिसकी वजह से हवा ठंडी है,
चारों ओर छाई शांति मौन है.
कौन यह जादू करता है ?
मुझमे अकारण आनंद भरता है.
कौन है जो धीरे से
मेरे अंतर को छूता है ?
किसकी उँगलियों से
पीयूष यह चूता है ?
दिल की धडकनों को,
यह कौन सहलाता है ?
अमृत की लकीर के समान,
हृदय में यह कौन आता-जाता है ?
कौन है जो मेरे बिछावन की चादर को
इस तरह चिकना गया है,
उस शीतल, मुलायम समुद्र के समान,
बन गया है ?
जिसके किनारे, जब रात होती है,
मछलियाँ सपनाती हुई सोती हैं?
कौन है, जो मेरे थके पांवो को.
धीरे धीरे सहलाता और मलता है ?
इतनी देर कि थकन उतर जाए,
प्राण फिर नयी संजीवनी से भर जाए ?
अमृत में भीगा हुआ यह किसका,
अंचल हिलता है ?
पाँव में भी कमल का फूल खिलता है!
और विश्वास करो,
यहाँ न तो कोई औरत है, न मर्द;
मैं अकेला हूँ !
अकेलेपन की आभा जैसे-जैसे गहनाती है,
मुझे उन देवताओं के साथ नींद आ जाती है,
जो समझो तो है, समझो तो नहीं है;
अभी यहाँ हैं, अभी और कहीं हैं !
देवता सरोवर हैं, सर हैं, समुद्र हैं !
डूबना चाहो
तो जहाँ खोजो, वहीँ पानी है !
नहीं तो सब स्वप्न की कहानी है !
(आत्मा की आँखे से ली गयी कविता )

बुधवार, 28 मार्च 2012

सरकारी स्कूल नक्सली नहीं परिवर्तनकारी पैदा करते हैं

सरकारी स्कूल नक्सली नहीं परिवर्तनकारी पैदा करते हैं

arunpicअरुण चन्द्र रॉय

अच्छा हुआ कि श्री श्री रविशंकर जी ने यह बयान दिया कि सरकारी स्कूल नक्सली पैदा करते हैं. कम से कम सरकारी स्कूल बनाम पब्लिक स्कूल की एक बहस तो शुरू होगी. इस विषय पर मेरा अध्यनन कुछ नहीं है लेकिन सरकारी स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालय से पढ़ कर निकला हूं तो थोडा अहम् को ठेस तो लगा ही है.


पब्लिक स्कूल की अवधारणा 

इतिहास का तो नहीं पता लेकिन मुझे लगता है कि पब्लिक स्कूल की अवधारणा भारत में अंग्रेज़ों के आने के बाद शुरू हुई है. कहीं पढ़ रहा था कि भारत में जातीय और धार्मिक विद्वेष पहले उतना नहीं था, यह तो अंग्रेज़ों ने आकर पैदा किया. उनके हित साधन के लिए, यानी भारत पर शासन करने के लिए भारतीय समाज में दो वर्ग पैदा करना ज़रुरी था, एक जो शासन करे और एक जिस पर शासन चले. शासक वर्ग को तब तक अलग नहीं किया जा सकता था जब तक कि उनके बच्चे को समाज से अलग न हों और वहीं से शुरू हुई अलग स्कूल की जरुरत. यहीं पडी थी पब्लिक स्कूल की नींव. देश आज़ाद तो हुआ लेकिन मानसिकता नहीं बदली. सो चलते रहे इस तरह के स्कूल. आर्थिक उदारीकरण  के बाद समाज में यह खाई और बढ़ी और स्कूल बन गए स्टेटस सिम्बल. पब्लिक स्कूल बन गए बाज़ार. बाज़ार का नियम है एक उत्पाद तब तक नहीं चल सकता जब तक कि उसके प्रतिस्पर्धी उत्पाद को निकृष्ट न दिखाया जाय. बाज़ार में होड़ होना ज़रुरी है. यही होड़ आज अपने चरम पर है जो बेहतर पढाई के नाम पर मध्यवर्गीय भारतीय समाज की जेब काट रहा है.

भारत में विद्यालय

भारत एक विशाल देश है. अधिकाश लोगों को भारत के भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक विषमता और व्यापकता का आभास ही नहीं है.  सरकारी आकड़ों को मान लें, तो भी अभी देश के आधे गाँव में चार घंटे बिजली नहीं पहुची है. सौ लोगों तक की आबादी वाले मोहल्ले तक सड़क पहुचने के लक्ष्य से काफी दूर है अपनी सरकार. ऐसे में स्कूल तक कितनी पहुंच होगी देश के नौनिहालों की, यह सहज सोचा और महसूस किया जा सकता है. देश में अभी लगभग सात लाख प्राथमिक विद्यालय हैं. लेकिन एक बच्चे को 1 से 3 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है प्राथमिक विद्यालय तक पहुचने के लिए.  माध्यमिक विद्यालय तक यह दूरी और बढ़ जाती है. कालेज के लिए तो यह दूरी 25 से 50 किलोमीटर तक भी हो जाती है.  जिन लोगों का कभी गाँव या सुदूर गाँव से पाला नहीं पड़ा है वे सोच भी नहीं सकते हैं कि बिना भवन और शिक्षक के कैसे स्कूल चलते हैं. यह तो है देश में शिक्षा की दयनीय तस्वीर. लेकिन हर दयनीय व्यक्ति नक्सली है, यह नहीं हो सकता.

सरकारी स्कूल बनाम पब्लिक स्कूल 

school1देश में तीन तरह के विद्यालय हैं. एक खास सरकारी. एक पब्लिक स्कूल और एक बड़ा तबका स्कूल का सरकारी स्कूल को बदनाम करते हुए बिना मान्यता के चलते हैं. ऐसे स्कूलों की संख्या बड़ी तादाद में है. खैर यह एक अलग मुद्दा है. 52वे राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण आकडे के अनुसार देश में उच्च विद्यालय में लगभग 86 %  बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं और शेष 14 % पब्लिक स्कूलों में, जिसमे असंगठित रूप से चल रहे पब्लिक स्कूल भी शामिल हैं.  सरकारी स्कूल भी तीन तरह के हैं. एक केंद्रीय विद्यालय, जिसमे अधिकांशतः शहरी, सरकारी कर्मचारियों के बच्चे पढ़ते हैं. दूसरे सुदूर क्षेत्र में अवस्थित नवोदय विद्यालय और तीसरे देश के विभिन राज्यों में चलते प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च विद्यालय. गौरतलब है कि इन तीनो विद्यालयों का परीक्षा परिणाम लगातार तथाकथित पब्लिक स्कूलों को पीछे छोड़ रहा है.

schol2एक अध्ययन के अनुसार 2001 से 2011 तक की अवधि में जवाहर नवोदय विद्यालय (जो कि एक सरकारी स्कूल ही है) में दसवी की परीक्षा में सफलता के परिणाम में लगातार सुधार हुआ है और 2001 में 87% पास परिणाम की तुलना में 2011 में पास हुए विद्यार्थियों की प्रतिशतता बढ़ कर 97.5% हो गई है. जबकि पब्लिक स्कूलों की पास प्रतिशतता 2011 में 92 प्रतिशत रही है. केंद्रीय विद्यालयों का औसत भी पब्लिक स्कूलों की तुलना में बेहतर ही है. भारतीय प्रसाशनिक सेवा अधिकारीयों पर किये गए एक अध्यनन के अनुसार 73% आई ए एस अधिकारी ग्रामीण पृष्टभूमि से होते हैं और सरकारी स्कूलों से पढ़े होते हैं. 

जीवन में उपलब्धिया 

एक पुस्तक "डाइवर्सिटी एंड चेंज़ इन माडर्न इण्डिया - एंटोनी ऍफ़ हीथ और रोज़र जेफरी (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस) "  के अनुसार भारत में सफल जीवन जीने वाले लोग आम तौर ग्रामीण पृष्ठभूमि से आते हैं और उनमे परिवर्तन करने और नेतृत्व क्षमता अधिक होती है. देश में बदलाव लाने वालों की अगली कतार में वे हैं जिनका संघर्ष अधिक रहा है. ऐसे लोगों की सूची में देश के बड़े वैज्ञानिको, खिलाडियों, शिक्षाविदो के नाम हैं जिन्होंने आधुनिक भारत की नीव रखी है. भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम का नाम भी इसमें शामिल है. एक शोधपत्र "एक्सेस, सटिस्फैक्शन एंड फ्यूचर : अंडर ग्रैज़ुएट  एजुकेशन इन इण्डिया - आर वर्मा " में स्पष्ट उल्लेख है कि सरकारी स्कूलों और खुद पढ़ कर आये छात्र में रचनात्मकता और नवोंन्मेषण तुलनात्मक रूप से अधिक होती है और वे अपने जीवन को नए नज़रिए से देखते हैं तथा नए समाधान के लिए उत्त्प्रेरक का काम करते हैं.  इसके अतिरिक्त सरकारी स्कूल से सैकड़ों ड्रॉप आउट बच्चे ऐसे हैं जो कुशल, अर्धकुशल कामगार के रूप में देश के आर्थिक विकास में अपना योगदान कर रहे हैं. क्या श्रम का योगदान आर्थिक विकास के चित्र से हटा दिया जायेगा ?

ऐसे में, श्री श्री रविशंकर से आग्रह है,

आप कभी भारत के उन गाँव, कस्बो की यात्रा करें, सरकारी स्कूलों में एक दिन बिताएं, जहाँ बच्चे सूरज, चाँद, खेत खलिहान, फसल, तालाब, पोखर से सीखते हुए बड़े होते हैं. जीवन जीने की कला उनमे प्राकृतिक रूप से आती है. वे नक्सल नहीं होते. वे परिवर्तनगामी होते हैं. 

सरकारी स्कूल – यानी असरकारी स्कूल!

रविवार, 25 मार्च 2012

प्रेरक प्रसंग-29 : एक बाल्टी पानी

प्रेरक प्रसंग-29

एक बाल्टी पानी

प्रस्तुत कर्ता: मनोज कुमार

Gandhi (8)गांधी जी के विचारों में पर्यावरण की चिंता उनकी प्राथमिकता थी। उनका सारा जीवन और उनके सारे काम पर्यावरण के संरक्षण का उदाहरण है। गांधी जी की पर्यावरण-चिंता के मूल में गांव थे। वे गावों की आत्मनिर्भरता की पैरवी आजीवन करते रहे। वह मानते थे कि शहरों की स्फीत धमनियों में बहता हुआ रक्त दरअसल गांव की संकुचित होती धमनियों से बेरहमी से निचोड़ा गया रक्त है। विश्व के समृद्ध समाज की भूख पल-पल विकराल होती जा रही है। उस पर नियंत्रण बहुत ज़रूरी है। बिना इसके पर्यावरण की रक्षा की बात बेमानी है। आज सारा संसार पर्यावरण के प्रति संवेदनशील नज़र आता है, और इस कारण एक बार फिर से गांधी जी के विचार काफ़ी प्रासंगिक हो गए हैं।

इस विषय पर उनसे जुड़े एक प्रसंग का उल्लेख करना चाहूंगा। एक बार इलाहाबाद के “आनन्द भवन” में गांधी जी नेहरू परिवार के अतिथि थे। उन्होंने स्नान के लिए जवाहरलाल नेहरू जी से पानी भेजने के लिए कहा। तुरन्त स्नानघर में दो बाल्टी पानी रख दिया गया। गांधी जी ने एक बाल्टी पानी लौटा दिया।

यह देख जवाहहरलाल नेहरू जी ने कहा, “बापू, यह गंगा-यमुना की नगरी है। यहां पानी की कमी नहीं है।”

गांधी जी ने इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, “ज़रूरत से ज़्यादा किसी चीज़ का उपयोग कर हम किसी ज़रूरतमंद को उसके प्राप्य से वंचित कर देते हैं। ऐसे काम मेरे अनुसार हिंसा की श्रेणी में आते हैं।”

बापू का मानना था कि “यदि हमें इस पृथ्वी को बचाकर रखना है तो प्राकृतिक संसाधनो का अनुशासित तरीके से इस्तेमाल होना चाहिए।”

शनिवार, 24 मार्च 2012

पुस्तक परिचय-22 : हिन्द स्वराज : नव सभ्यता-विमर्श

पुस्तक परिचय-22

पुराने पोस्ट के लिंक

1. व्योमकेश दरवेश, 2. मित्रो मरजानी, 3. धरती धन न अपना, 4. सोने का पिंजर अमेरिका और मैं, 5. अकथ कहानी प्रेम की, 6. संसद से सड़क तक, 7. मुक्तिबोध की कविताएं, 8. जूठन, 9. सूफ़ीमत और सूफ़ी-काव्य, 10. एक कहानी यह भी, 11. आधुनिक भारतीय नाट्य विमर्श, 12. स्मृतियों में रूस13. अन्या से अनन्या 14. सोनामाटी 15. मैला आंचल 16. मछली मरी हुई 17. परीक्षा-गुरू 18. गुडिया भीतर गुड़िया 19. स्मृतियों में रूस 20. अक्षरों के साये 21. कलामे रूमी

 

हिन्द स्वराज : नव सभ्यता-विमर्श

IMG_3628

मनोज कुमार

सन् 1909 में गांधी जी ने “हिंद स्‍वराज्‍य” पुस्‍तक लिखी थी। उन्‍होंने यह पुस्‍तक “किलडोनन कैसल” नामक पानी के जहाज पर लन्दन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए 13 से 22 नवम्बर की अवधि में हाथ से लिखी थी। जब उनका एक हाथ थक जाता था तो दूसरे हाथ से लिखने लगते थे। यह पुस्तक संवाद शैली में लिखी गई है। हिंसक साधनों में विश्‍वास रखने वाले कुछ भारतीय के साथ जो चर्चाएं हुई थी उसी को आधार बनाकर उन्‍होंने यह पुस्‍तक मूलरूप से गुजराती में लिखी थी। 12 और 20 दिसंबर 1909 में ‘इंडियन ओपिनियन’ के दो अंकों में “हिंद स्वराज्य” शीर्षक से गुजराती में यह प्रकाशित हुआ। जनवरी 1910 में इसका पुस्तकाकार रूप प्रकाशित हुआ। बाद में इसका अंग्रेजी में गांधी जी द्वारा और हिंदी में अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी द्वारा अनुवाद हुआ। बाद में स्वराज्य – स्वराज में बदल गया।

लोगों द्वारा अपने आपको समझने की कोशिश और अपने होने का अर्थ की तलाश चलती रहती है। व्यक्ति इससे जूझता रहता है। जब पश्चिमी सभ्यता उत्थान पर थी तब भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद चरम पर था। ऐसी परिस्थिति में अपनी सभ्यता और संस्कृति के अर्थ की तलाश करने में गांधी जी जुटे थे। और इसी तलाश के परिणाम के रूप में “हिन्द स्वराज्य” सामने आता है। माना तो यह जाता है कि गांधी जी को समझना आसान भी है और मुश्किल भी। हिंद स्‍वराज्‍य गांधीवाद को समझने की कुंजी है। गांधी जी उन दिनों जो कुछ भी कर रहे थे, वह इस छोटी सी किताब में बीजरूप में है। गांधी जी को ठीक से समझने के लिए इस किताब को बार बार पढ़ना चाहिए।

IMG_3630दरअसल यह पाश्चात्य आधुनिक सभ्यता की समीक्षा है। साथ ही उसको स्वीकार करने पर प्रश्नचिह्न भी है। इसमें भारतीय आत्मा को स्वराज, स्वदेशी, सत्याग्रह और सर्वोदय की सहायता से रेखांकित किया गया है। इस पुस्तक का प्रखर उपनिवेश-विरोधी तेवर सौ साल बाद आज और भी प्रासंगिक हो उठा है। नव उपनिवेशवाद से जूझने के संकल्प को लगातार दृढ़तर करती ऐसी दूसरी कृति दूर-दूर तक नज़र नहीं आती। इस पुस्तक के शती पर बहुत सी किताबें सामने आईं। वीरेन्द्र कुमार बरनवाल ने भी “हिन्द स्वराज : नव सभ्यता-विमर्श” नाम से एक पुस्तक लिखी है। इस सप्ताह हम इसी पुस्तक से आपका परिचय कराने जा रहे हैं।

श्री बरनवाल ने काफ़ी खोजबीन कर यह पुस्तक लिखी है। उन्होंने गांधी जी की मनोभूमि को गहराई में जाकर पकड़ने का प्रयत्न किया है। अपने खोज को निष्कर्ष देते हुए कहते हैं, “‘हिन्द स्वराज’ का मतलब गांधी।” और यहीं से शुरू हुआ लेखक का “पुरोवाक्‌” इस नोट के साथ खतम होता है कि “‘हिन्द स्वराज्य’ का अक्षर-अक्षर गांधी जी ने अपने हृदय के ख़ून से लिखा है।” लेखक इस पुस्तक में यह भी बताता चलता है कि “पिछले सौ सालों में हम उल्टी दिशा में इतना आगे निकल गए हैं कि हमें उनका रास्ता प्रतिगामी और नितान्त अव्यावहारिक लगता है।” इसलिए वह सलाह देता है कि “हिन्द स्वराज को न तो पवित्र पाठ के रूप में पढ़ाजाए और न ही इसे ध्वस्त करने के पूर्वाग्रह के साथ, बल्कि इसे सजग सम्यक्‌ विवेक के साथ आलोचनात्मक दृष्टि से पढ़ना चाहिए।” इसी दृष्टि से लेखक ने इस पुस्तक में उस पुस्तक पर विमर्श किया है जो स्वयं ही विमर्श के लिए मानक पुस्तक है। इस पुस्तक के महत्व को बताने के लिए इतना बताना काफ़ी है कि गांधी जी ने अप्रैल 1910 में यह पुस्तक टॉल्सटॉय को समर्पित की तो उन्होंने जवाब में गांधी जी को लिखा था, “मैंने तुम्हारी पुस्तक बहुत रुचि के साथ पढी। तुमने जो सत्याग्रह के सवाल पर चर्चा की है यह सवाल भारत के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं बल्कि पूरी मानवता के लिए महत्वपूर्ण है”।

बरनवाल जी ने इस पुस्तक की पृष्ठभूमि की विस्तार से चर्चा की है। गांधी जी के ऊपर सबसे ज़्यादा प्रभाव लियो टालस्टॉय का था। उन्ही दिनों गांधीजी ने लियो टालस्टॉय की पुस्तक “दि किंगडम ऑफ गॉड इज विदिन यू” पढ़ी थी। इस पुस्तक ने उनके मन को मथ डाला। टालस्टॉय का मत था कि नैतिक सिद्धांतों का हमें दैनिक जीवन में प्रयोग करना चाहिए। गांधीजी ने इस आदर्श को जीवन में प्रयोग करने की ठान ली। इसके अलावा रस्किन और थोरो का भी गांधी पर गहरा प्रभाव था।

बरनवाल जी बताते हैं कि “हिन्द स्वराज” मूलतः सभ्यता विमर्श है। मशीनी सभ्‍यता ने जिस तरह पृथ्वी के पर्यावरण को नष्‍ट किया है उसका परिणाम आज सामने है। आर्थिक साम्राज्‍यवाद ने विश्‍व में गैर बराबरी को और भी बढ़ाया है जिसके कारण विश्‍व में हिंसा का आतंकवाद बढ़ा है। ऐसी स्थिति में, “हिंद स्‍वराज” में जैसी सभ्‍यता व राज्‍य की कल्‍पना की गई है वह सम्‍पूर्ण विश्‍व के सामने विकल्‍प के रूप में है, जिसे आजमाया जाना चाहिए। हिन्द स्वराज’ के द्वारा गांधी जी ने हमें आगाह किया है कि उपनिवेशी मानसिकता या मानसिक उपनिवेशीकरण हमारे लिए बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकता है। उन्होंने हिन्द स्वराज के माध्यम से एक ‘भविष्यद्रष्टा’ की तरह पश्चिमी सभ्यता में निहित अशुभ प्रवृतियों का पर्दाफ़ाश किया। इस खंड की चर्चा का निष्कर्ष बरनवाल जी इन शब्दों से करते हैं, “उथली नज़र को ‘हिन्द स्वराज’ का सभ्यता-विमर्श भले ही कुछ क्षण के लिए हिन्दुस्तान-केन्द्रित लगे पर सच्चाई तो ये है कि उस्के विश्वव्यापी और सार्वभौम आयाम हैं जो देश-काल की सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं।”

गांधी जी को लगता था कि हिंसा से हिंदुस्‍तान के दुःखों का इलाज संभव नहीं है। उन्‍हें आत्‍मरक्षा के लिए कोई अलग और ऊंचे प्रकार का शस्‍त्र काम में लाना चाहिए। गांधी जी ने दक्षिण अफ्रिका के सत्‍याग्रह का प्रयोग 1907 में ही शुरू कर दिया था। इसकी सफलता से उनका आत्‍मविश्‍वास बढ़ा था। यह पुस्‍तक द्वेषधर्म की जगह प्रेमधर्म सिखाती है। हिंसा की जगह आत्‍मबलिदान में विश्‍वास रखती है। पशुबल से टक्‍कर लेने के लिए आत्‍मबल खड़ा करती है। गांधी जी का मानना था कि अगर हिंदुस्‍तान अहिंसा का पालन किताब में उल्लिखित भावना के अनुरूप करे तो एक ही दिन में स्‍वराज्‍य आ जाए। हिंदुस्‍तान अगर प्रेम के सिद्धांत को अपने धर्म के एक सक्रिय अंश के रूप में स्‍वीकार करे और उसे अपनी राजनीति में शामिल करे तो तो स्‍वराज स्‍वर्ग से हिंदुस्‍तान की धरती पर उतरेगा। लेकिन उन्हें इस बात का एहसास और दुख था कि ऐसा होना बहुत दूर की बात है।

बरनवाल जी बताते हैं कि इस पुस्तक में गांधी जी ने आध्यात्मिक नैतिकता की सहायता से हमारी अर्थनैतिक और सैनिक कमजोरी को शक्ति में बदल दिया। अहिंसा को हमारी सबसे बड़ी शक्ति बना दी। सत्याग्रह को अस्त्र में बदल दिया। सहनशीलता को सक्रियता में बदल दिया। इस प्रकार शक्तिहीन शक्तिशाली हो गया। गांधी जी को मनोविज्ञान की गहरी समझ थी। वे मानते थे कि विकास और समृद्धि के दूसरे दायरे की तलाश ज़रूरी है। व्यक्ति को आन्तरिक सुख और समृद्धि का क्षेत्र खुद खोजना चाहिए। वह साहित्य, कला या संगीत आदि का क्षेत्र हो या पीड़ित-वंचित की सेवा का हो। इससे अर्जित सुख और संतोष से बढ़कर कोई धन नहीं है।

बरनवाल जी यह बताते हैं कि “गांधी जी के आर्थिक-सामाजिक चिन्तन के केन्द्र में गांव की केन्द्रीयता सदैव बनी रही।” ‘हिन्द स्वराज’ में उन्होंने पाश्चात्य आधुनिकता का विरोध कर हमें यथार्थ को पहचानने का रास्ता दिखाया। ग्राम विकास इसके केन्द्र में है। वैकल्पिक टेक्नॉलोजी के साथ-साथ स्वदेशी और सर्वोदय को महत्व दिया सशक्तिकरण का मार्ग दिखाया। उनके इस मॉडेल के अनुसरण से एक नैतिक, आर्थिक, आध्यात्मिक और शक्तिशाली भारत का निर्माण संभव है।

गांधी जी मूलतः एक संवेदनशील व्यक्ति थे। वे अपने सिद्धांतों की कद्र करने वाले भी थे। उन्होंने पाश्चात्य सभ्यता को, परंपरागत भारत के समर्थक होने के बावजूद भी, अच्छी तरह पढा, समझा और फिर उसका विवेचनात्मक खंडन भी किया। उनके सामने यह बात स्पष्ट थी कि भारतीय-आधुनिकता सीमित होते हुए भी प्रभावी है। वर्तमान आर्थिक विश्वसंकट में गांधी जी की यह पुस्तक विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो उठी है। हालाकि कुछ खास वर्ग के लोग सोचते हैं कि गांधी जी देश को सौ वर्ष पीछे ले जाना चाहते हैं। लेकिन आज भारत हर संकट को पार कर खड़ा है। 1945 में गांधी जी के इस मत को कि देश का संचालन ‘हिंद स्वराज’ के माध्यम से हो, नेहरू जी ने ठुकरा दिया था। नेहरू जी का मानना था कि गांव स्वयं संस्कृतिविहीन और अंधियारे हैं, वे क्या विकास में सहयोग करेंगे। लेकिन आज भी हम पाते हैं की भारत रूपी ईमारत की नींव में गांव और छोटी आमदनी के लोग हैं। गांधी जी का ‘हिंद स्वराज’ इस वैश्वीकरण के दौर में भी तीसरी दुनिया के लिए साम्राज्यवादी सोच का विकल्प प्रस्तुत करता है।

गांधी जी के स्‍वराज के लिए हिंदुस्‍तान न तब तैयार था न आज है। यह आवश्‍यक है कि उस बीज ग्रंथ का हम अध्‍ययन करें। श्री बरनवाल ने गांधी चिन्तन के गहरे अध्ययन के उपरान्त यह पुस्तक लिखी है। अपनी बातों को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने जगह-जगह घटनाओं, विवरणों का ब्यौरा दिया है जिससे पुस्तक के पढ़ने के रुचि बनी रहती है। सत्‍य और अहिंसा के सिद्धांतों के स्‍वीकार में अंत में क्‍या नतीजा आएगा, इसकी तस्‍वीर इस बेजोड़ पुस्‍तक में है।

IMG_3627

पुस्तक का नाम

हिन्द स्वराज : नव सभ्यता-विमर्श

लेखक

वीरेन्द्र कुमार बरनवाल

प्रकाशक

राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड

संस्करण

पहला संस्करण : 2011

मूल्य

450 clip_image002

पेज

323

बुधवार, 21 मार्च 2012

यह पपीहे की रटन है


हरिवंशराय बच्चन

11. यह पपीहे की रटन है

यह पपीहे की रटन है !

बादलों  की घिर घटाएं
भूमि की लेती बलाएं ,
खोल दिल देती दुआएं देख किस उर में जलन है?
यह पपीहे की रटन है !

जो  बहा  दे, नीर आया,
आग का फिर तीर आया,
वज्र भी बेपीर आया कब रुका इसका वचन है?
यह पपीहे की रटन है !

यह न पानी से बुझेगी,
यह न पत्थर से दबेगी,
यह न शोलों से डरेगी, यह वियोगी की लगन है!
यह पपीहे की रटन है !
***

दोहावली .... भाग - 4 / संत कबीर



जन्म  --- 1398
निधन ---  1518
दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय ।
बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ॥ 31 ॥
दान दिए धन ना घते, नदी ने घटे नीर ।
अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥ 32 ॥
दस द्वारे का पिंजरा, तामे पंछी का कौन ।
रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन ॥ 33 ॥
ऐसी वाणी बोलिए , मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥ 34 ॥
हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट ।
बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥ 35 ॥
कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार ।
साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥ 37 ॥
मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय ।
मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 38 ॥
सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप ।
यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥ 39 ॥
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ ।
मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥ 40 ॥

क्रमश:
दोहवाली --- भाग –1 / भाग – 2 /भाग - 3

मंगलवार, 20 मार्च 2012

शिकायती टट्टू (व्यंग्य रचना)

शिकायती टट्टू

(व्यंग्य रचना) 

मेरा फोटोअरुण चन्द्र रॉय

लोकतंत्र का चरित्र बदल रहा है.  जनता जाग गई है और यही है असली समस्या. जनता हो गई है शिकायती टट्टू. हर चीज़ में शिकायत. हर बात में शिकायत. ठीक है कि हर एक वोट जरुरी है लेकिन अब देश के हर व्यक्ति की सुविधा और जरुरत का ख्याल तो रखा नहीं जा सकता ना.  लोग पीछे पड़ गए हैं कि सेवा का अधिकार अधिनियम पास हो गया है तो सब काम समय पर होना चाहिए. लेकिन यदि सब काम समय पर होना ही होता तो अधिनियम की क्या जरुरत थी.


जनता को शिकायत करने की आदत है, तो आदत है सरकार की भी कान में तेल डाल सोने की. डंका बजा बजा के जनता सरकार को जगाना चाह रही थी लेकिन हुआ क्या?  उदाहरण के तौर पर जनता छोटी छोटी बातों पर शिकायत करने लगती है.  अब सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकान पर यदि चीनी नहीं मिले तो शिकायत, दाना छोटा हो जाये तो शिकायत. अरे भाई ! सरकार कोई हंसी खेल थोड़े ही है! सरकार है, इसे देश को चलाना है. अब सरकार चीनी के दाने पर नियंत्रण  रखें या दाम पर. दाम पर नियंत्रण रखती हैं तो सरकार अल्पमत में आ जाती है. बड़े बड़े घाघ बैठे हैं … सरकार में … जो देश की मिठास पर कब्ज़ा जमाये हुए हैं.  दाना के बड़े छोटे होने को तो संभाला भी जा सकता है, लेकिन जनता से  जरुरत तो पांच साल में एक बार ही पड़ती है. उसे तो अंत में मना ही लिया जाता है.

शिकायती टट्टू तो हो गई जनता लेकिन स्मृति दोष भी तो है. जिस चौखट से दुत्कारे जाते हैं, वहीँ दुम दबाये, दुम हिलाते पहुँच जाते हैं. अब पिछली बार साइकिल के पहिये से बाँध जनता को कितना घसीटा गया था तो जनता ने भी पाला बदल लिया. जब पांच साल तक हाथी के पैरो के नीचे कुचलने के बाद फिर से उसी साइकिल के पहिये से बंधना पड़ गया. अब क्या हक़ है जनता को शिकायत करने का. कमल के दलदल में फंसे, या हाथ की ओर से झन्नाटेदार थप्पड़ खाए... विकल्प सब एक जैसे हों तो बेचारी जनता भी क्या करें.. शिकायती टट्टू होकर उसे तो बोझ ही ढोना है... महंगाई का, भ्रष्टाचार का, गुंडा राज का, पुलिसिया रौब का. और यह सूची तो अंतहीन है.


आज कल एक शिकायत और है कि क्रिकेट के मैच फिक्स होने लगे हैं. लेकिन कोई पूछे इनसे कि क्या छक्का चौका देखने में क्या इससे आनंद कम हो जाता है. क्रिकेटर क्या हैं... रेस में दौड़ने वाले घोड़े से ना तो कम हैं, न अधिक. घोड़े के दौड़ने से जो जोश और उन्माद आता है क्रिकेट के मैदान में भी वही आनंद आता है इन दिनों. परदे के पीछे देखने की क्या जरुरत पड़ गई है जनता को. मैच देखो. विज्ञापन देखो, क्रिकेटर के विज्ञापन वाले उत्पाद खरीदो. खुश रहो. मैच को ऐसे देखो जैसे फिल्म देखते हो. डाइरेक्टर कहीं और होता है और किरदार तो बस किरदार होता है. इसमें क्या और कैसे शिकायत.  आज कल जनता के हितैषी भी बहुत हो गए हैं. आधी जनता तो कभी रेल पर चढ़ती नहीं है उसके किराये पर जंग हो जाती है बेचारे मंत्री शहीद हो जाते हैं. शिकायती जनता विस्मित है.

जनता को थक तो जाना ही है एक दिन. जैसे थक गए हैं टूजी घोटाले, लोकपाल, सी डब्लू जी आदि आदि की ख़बरें पढ़कर, सुनकर, एक दिन ये शिकायती टट्टू भी थक जायेंगे. कब तक, कितनी जल्दी, ये देखने वाली बात होगी.

रविवार, 18 मार्च 2012

प्रेरक प्रसंग-28 : फ़िजूलख़र्ची

प्रेरक प्रसंग-28

फ़िजूलख़र्ची

मनोज कुमार

छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देना गांधी जी की अद्वितीय विशेषता थी। चाहे वह कहीं भी हों, किसी भी परिस्थिति में हों, सत्य का प्रयोग तो वे हमेशा करते ही रहते थे। बात गोलमेज सम्मेलन के समय की है। गांधी जी प्रतिदिन भोजन के समय थोड़ा सा शहद लेते थे। एक दिन भारतीय दल को एक जगह भोजन के लिए निमंत्रण पर जाना पड़ा।

उस दिन गांधी जी का जहां भोजन था, वहां मीरा बहन हमेशा की तरह शहद की बोतल साथ ले जाना भूल गईं। खाने का समय हो चुका था। मीरा बहन को शहद की याद आई। बोतल तो निवास स्थल पर ही छूट गई थी। अब क्या किया जाए? उन्होंने फौरन किसी को पास की दूकान से शहद की बोतल खरीद कर मंगवा ली।

गांधी जी जब खाने बैठे, तो उन्हें शहद परोसा गया। उनका ध्यान नई बोतल पर गया। उन्होंने पूछा, “बोतल नई दिखती है। शहद की वह बोतल नहीं दिखाई दे रही।”

मीरा बहन ने डरते-डरते कहा, “हां, बापू! वह बोतल निवास स्थल पर ही छूट गई। उसलिए यह जल्दी से मंगवा ली।”

बापू गंभीर हो गए। बोले, “एक दिन शहद नहीं मिला होता, तो मैं भूखा थोड़े ही रह जाता। नई बोतल क्यों मंगवाई? हम जनता के पैसे पर जीते हैं। जनता के पैसे की फ़िजूलख़र्ची नहीं होनी चाहिए।”

***

प्रेरक प्रसंग – 1 : मानव सेवा, प्रेरक-प्रसंग-2 : सहूलियत का इस्तेमाल, प्रेरक प्रसंग-3 : ग़रीबों को याद कीजिए, प्रेरक प्रसंग-4 : प्रभावकारी अहिंसक शस्त्र, प्रेरक प्रसंग-5 : प्रेम और हमदर्दी, प्रेरक प्रसंग-6 : कष्ट का कोई अनुभव नहीं, प्रेरक प्रसंग-7 : छोटी-छोटी बातों का महत्व, प्रेरक प्रसंग-8 : फूलाहार से स्वागत, प्रेरक प्रसंग-९ : बापू का एक पाप, प्रेरक-प्रसंग-10 : परपीड़ा, प्रेरक प्रसंग-11 : नियम भंग कैसे करूं?, प्रेरक-प्रसंग-12 : स्वाद-इंद्रिय पर विजय, प्रेरक प्रसंग–13 : सौ सुधारकों का करती है काम अकेल..., प्रेरक प्रसंग-14 : जलती रेत पर नंगे पैर, प्रेरक प्रसंग-15 : वक़्त की पाबंदी,प्रेरक प्रसंग-16 : सफ़ाई – ज्ञान का प्रारंभ, प्रेरक प्रसंग-17 : नाम –गांधी, जाति – किसान, धंधा ..., प्रेरक प्रसंग-18 : बच्चों के साथ तैरने का आनंद, प्रेरक प्रसंग-19 : मल परीक्षा – बापू का आश्चर्यजनक..., प्रेरक प्रसंग–20 : चप्पल की मरम्मत, प्रेरक प्रसंग-21 : हर काम भगवान की पूजा,प्रेरक प्रसंग-22 : भूल का अनोखा प्रायश्चित, प्रेरक प्रसंग-23 कुर्ता क्यों नहीं पहनते? प्रेरक प्रसंग-24 : सेवामूर्ति बापू प्रेरक प्रसंग-25 : आश्रम के नियमों का उल्लंघन प्रेरक प्रसंग–26 :बेटी से नाराज़ बापू प्रेरक प्रसंग-27 : अपने मन को मना लिया

शनिवार, 17 मार्च 2012

पुस्तक परिचय-21 : कलामे रूमी

पुस्तक परिचय-21

कलामे रूमी

08102009148_editedमनोज कुमार

अपनी भी हो गई किताब

एयरपोर्ट पर एकाध पुस्तक की दुकान मिल जाती है जिस पर टाइम पास करते एकाध प्रबुद्ध पुस्तक-प्रेमी। दिल्ली एयरपोर्ट पर अपवादस्वरूप कई पुस्तक की दुकानें दिख जाती हैं। एयरपोर्ट की पुस्तक की दुकानों पर अंग्रेज़ी पुस्तकें ही दिखती हैं। हालाकि मैं अमूमन न तो अंग्रेज़ी पुस्तकें ख़रीदता हूं, और न ही पढ़ता हूं, लेकिन एयरपोर्ट की पुस्तक की दुकान पर जाता ज़रूर हूं, पुस्तक विक्रेता को यह कहने कि आपको हिंदी पुस्तकें भी रखनी चाहिए। मुम्बई जाते वक़्त जब कोलकाता एयरपोर्ट पहुंचा, तो वहां की एकमात्र पुस्तक की दुकान में इस बार हिंदी की पुस्तकें देखकर मेरा मन हर्षित हुआ। चार पुस्तकें ख़रीदी जिनमें से एक पढ़ डाली है और आज की पुस्तक परिचय में उसी पुस्तक से आपका परिचय कराने जा रहा हूं।

अभय तिवारी एक ब्लॉगर हैं और इनका ब्लॉग है निर्मल-आनंद। अपने परिचय में लिखते हैं – “कानपुर की पैदाइश, इलाहाबाद और दिल्ली में शिक्षा के नाम पर टाइमपास करने के बाद कई बरसों से मुम्बई में - फ़िल्म और टैलिवीज़न के बीच; ख़ुदमुख़्तारी और मजूरी के बीच; रोज़गार, सरोकार और बेकार की चिन्ताओं के बीच।” उन्होंने “कलामे रूमी” नाम से फ़ारसी साहित्य के विद्वान सूफ़ी विचारक और संत मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन रूमी की प्रसिद्ध पुस्तक “मसनवी” का हिंदी अनुवाद किया है। अभय तिवारी बताते हैं कि यह काम उन्होंने 2005 में शुरू किया था और तीस-चालीस ग़ज़लों का अनुवाद करने के बाद अपने काम से सिलसिले में उन्हें अनुवाद कार्य बंद कर देना पड़ा। फिर ये ब्लॉग की दुनिया में फरवरी 2007 से प्रवेश कर गए। जब ये ब्लॉग लेखन नियमित रूप से करने लगे तो इन्होंने अपने अनुवाद कार्य को एक “रूमी हिंदी” नाम से ब्लॉग की शक्ल दे दिया।

अक्तूबर 2009 में हिंद पॉकेट बुक्स के संपादक तेजपाल सिंह धामा की नज़र इस ब्लॉग पर पड़ी। उन्होंने ने तिवारी के काम को पसंद किया और इसे किताब के रूप में छापने की पेशकश की। तिवारी के लिए यह उत्साहवर्धन था और उन्होंने दिनरात एक करके अपने अनुवाद कार्य को पूरा किया और यह “कलामे रूमी” के नाम से पुस्तक की शक्ल में आया।

मसनवी फ़ारसी साहित्य की अद्वितीय कृति है। इसमें संस्मरणों और रूपकों के ज़रिए ईश्वर और आस्था के मसलों पर विवेचन किया गया है। रूमी सिर्फ़ कवि नहीं है, वे सूफ़ी हैं, वे आशिक़ हैं, वे ज्ञानी हैं, विद्वान हैं और सबसे बढ़कर वे एक गुरु हैं। उनमें एक तरफ़ तो उस माशूक़ के हुस्न का नशा है, विसाल की आरज़ू व जुदाई का दर्द है, और दूसरी तरफ़ नैतिक और आध्यात्मिक ज्ञान की गहराईयों से निकाले हुए अनमोल मोती हैं। इसीलिए रूमी का साहित्य सारे संसार को सम्मोहित किए हुए है।

हज़रत जलालुद्दीन रूमी रह. का जन्म 1207 में बल्ख़ में हुआ था। जब हज़रत रूमी रह. बारह बरस के थे तो चंगेज़ खान के आतंक से डर कर उनके पिता बहाउद्दीन वलेद परिवार को लेकर बल्ख़ से भाग खड़े हुए। इस भटकन के दौरान रूमी की मुलाक़ात हज़रत फ़रीदुद्दीन अत्तार रह. से हुई। इस मुलाक़ात ने हज़रत रूमी पर गहरा असर डाला। दोनों ने बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में सूफ़ीमत को ख़ास और आम सबके दरम्यान लोकप्रिय बनाया। हज़रत अत्तार रह. ने अनुभवजन्य ज्ञान पर बल देकर सूफ़ी-साधना को फ़ना (निर्वाण) के साथ आबद्ध किया। जबकि हज़रत रूमी रह. ने हाल या वज्द (भावाविष्टावस्था) को सूफ़ी-साधना की महत्वपूर्ण पद्धति के रूप में प्रकाशित किया।

हज़रत रूमी रह. की रचनाओं के दो मुख्य ग्रंथ हैं, पहला उनकी ग़ज़लों और रूबाइयों का संग्रह “कुल्लियाते दीवाने शम्स तबरेज़ी” और दूसरा हिकायतों के ज़रिये आध्यात्मिक रहस्यों का काव्य “मसनवी मानवी”। “कुल्लियात” उनकी बेख़ुदी की हालत की उपज है। माना जाता है कि हज़रत रूमी कोन्या की गलियों में बेख़ुदी में नाचते-गाते फ़िरने लगे थे। वे अपने माशूक़ में, वस्ल में या फ़िराक़ में इस क़दर डूबे रहते थे कि उनको किसी चीज़ की सुध नहीं रहती थी। इसलिए दीवान की ग़ज़लें उनका आत्मालाप है, अंदर के भावों की अभिव्यक्ति। दीवानेपन के एक लंबे दौर से गुज़रने के बाद हज़रत रूमी एक ऐसे मक़ाम पर पहुंच गए जहां उनके भीतर दीवानगी का वो आलम नहीं था जो उन्हें सुध-बुध भुलाए रखे। इसलिए मसनवी बहुत सचेत रूप से उनके मुरीदों को संबोधित है।

“कलामे रूमी” पुस्तक में रूमी के अमर काव्य के साथ-साथ रूमी के जीवन-दर्शन और आध्यात्मिक वार्तालाप को भी समेटा गया है । पुस्तक पांच खंडों में विभाजित है। पहले खंड में सूफ़ी मत, रूमी के जीवन, उनसे संबंधित कुछ किस्से, उनकी करामतें और फ़ारसी से हिंदी में अनुवाद की मुश्किलों पर तिवारी ने चर्चा की है। दूसरा खंड “मसनवी मानवी से काव्यांश” का हिंदी रुपांतरण है। तिवारी का अनुवाद बड़ा ही सरल है और हिंदी पाठकों को आसानी से समझ आने वाला है।

सुनो ये मुरली कैसी करती है शिकायत

हैं दूर जो पी से, उनकी करती है हिकायत

काट के लाये मुझे, जिस रोज़ वन से

सुन रोये मरदोज़न, मेरे सुर के ग़म से

एक और विशेषता जो आकर्षित करती है वह यह कि जगह-जगह पर तिवारी ने फुट-नोट के ज़रिए सूफ़ी दर्शन पर प्रकाश डाला है। देखिए एक शे’र और उसका फुट नोट –

आदमी बन जा और गधागीरो से घबरा नहीं

अरे मर्दे कामिल तू गधा नहीं, ख़ौफ़ खा नहीं

गधागीरो = गधा पकड़ने वाले; मर्दे कामिल = संपूर्ण मनुष्य ; सूफ़ी मत के अनुसार आदमी आधा जानवर है और आधा फ़रिश्ता। दोनों में संघर्ष सतत चलता रहता है लेकिन मनुष्य जीवन का ध्येय एक संपूर्ण मनुष्य बनना ही है। यहां उस भोंदू को याद दिलाया गया है कि वो अपने को जानवर से पहचानने के बजाय अपने ध्येय को याद करे।

पुस्तक का तीसरा खंड कुल्लियाते दीवाने शम्स तबरेज़ी से ग़ज़लों का हिंदी अनुवाद है। चौथे खंड में फ़ीह मा फ़ीह से संवाद और पांचवां खंड परिशिष्ट है जिसमें सूफ़ी परंपरा के कुछ ख़ास तसव्वुर, स्रोत ग्रंथ और संदर्भों की सूची दी गई है।

चूंकि अभय तिवारी ने हज़रत रूमी के काव्य का अनुवाद सीधे फ़ारसी से हिंदी में किया है इसलिए यह न्यायसंगत और आसान बन पड़ा है। उन्होंने हज़रत रूमी के काव्य को उसी रूप में पेश किया है जिसमें वे रचे गए थे, यानी ग़ज़ल और मसनवी के छंद के प्राथमिक स्वरूप को उन्होंने बनाए रखा है। हां तुक मिलाकर उन्होंने अपनी अनुदित रचनाओं में माधुर्य का जो प्रवाह डाला है उससे स्रोत काव्य के भाव और रूप पर कोई फ़र्क़ नहीं आया है। ‘‘कलामे रूमी” के माध्यम से अभय तिवारी ने रूमी के जीवन-दर्शन, उनके सूफ़ी चिंतन और काव्य का एक सरल अनुवाद कर हिंदी पाठकों के समक्ष एक बेजोड़ कृति प्रस्तुत की है।

इसी पुस्तक की एक ग़ज़ल से मैं आज के पुस्तक परिचय को विराम देता हूं –

मुहब्बत से

कड़वा हो जाता है मीठा मुहब्बत से

तांबा हो जाता है सोना मुहब्बत से

 

करकट हो जाता सफ़ा है मुहब्बत से

दर्द हो जाता दवा है मुहब्बत से

 

मुहब्बत से मुर्दा हो जाता है ज़िन्दा

मुहब्बत से शाह हो जाता है बन्दा

 

नतीजा अक़ल का ही है ये मुहब्बत

तख़्तनशीं होता नहीं कोई बेमुरव्वत

*** *** *** ***

पुस्तक का नाम

कलामे रूमी

लेखक

अभय तिवारी

प्रकाशक

हिन्द पॉकेट बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, जे-40, जोरबाग लेन, नई दिल्ली-110032

संस्करण

2010

मूल्य

195 clip_image002

पेज

295

शुक्रवार, 16 मार्च 2012

बजट 2012 स्पष्ट दृष्टि की कमी

बजट 2012

स्पष्ट दृष्टि की कमी

अरुण चंद्र रॉय

यह समय पूरी दुनिया के लिए एक कठिन समय है. विकसित देशो में जिस तरह अर्थव्यवस्था चरमरा गई है, वित्तीय नियंताओं के लिए नीतियों और दिशाओं पर फिर से सोचने का समय आ गया है. दुनिया दो तरह से बटी हुई है. एक बराबरी के देश जहाँ आम तौर पर बराबरी-सा माहौल है. रोज़ी और रोटी, मूलभूत नागरिक सुविधाओं के लिए मारामारी नहीं है यानि विकसित देश. दूसरा गैर बराबरी वाला देश. जैसे हम. इन देशों में जहाँ कुछ लोगों के पास अकूत सम्पदा है तो अधिकांश लोगों के पास जरुरी चीजों तक का आभाव है. ऐसे गैर बराबरी वाले देशो में जिस तरह पश्चिम की अर्थव्यवस्था और नीतियों को अपनाया गया, गैर बराबरी की खाई और भी बढती चली गई. विकास की किरण तो दिखी लेकिन यह छन कर नीचे तक नहीं पहुच सकी. साठ के दशक के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था करवटें बदलने लगी थी लेकिन यह नब्बे के दशक में पूरी तरह बाजारू हो गई जहाँ लाभ के अतिरिक्त व्यापार का अन्य कोई मकसद नहीं रह गया था. इक्कीसवी सदी का पहला दशक दुनिया भर के लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया कि पूंजीवादी व्यवस्था की भी अपनी खामिया हैं जिसे अंततः हाशिये पर रहने वालों को वहन करना होता है.

इधर आम आदमी बज़ट में रूचि दिखाने लगा है. जिससे लग रहा है कि लोकतंत्र और भी परिपक्व हो रहा है. बज़ट पूर्व और उपरांत पान की दुकान से लेकर टी वी चैनलों तक बहस होती है. बज़ट विमर्श में बढती भागीदारी हमारी लोकतंत्र की सारगर्भिता का संकेत भी है.लेकिन  प्रणव दा के बजट 2012 में एक स्पष्ट सोच और दृष्टि की कमी दिखाई दे रही है.  इस बज़ट में जिन मुद्दों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए उन्हें तरजीह नहीं दी गई है. ढांचागत विकास, कृषि, जन आवास, जन स्वास्थय आदि के क्षेत्र में जितना निवेश होना चाहिए था, जितनी प्राथमिकता मिलनी चाहिए थी वह नहीं मिली है.

उदारवादी अर्थव्यस्था के परिणामो से जिस तरह विश्व के विकसित देश प्रभावित हो रहे हैं, आर्थिक मंदी के जिस चपेट में अमेरिका और यूरोप है, उस से सीख लेने की बजाय, हमारे बजट में फिर से विदेशी निवेश को प्राथमिकता दी गई है. रिटेल में विदेशी निवेश के पुरजोर विरोध होने के बाद भी, लग रहा है सरकार के एजेंडे पर यह अब भी है और किसी जुगाड़ से इसे संसद में पारित करने की कोशिश की जाएगी.  वित्तमंत्रीजी ने बजट 2012-13 में कृषि का बजट 18 फीसदी बढ़ाकर 20208 करोड़ रुपये कर दिया है। कहा गया है किसानो को और कर्जे दिए जायेंगे लेकिन किसानो के पैदावार को विचौलियों से बचाने और उन्हें सिंचाई, बीज और खाद आसानी से कैसे उपलब्ध होंगे, इस बारे में नीतिगत उपायों के बारे में कुछ नहीं कहा गया है. सत्तर हज़ार गाँव में बैंक खोलने की बात तो कही गई है लेकिन खेती के लिए उपजाऊ भूमि में हो रही लगातार कमी से कैसे निपटा जायेगा, इस बारे में चुप्पी है. पहली हरित क्रांति से उपज में साढ़े पांच प्रतिशत की वृद्धि हुई थी लेकिन लगभग आठ फिसिदी कृषि योग्य खेतो में कमी भी हुई थी. कृषि के क्षेत्र में प्रतिकूलता और सरकारी उदासीनता के कारण छोटे और मझौले किसानो की खाद्यान के मामले में आत्मनिर्भरता में भारी कमी आई है.

जहाँ देश की आधी आबादी के पास रहने को छत नहीं है वहीं बज़ट में कहा गया है कि सस्ते घर बनाने के लिए बिल्डर विदेशों से क़र्ज़ ले सकते हैं. प्रणव दा ने यह नहीं बताया कि सस्ते घर का तात्पर्य क्या है. इसे काले धन को सुनियोजित तरीके से भारत में पुनर्निवेश करने के लिए एक उपाय के रूप में देखा जाना चाहिए. जहाँ आम जानता पहले से ही भारी महंगाई के चपेट में है, सेवा कर में २ फिसिदी बढ़ोतरी से आम सेवा पहले से अधिक महँगी हो जाएँगी. और इसका अंततः बोझ उपभोक्ता पर ही आयेगा.  अभी बज़ट का विश्लेषण होना बाकी है, लेकिन इतना तो तय है कि इस बज़ट में स्पष्ट सोच और दिशा की कमी है, आम आदमी फिर हाशिये पर है.

(चित्र : साभार गूगल सर्च)

रविवार, 11 मार्च 2012

प्रेरक प्रसंग-27 : अपने मन को मना लिया

प्रेरक प्रसंग-27

प्रेरक प्रसंग – 1 : मानव सेवा, प्रेरक-प्रसंग-2 : सहूलियत का इस्तेमाल, प्रेरक प्रसंग-3 : ग़रीबों को याद कीजिए, प्रेरक प्रसंग-4 : प्रभावकारी अहिंसक शस्त्र, प्रेरक प्रसंग-5 : प्रेम और हमदर्दी, प्रेरक प्रसंग-6 : कष्ट का कोई अनुभव नहीं, प्रेरक प्रसंग-7 : छोटी-छोटी बातों का महत्व, प्रेरक प्रसंग-8 : फूलाहार से स्वागत, प्रेरक प्रसंग-९ : बापू का एक पाप, प्रेरक-प्रसंग-10 : परपीड़ा, प्रेरक प्रसंग-11 : नियम भंग कैसे करूं?, प्रेरक-प्रसंग-12 : स्वाद-इंद्रिय पर विजय, प्रेरक प्रसंग–13 : सौ सुधारकों का करती है काम अकेल..., प्रेरक प्रसंग-14 : जलती रेत पर नंगे पैर, प्रेरक प्रसंग-15 : वक़्त की पाबंदी,प्रेरक प्रसंग-16 : सफ़ाई – ज्ञान का प्रारंभ, प्रेरक प्रसंग-17 : नाम –गांधी, जाति – किसान, धंधा ..., प्रेरक प्रसंग-18 : बच्चों के साथ तैरने का आनंद, प्रेरक प्रसंग-19 : मल परीक्षा – बापू का आश्चर्यजनक..., प्रेरक प्रसंग–20 : चप्पल की मरम्मत, प्रेरक प्रसंग-21 : हर काम भगवान की पूजा,प्रेरक प्रसंग-22 : भूल का अनोखा प्रायश्चित, प्रेरक प्रसंग-23 कुर्ता क्यों नहीं पहनते? प्रेरक प्रसंग-24 : सेवामूर्ति बापू प्रेरक प्रसंग-25 : आश्रम के नियमों का उल्लंघन प्रेरक प्रसंग–26 :बेटी से नाराज़ बापू

अपने मन को मना लिया

प्रस्तुतकर्ता : मनोज कुमार

बात फिनिक्स आश्रम की है। एक दिन सवेरे के भोजन के बाद क़रीब ग्यारह बजे रावजी भाई मणिभाई पटेल और गांधी जी खाने के टेबुल पर बैठे थे। जब सब खा लेते थे तब गांधी जी अपना खाना शुरू करते थे। गांधी जी भोजन कर रहे थे और उनके पास उनके परिवार के एक बुजुर्ग कालिदास गांधी बैठे थे। बा खड़ी-खड़ी रसोई घर में सफ़ाई का काम कर रही थीं। दक्षिण अफ़्रीका में एक मामूली व्यापारी के यहां भी रसोईघर का काम और सफ़ाई के लिए नौकर रहते थे। यहां उन्होंने बा को काम करते देखा तो उन्हें आश्चर्य हुआ। उन्होंने गांधी जी से कहा, “भाई, तुमने तो जीवन में बहुत हेरफेर कर डाला। बिल्कुल सादगी अपना ली। इन कस्तूरबाई ने भी कोई वैभव नहीं भोगा”

बापू ने खाते-खाते जवाब दिया, “मैंने इसे वैभव भोगने से रोका कब है?”

यह सुनकर बा ने हंसते हुए ताना मारा, “तो तुम्हारे घर में मैंने क्या वैभव भोगा है?”

गांधी जी ने उसी लहजे में हंसते-हंसते कहा, “मैंने तुझे गहने पहनने से या अच्छी रेशमी साड़ी पहनने से कब रोका है, और जब तूने चाहा तब तेरे लिए सोने की चूड़ियां भी बनवा लाया था न?”

बा कुछ गंभीर होकर बोलीं, “तुमने तो सभी कुछ लाकर दिया, लेकिन मैंने उसका उपयोग कब किया है? देख लिया कि तुम्हारा रास्ता जुदा है। तुम्हें तो साधु-संन्यासी बनना है। तो फिर मैं मौज-शौक मनाकर क्या करती? तुम्हारी तबीयत को जान लेने के बाद मैंने तो अपने मन को मना लिया।”

बा के इस कथन में “मैंने तो अपने मन को मना लिया” उनके सम्पूर्ण जीवन की सफलता की कूंजी है। बा बापू की साधना और उनके महाव्रतों के पालन में कभी भी बाधक नहीं बनीं। उलटे धीरे-धीरे वे बापू के व्रतों, आदर्शों और सिद्धांतों को अपनाती गईं और उनपर आचरण किया। बा की महात्वाकांक्षा बापू की तरह अपने जीवन को पूर्ण बनाने की नहीं थी। उनका एक सहज स्वभाव था बापू के अनुकूल होकर रहने का। अपनी इच्छा-अनिच्छा का त्याग करके अनेक कठिनाइयों और परिवर्तन को सहकर पति के रास्ते चलना आसान नहीं है। इसके लिए बहुत बड़े आत्म-बल और अद्भुत समर्पण की भावना ज़रूरी है। बा में ये दोनों बातें थीं।

***

शनिवार, 10 मार्च 2012

दोहावली .... भाग - 3 / संत कबीर


जन्म  --- 1398
निधन ---  1518
 
जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥ 21 ॥
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 22 ॥

आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 24 ॥
माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥
जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 27 ॥
आया था किस काम को, तु सोया चादर तान ।
सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥
क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह ।
साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥
गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच ।
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 30

क्रमश:
दोहवाली --- भाग –1 / भाग - 2

कुरुक्षेत्र ..... पंचम सर्ग .... भाग - 1 / रामधारी सिंह 'दिनकर '



प्रस्तुत संदर्भ में कवि अपनी कल्पना में युद्ध समाप्त होने के बाद का वर्णन कर रहा है .... कवि के मन की काश्मकश  और विजय हो लौटते युधिस्थिर के मन में चल रहे भावों का प्रस्तुतीकरण है ----
शारदे ! विकल संक्रांति - काल का नर मैं ,
कलिकाल - भाल पर चढ़ा हुआ द्वापर मैं ;
संतप्त विश्व के लिए खोजते  छाया ,
आशा में था इतिहास - लोक तक आया ।
 
पर हाय , यहाँ भी धधक रहा अंबर है ,
उड़ रही पवन में दाहक लोल लहर है ;
कोलाहल-सा आ रहा काल - गह्वर से ,
तांडव का रोर कराल क्षुब्ध सागर से ।
 
संघर्ष -नाद वन- दहन- दारू का भारी ,
विस्फोट वह्नि -गिरि का ज्वलंत भयकारी ;
इन पन्नों से आ रहा विस्र यह क्या है ?
जल रहा कौन ? किसका यह विकत धुआँ है ?
 
भयभीत भूमि के उर  में चुभी शलाका ,
उड़ रही लाल यह किसकी विजय - पताका ?
है नाच रहा वह कौन ध्वंस- असि  धारे ,
रुधिराक्त -गात , जिह्वा लेलिहम्य पसारे ?
 
यह लगा दौड़ने अश्व कि मद मानव का ?
हो रहा यज्ञ या ध्वंस अकारण भव का ?
घट में जिसको  कर रहा खड्ड संचित है ,
वह सरिद्वारि है या नर का शोणित है ?
 
मंडली नृपों की जिन्हें विवश हो ढोती,
यज्ञोपहार हैं या कि मान के मोती ?
कुंडों में यह घृत -वलित हव्य बलता है ?
या अहंकार अपहृत नृप का जलता है ?
 
ऋत्विक पढ़ते हैं वेद कि, ऋचा दहन की ?
प्रशमित करते या ज्वलित वह्नि जीवन की ?
है कपिश धूम प्रतिगान जयी के यश का ?
या धुँधुआता  है क्रोध महीप विवश का ?
 
यह स्वस्ति - पाठ है या नव अनल - प्रदाहन ?
यज्ञान्त -स्नान है या कि रुधिर - अवगाहन ?
सम्राट - भाल पर चढ़ी लाल जो टीका ,
चन्दन है या लोहित प्रतिशोध किसी का ?
 
चल रही खड्ड के साथ कलम भी कवि की,
लिखती प्रशस्ति उन्माद , हुताशन पवि की ।
जय -घोष किए लौटा विद्वेष  समर से
शारदे ! एक दूतिका तुम्हारे घर से -
 
दौड़ी नीराजन - थाल लिए निज कर में ,
पढ़ती स्वागत के श्लोक मनोरम स्वर में ।
आरती सजा फिर लगी नाचने-गाने ,
संहार - देवता पर प्रसून छितराने ।
 
अंचल से पोंछ शरीर , रक्त-माल धो कर
अपरूप रूप से बहुविध  रूप सँजो कर ,
छवि को संवार कर बैठा लिया प्राणों में
कर दिया शौर्य कह अमर उसे गानों में ।
 
हो गया क्षार , जो द्वेष समर में हारा
जो जीत गया , वो पूज्य हुआ अंगारा ।
सच है , जय से जब रूप बदल सकता है ,
वध का कलंक मस्तक से टल सकता है -
 
तब कौन ग्लानि के साथ विजय को तोले ,
दृग -श्रवण मूंदकर अपना हृदय टटोले ?
सोचे कि एक नर की हत्या  यदि अघ है ,
तब वध अनेक  का कैसे कृत्य अनघ है ?
 
रण - रहित काल में वह किससे डरता  है ?
हो अभय क्यों न जिस - तिस का वध करता है ?
जाता क्यों सीमा  भूल समर में आ कर ?
नर - वध करता अधिकार कहाँ से पा कर ?
 
क्रमश:
प्रथम सर्ग --        भाग - १ / भाग -२
द्वितीय  सर्ग  --- भाग -- १ / भाग -- २ / भाग -- ३
तृतीय सर्ग  ---    भाग -- १ /भाग -२
चतुर्थ सर्ग ---- भाग -१    / भाग -२  / भाग - ३ /भाग -४ /भाग - ५ /भाग –6 /भाग –7 /भाग – 8 /भाग - 9